एक ही विचार भिन्न – भिन्न विचार के सांचे में जाने से खाँचे के आकार में ढल जाता है।
मार्क्सवाद को ही ले लीजिए, कहीं चे ग्वेरा या लेनिन तो कहीं माओ वाद के साँचे में ढल गया। इस्लाम को देखें तो अरब के मूल सांचे से निकल कर मध्यपूर्व से इंडोनेशिया फिर भारत में देवबंदी, सहारनपुरी, मरकज में आते – आते आकार बदल गया। सच्चा इस्लाम चलने से पहले ही लुप्त हो गया। कुछ लोगों ने सूफी माध्यम से शांति का पाठ पढ़ाने का प्रयास किया तो उनका भी कत्ल कर दिया गया।
सबसे बड़ी कमी यह है कि गलत को गलत अब कहा नहीं जाता। वह साहस आधुनिकता और बौद्धिकता के तथाकथित प्रयास में खो गया। क्योंकि सोच यह रहती है कि वह क्या सोचेंगे? आज कट्टरपंथी मुसलमानों को कोई आईना दिखाने का साहस नहीं करता है। जिस तरह धार्मिक कट्टरता के नाम पर लोगों के सिर काट देते हैं जैसा कि अभी पेरिस के स्कूल में टीचर का सिर उसके कट्टरपंथी मुस्लिम शिष्य ने काट दिया। क्योंकि उसने समझाने में मुहम्मद के कार्टून का उदाहरण दे दिया था।
धर्म क्या है? मुस्लिम अभी भी वाजिब परिभाषा के बगैर मनमौजी व्याख्या करने में लगा है। अरबी, ईरान, कुवैती, सीरिया, नाइजीरिया, इंडोनेशिया आदि सबका इस्लाम अलग – अलग है। मुस्लिम फिरकापरस्ती से सभी परेशान हैं। वह ईशनिंदा का खाँचा बनाये हैं जिसमें अल्हा और नबी पहले नम्बर पर और कुरान दूसरे पर है। यदि आप से कहीं इनके खिलाफ गलती हुई तो समझिये कभी भी गला रेत कर बदला ले लिया जायेगा। आधुनिक दुनिया में ये जाहिल, जंगली खून का खेल खेल रहे हैं, जिन्हें धर्म से मतलब नहीं, उसने पैगम्बर बनने का स्वप्न बुना है।
किसी को कत्ल करने की इजाजत यदि कोई धर्म देता है तो यकीन मानिये वह धर्म नहीं है। वह कौम ही हो सकता है। मुस्लिमों की तादाद बढ़ाने के लिए एक हथकंडा यह भी है कि गैर-मुस्लिम लड़की को प्रेमजाल में फंसा कर एक नया मुसलमान बना लो। फिर वह अपने घर और अपने धर्म की बैरी हो जाएगी।
मनुष्य होकर इतनी गंदी सोच है किसी अन्य धर्म के लिए, दूसरी ओर यदि इसपर धार्मिक सहमति भी सम्मिलित हो तो यह उस धर्म को भयंकर तबाही की ओर ले जायेगा जैसा कि इस्लाम के साथ है, बस उसके मानने वाले आंख पर बुरखा डाले बैठे हैं। भारत में एक तथाकथित सेकुलर वर्ग है जो अपनी राजनीतिक पिपासा के लिए कहते हैं कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता है। शार्ली एब्दो के कार्टूनिस्ट और पेरिस में हुये टीचर के कत्ल का कौन सा धर्म जिम्मेदार है यह कहने में मासूमियत कैसे आ सकती है?
नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।
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om supar prayaas