सृष्टि की रचना के बाद ईश्वर ने जीवों का निर्माण किया, पेड़ पौधे फिर अतिसूक्ष्म जीवों के बाद बड़े जीव बनाये। अंत में मनुष्य का विकास किया जो बाकी जीवों से भिन्न था कारण सोचने और समझने की शक्ति, विचार की शक्ति। इन्ही विचारों की शक्ति से मानव में दया और करुणा का जन्म हुआ, यह शक्ति अद्वितीय थी उसे सही प्रकार से समझने के लिए और कल्याण के लिए ईश्वर ने वेदों की रचना की जिसके अनुसार मानवता वह सिद्धांत या विचारधारा है जिसमें मानव का हित सर्वोपरि माना जाता है। जिसमें सहानुभूति एक विशिष्ट गुण है, सहानुभूति दो शब्दों से मिल कर बना है ‘सह’ अर्थात साथ- साथ और ‘अनुभूति’ का अर्थ है अनुभव का बोध। इसप्रकार सहानुभूति का अर्थ है प्रत्येक व्यक्ति में एक प्रकार का अर्थात साथ-साथ अनुभव का बोध।
अमेरिका के कवि वाल्ट ह्विटमैन के शब्दों में:
मैं विपत्ति ग्रस्त मनुष्य से यह नहीं पूछता की तुम्हारी दशा कैसी है वरन मैं स्वयं भी आपदा ग्रस्त बन जाता हूँ और यही गुण मनुष्य में मानवता प्रकट करते हैं।
वेदों उपनिषदों में मानवता को सर्वोपरि माना गया है व मनुष्य को मानवता के गुण के साथ ही परिभाषित किया गया है। वेदों के अनुसार ‘‘मम व्रतं देवाः मम वाचं दिव्यं देवो हिरण्यम् गच्छाः।’’ वेद कहता है कि हे मानव ! तू अपनी मानवता को जानने का अवश्य प्रयास कर। ऋग्वेद 10/53/6 में स्पष्ट है :
तन्तु तन्वरन्रजसो भानुमन्विहि ज्योतिष्मतः पथो रक्ष धिया कृतान् ।
अनुल्बणं वयत जोगुवामपो मनुर्भव जनया दैव्यं जनम् ।।
अर्थात: हे जीव! तू हमेशा कुछ न कुछ बुनता रहता है, अपने भाग्य को, भविष्य को, अपने जीवन को बुनता रहता है। जीवन इसके अतिरिक्त और क्या है कि मनुष्य अपने ज्ञान/समझ के अनुसार कुछ दूर तक देखता है और फिर उसके अनुसार कर्म करता है। इस तरह जीव अपने ज्ञान के ताने में कर्म का बाना डालता हुआ निरन्तर अपने जीवन-पट को बनाया करता है, किन्तु हे जीव ! अब तू अपना यह मामूली रद्दी कपड़ा बुनना छोड़कर दिव्य जीवन का खद्दर बुन, ‘‘दैव्य जन’’ को उत्पन्न कर। इसके लिए तुझे बड़ी सुन्दर और लंबी तानी करनी पड़ेगी। द्युलोक तक विस्तृत प्रकाशमान ताना तान। ऐसे दिव्य वस्त्र बनाने की लुप्त हुई कला की रक्षा इस प्रकार हो सकती है, अतः इस उद्योग में पड़कर तू उन ज्ञान-प्रकाश प्रणालियों की रक्षा कर, जिन्हें कि कलाविदों ने अपनी कुशल बुद्धि द्वारा बड़े यत्न से अविष्कृत किया था। ज्ञान के इस दिव्य ताने को तू फिर भक्ति के कर्म द्वारा बुन। इस ताने में भक्ति-रस से भिगोया हुआ अपने व्यापक कर्म का बाना डालता जा और ध्यान रख, तेरी बुनावट एकसार हो, कभी ऊँची-नीची या गठीली न हो। सावधान रहते हुए सदा उस ज्ञान के अनुसार ही तेरा ठीक-ठीक कर्म चले और वह कर्म सदा भक्ति से प्रेरित हो। इस सावधानी के लिए तुझे पूरा मननशील होना पड़ेगा, सतत विचार-तत्पर होना होगा, तभी यह दिव्य जीवन का सुन्दर पट तैयार हो सकेगा। अतः हे जीव! तू दिव्य जीवन बुनने के लिए उठ और इस लुप्त हो रही अमूल्य दिव्य कला की रक्षा कर।
