मास को दो पक्ष में विभाजित किया गया है शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष। शुक्लपक्ष में पूर्णिमा और कृष्णपक्ष में अमावस्या यदि वही अमावस्या प्रयाग के कुंभ में पड़े तो मौन स्नान मौन संस्कृति को प्रकट करती है। जहाँ आस्था का संगम और लोगों का समुद्र उमड़ता है करोड़ों लोग एक होकर जागृत होते हैं।
प्रयाग का अर्थ है जहाँ प्रथम यज्ञ किया गया हो शास्त्र कहते है सृष्टि के आरंभ में ब्रह्म जी ने यही यज्ञ किया था जिसमें बाल स्वरूप में विष्णु जी उन्हें शक्ति प्रदान की और शंकर जी ने उसके निरीक्षण कर्ता थे।
ज्योतिष कहता है माघ महीने में जब सूर्य, संक्रांति में उत्तरायण होता है तो मकर राशि में सूर्य का प्रवेश होता है और जब वृहस्पति भी सूर्य के साथ मकर में प्रवेश करता है तो प्रयाग में कुंभ होता है। कुंभ का अर्थ है घड़ा या कलश।
माघ मकरगति रवि जब होई ।
तीरथपति आवय सब कोई ।।
तीसरी मान्यता है समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत को बचाने के क्रम में उसे जिन चार स्थानों प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में रखा गया उसमें प्रयाग सबसे महत्वपूर्ण है क्योंकि वहां कुंभ से कुछ अमृत की बूंदे छलक कर गिरी थी।
करोड़ो की संख्या में हिंदुओं का विश्व भर से प्रयाग पहुँचना और एक दिन में पूरे जीवन को शुद्ध करना, देह की पवित्रता से ज्यादा मन को ऐसी डुबकी लगाना की वह सभी विकारों से मुक्त हो जाये।
कुंभ उत्सव तब हो जाता है जब आप का हृदय आनंदित हो जाता है वह ज्ञानरस से नहा लेता है। मनुष्य होने के एहसास हो जाता है नहीं तो जिंदगी में रोटी, कपड़ा, मकान और सम्मान के चक्कर मे दो मिनट भी हमें अपने लिये नहीं है।
यहाँ नहाते लोगों में गजब का अनुशासन है, स्त्री पुरुष नहाने के बाद एक ही जगह कपड़े बदलते है यहां तक शरीर भी छू जाते है भीड़ की वजह से स्त्री के कपड़े बदलने में पुरुष तो कभी पुरुष के कपड़े बदलने में स्त्री आ जाती है लेकिन यहां सबके अपने राम है जो एक ही है लाज और शरम एक प्रकार सामाजिक अनुशासन है। प्रयाग धार्मिक अनुशासन के लिए भी जाना जाता है यहाँ नहाने में लगता है शरीर गौण हो जाता है पुण्य और मुक्ति ही उद्देश्य रह जाती है।
मैने एक पचासी वर्ष के वृद्ध से पूछा जो ट्रैन से 350 km का सफर कर सीधे नहाने जा रहे थे उन्होंने कहा की वह मुक्त होना चाहते हैं और इतनी सारी मेहनत भगवान के लिये है एक बूढी अम्मा जो 80 साल की रही होगी जो लकुठी लेकर सीधे चल भी नहीं पा रही थी मैंने कहा दादी दिक्कत नहीं हो रही है उन्होंने कहा बेटा ज्यादा से ज्यादा मर ही जायेंगे न।
दूर गाँव से सिर पर 30 kg का बोझा रखे 24 km पैदल चलना और लकड़ी के चूल्हे खरीद वही खाना बना कर खाना फिर अबाध श्रद्धा के कुंभ में शरीर को भिगोना। एक ही उद्देश्य है जल्दी से त्रिवेणी में स्नान फिर सारे काम।
बहुत से लोग यह मानते है ईश्वर नहीं होता है ये जो प्रयाग की धरती पर प्रैक्टिस की जाती है ये कोरी कल्पना भी तो नहीं हो सकती है हजारों वर्ष की मौन संस्कृति अविरल बह रही है तो प्रयाग ने उसे ऊर्जा नहीं दी।
भगवान हो न हों लेकिन यहाँ इतने जीवित व्यक्ति के हृदय से जो भगवान की गूंज हो रही है वह
संगठित हो कर एक ऊर्जा का रूप धारण कर भगवान तो स्वयं ही बन जायेगा।
ये समागम, ये संगम लोगों, भाषा, व्यापार, प्रचार तक ही सीमित नहीं है बल्कि हृदय और मन का भी संगम करा देता है। सदियों की परंपरा का जीवित रहना बताता है की भारत में ऋषियों की संस्कृति अभी भी प्रभावित है जो कुछ देर से ही सही लेकिन भारत को जागृत जरूर करेंगी।
भारतीय शरीर, मन, चित्त और बुद्धि भारत को और उसकी आत्मा को उसके मैदान में जरूर
पहुँचायेगा।
Ye hamara desh parmparao se paripurn h isliye esko adar sahit shat shat naman.
खूब नमन💐💐