सुप्रीमकोर्ट और समाज की उधेड़बुन

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Dhananjay Gangey
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सुप्रीम कोर्ट ने 160 साल पुराने अडल्ट्री कानून को अवैध घोषित कर दिया। यह कानून 1860 में बना था जो 497 कि धारा में शामिल था। अभी कुछ दिन पहले ही 377 अप्रकृतिक सम्बन्धों (सहमति से) को अपराध की श्रेणी से बाहर किया था।
तलाक़-ए-बिदद (एक बार में तीन तलाक) को अवैध ठहराया। हलाला और नारी के खतने पर सुनवाई जारी है। सुप्रीम कोर्ट के ये निर्णय निश्चित ही समाज को अंदर तक मंथन करने को विवश कर दिये हैं।

कुछ विषयों पर सुप्रीम कोर्ट बेजा का हस्तक्षेप करता नजर आता है खास कर धार्मिक मामले में। लोकतंत्र में धर्मनिरपेक्षता सत्ता को असीम शक्ति देती है कि वह धर्म के अनुशासन को न माने और धर्म को भी राजनीतिक तक ही सीमित करे भले ही अनुच्छेद 15 और 25 में मूलाधिकार के रूप में  अबाध धार्मिक स्वतंत्रता की बात की गई हो।

हम 21वीं सदी के सबसे कठिन दशक के दहलीज पर खड़े है 2020 से 2030 में जो सामाजिक ताना बाना बनेगा वो कमोवेश 2090 तक चलेगा। कुछ अप्रत्याशित निर्णय न्यायपालिका और नीतिनियन्ता द्वारा इस दौर में लिये जायेगे लेकिन इसके लिए समाज अभी तैयार नहीं, कुछ परेशानी का सबब हो सकता लेकिन परिवर्तन स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। ये स्थिति घोड़ा गाड़ी छोड़ने जैसी है। एक बार लगा कि मोटर गाड़ी हमारी सभ्यता को मिटा देगी किन्तु आज वो हमारी संस्कृति का हिस्सा बन गई है और घोड़ा गाड़ी इतिहास हो गया।

सुप्रीम कोर्ट का निर्णय ST/SC एक्ट पर हो या आज आये प्रमोशन के नागराज मामले में संशोधन से जुड़ा हो, उसने सरकार और समाज को आईना दिखाने का ही काम किया है।

समाज में मानवीय सम्बन्ध और रिश्ते बदल रहे है, ये नैतिक मूल्य का पतन या सामाजिक मूल्य का क्षरण नहीं है बल्कि उदारीकरण के बाद के दो दशकों में मानवीय सम्बन्धों में जितना परिवर्तन हुआ है उतना 6 हजार वर्षों में नहीं हुआ था। सेक्स संबंधों में जितना परिवर्तन आया उतना तीन हजार वर्षों में नहीं आया था। जरूरी है कि हम भी ओपन सेक्स को अपना लें जो आने वाले समय की जरूरत है।

एक बार फिर से वात्सायन के कामसूत्र और कोकशास्त्र को पढ़े जाने की जरूरत है। जब तक व्यक्ति का काम संतुष्ट नहीं होगा, तब तक एक मजबूत समाज जो नारी हिंसा से मुक्त हो, नहीं बन सकता है।

भारतीय संस्कृति के तथाकथित ठेकेदारों को मालूम होना चाहिये कि भारतीय सभ्यता सनातन काल से गतिमान है। कुछ छोटे थपेड़े इसे कमजोर नहीं करते है बल्कि हम और भी मजबूत हो जाते है।

हठ मत कर बावरे, हठ सब कुछ नेस्तनाबूद कर देता है। समय की चाल से हमें सुर मिलना है यदि आगे बढ़ना है। प्राकृतिक न्याय भी समयापेक्षित रहा है। हर सदी की अपनी अच्छाई और बुराइयां होती है उसमें सामंजस्य बैठना हमारा धर्म है।

सामाजिक मान्यताओं को धर्म से नहीं जोड़ा जाय क्योंकि ये मान्यतायें सकल समाज पर आरोपित होती है जबकि धर्म व्यैक्तिक भावना है। राजनीति और व्यापार ने उसे सामुदायिक और व्यावसायिक स्वरूप दे दिया है।

एक बार पुनः समय आ गया कि जिन नीतियों पर आप को विवाद नजर आ रहा है शास्त्रों को पढ़िए शायद इसी बहाने उसकी धूल साफ हो जाय।

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Sachin dubey
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4 years ago

Sahi bat👍👍

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