संसार को सदा जिसकी आवश्यकता रही है और रहेगी तथा इस समय भी जिसकी अत्यंत आवश्यकता है उस तत्त्व का उपदेश इस मंत्र में किया गया है। वेदों में यदि और उपदेश न भी होते केवल यही मंत्र होता तब भी वेद संसार के सभी मतों और सम्प्रदायों से उच्च रहते।
मनुष्य के लिए सुख, समृद्धि एवं शांति से परिपूर्ण जीवन के लिए सच्चरित्र तथा सदाचारी होना पहली शर्त है, जो उत्कृष्ट विचारों के बिना संभव नहीं है और यहीं से मानवता की शुरुवात होती है। अगर सड़क पर एक्सीडेंट की वजह से कोई तड़प रहा हो तो उसके दुखो की अनुभूति केवल मनुष्य को ही हो सकती है और वही उसे तत्काल सेवाएं देता है। यह अलग बात है कि आज कल लोग मानवता को भूलते जा रहे हैं लेकिन अगर मनुष्य में मानवता न हो तो वह नराधम बन जाता है।
यजुर्ववेद 36/18 कहता है : “मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे”
अर्थात, सब को मित्र की स्नेहशील आँख से हम देखें। यहाँ तो वेद मनुष्य सीमा से भी आगे निकल गया प्रेम का अधिकारी केवल मनुष्य ही न रहा वरन सभी प्राणी हो गए, यह उचित भी है क्योंकि मनुष्य शब्द का अर्थ यास्क ने निरुक्त में लिखा है : ‘मनुष्यः कस्मात् मत्वा कर्माणि सीव्यति’ (3/8/2) या, ‘मत्वा कर्माणि सीव्यति इति मनुष्य:’
अर्थात जो विचार कर कर्म करे अन्धाधुन्ध कर्म न करे। कर्म करने से पूर्व जो भली प्रकार विचारे की मेरे इस कर्म का क्या फल होगा? किस-किस पर इसका क्या प्रभाव होगा? यह कर्म भूतों के दुःख प्राणियों की पीड़ा का कारण बनेगा या भुतहित साधेगा? वही मनुष्य है।
जब एक बार किसी ने प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टीन से संसार में व्याप्त दुःख एवं अशान्ति को दूर करने का उपाय पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया- ‘‘श्रेष्ठ मनुष्यों का निर्माण करो’’। इस पर आइन्स्टीन की बड़ी प्रशंसा हुई यहाँ जानने योग्य बात यह है कि आइन्स्टीन ने जो उत्तर दिया वही तो हजारों वर्ष पूर्व लिखे वेद कहते हैं ‘‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’’ (ऋग्वेद 9/63/5) अर्थात विश्व के सभी लोगों को श्रेष्ठ गुण, कर्म, स्वभाव वाले बनाओ। वेद स्पष्ट रुप से कहते हैं : मनुर्भव – मनुष्य बनो।
बहुत बेजोड़ चिंतन और सुंदर अभिव्यक्ति जो बार बार सोचने पर विवश कर दे।जितनी बार पढिये लगता है एक बार और पढ़ा जाय।साथ ऐसे रुचिकर लेख व्यक्ति का व्यक्तित्व को ही परिभाषित कर देते है कि लिखने वाले के भाव कितने कोमल है।
धन्यवाद!