5 ट्रिलियन इकोनॉमी : सपना या हकीकत

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Dr Dhirendra Tiwari
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Physician, writer, social worker, blogger,

देश में 2019 के आम चुनाव में लोकसभा की लगभग 303 सीट जीत कर आने वाली भाजपा की अगुवाई में राजग ने जब सत्ता की बागडोर संभाली, तब उसके मुखिया देश के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने 2019-20 के बजट सत्र में भारत  को “5 ट्रिलियन इकोनॉमी” बनाने की बात कही, तो पहली बार देश के आम आदमी ने एक नया शब्द सुना, वह था “5 ट्रिलियन इकोनॉमी”। अचानक चर्चा का विषय हो गया “5 ट्रिलियन इकोनॉमी”। होता भी क्यों नहीं, आखिर प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने जो कहा था।

श्री नरेंद्र मोदी ऐसे व्यक्ति हैं, जिनकी छींक भी न्यूज़ की हेडिंग होती है, इसमें बहुत बड़ी भूमिका स्वयं विपक्ष की भी है, और कुछ भूमिका श्री नरेंद्र मोदी की कार्यकुशलता, जैसे सीधे जनता से संवाद बनाए रखना। जिससे जनता उनके हर क्रियाकलापों से खुद को जुड़ा पाती है। जब उनका सूट चर्चा का विषय बन जाता है, फिर तो यह लाल बुझक्कड़ की पहेली जैसी थी “5 ट्रिलियन इकोनॉमी”। आम आदमी ने तत्काल “गूगल” में टाइप करना शुरू कर दिया “5 ट्रिलियन इकोनॉमी”। भारत में “गूगल” सर्वाधिक प्रिय माध्यम है। इकोनॉमी के समझ के प्रति सुस्त रहने वाला आम आदमी मस्तिष्क जागृत हो गया, पहली बार एक आम आदमी की उत्सुकता देश के इकोनॉमी को जानने में थी।

वर्तमान में देश की अर्थव्यवस्था लगभग 2.7 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर है, 5 ट्रिलियन मतलब वर्तमान जीडीपी का दुगुना होना, तो क्या यह संभव है? वह भी 5 वर्षों में क्योंकि प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने 2024 तक भारत को 5 ट्रिलियन इकोनॉमी बनाने का लक्ष्य रखा है तो क्या 5 वर्षों में भारत की जीडीपी 2.7 ट्रिलियन से बढ़कर 5 ट्रिलियन हो सकती है मतलब दुगुनी? क्या यह सपना है? या हकीकत। क्या चुनौतियां आएंगी इस सपने को हकीकत करने में? और क्या फायदा होगा जब भारत 5 ट्रिलियन इकोनॉमी होगा?

अगर हम चुनौतियों की बात करें तो सर्वाधिक बड़ी चुनौती जो मेरी समझ में है, वह भारतीय आम जनमानस की देश की अर्थव्यवस्था में रुचि का अभाव। भारतीय आम आदमी ने हमेशा देश की अर्थव्यवस्था के बारे में उदासीन समझ रखा है और यह सबसे बड़ी चुनौती है। क्योंकि जब तक यह लक्ष्य जनता का विषय नहीं बनेगा, तब तक जनता इससे जुड़ नहीं पाएगी और यह लक्ष्य असंभव तो नहीं पर कठिन अवश्य बना रहेगा। पर अगर जनता ने इसे अपना आंदोलन अपना लक्ष्य मान लिया तो फिर यह कोई चुनौती नहीं रह जाएगी। इकोनॉमी के प्रति उदासीन आम आदमी में यह परिवर्तन, यह समझ होगा कैसे? क्योंकि आज भारत की अधिकांश जनता इकोनॉमी का मतलब नए वित्तीय वर्ष में सरकार की ओर से लाए जा रहे वार्षिक बजट को ही समझती है, वह भी सिर्फ यही कि क्या सस्ता हुआ है? और क्या महंगा? और टैक्स में कितना छूट मिला है? बजट पूर्व लाए गए आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट की तो दूर – दूर तक कोई चर्चा ही नहीं होती। गलती भारतीय जनता की नहीं, क्योंकि कभी किसी ने यह प्रयास ही नहीं किया कि आम जनमानस देश की अर्थव्यवस्था पर विचार करें या इसकी समझ रखे। कभी किसी सरकार ने भी यह प्रयास नहीं किया कि आम आदमी देश की अर्थव्यवस्था से खुद को जोड़ पाए या उसकी समझ विकसित हो सके और आम जनता ने भी किसी राष्ट्र के सबसे महत्वपूर्ण अंग, जिसका सरोकार उसके जीवन से सर्वाधिक जुड़ा है, ऐसे किसी भी वित्तीय मामलों में कभी रुचि नहीं रखी।

आज हम अगर जीडीपी की बात करते हैं, जीडीपी में विकास दर की बात करते हैं, डिफ्लेशन – इन्फ्लेशन की बात करते हैं, तो यह सब एक आम आदमी के दिमाग में ना समझ में आने वाला विषय होता है। कारण स्पष्ट है, रुचि का अभाव। अगर हम रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के कामकाज पर बात करें तो देश का एक बहुत बड़ा तबका ऐसा है, जो इस बात से पूरी तरह अनभिज्ञ है, कि इस महत्वपूर्ण संस्था का कार्य क्या है? देश की अर्थव्यवस्था में इसकी भूमिका क्या है? रेपो रेट, रिवर्स रेपो रेट शब्द तो क्वांटम थ्योरी जैसी है। एक ऐसा व्यक्ति जिसके हस्ताक्षर को एक आम आदमी ना जाने दिन में कितनी बार देखता है (नोट पर भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर का हस्ताक्षर) फिर भी उसके मन में कभी कोई उत्सुकता क्यों नहीं दिखती कि यह कौन सी संस्था है? यह कौन सा महत्वपूर्ण दायित्व है? आम जनता की देश की अर्थव्यवस्था के प्रति उदासीनता का कारण क्या है? क्यों एक आम आदमी अपने आप को देश की अर्थव्यवस्था से जुड़ा नहीं पाता? और एक उदासीनता रखता है? जिसके कारण उसकी समझ और विकसित नहीं हो पाती।

कारण स्पष्ट है, पूर्ववर्ती सरकारों का व्यवहार। पूर्ववर्ती सरकारों ने कभी भी इस दिशा में प्रयास ही नहीं किया, कि वह एक आम आदमी को भी देश की अर्थव्यवस्था की समझ से जोड़ पाए। इसे कभी आम आदमी का विषय ही नहीं बनाया गया। और ना ही कभी इस पर चर्चा का वातावरण बनाया गया। जिस तरह स्व. लाल बहादुर शास्त्री जी ने देश की खाद्यान्न समस्या को एक आम आदमी के राष्ट्रीय गौरव से जोड़कर एक आंदोलन के रूप में प्रत्येक नागरिक की भागीदारीता सुनिश्चित कर देश को खाद्यान्न में आत्मनिर्भर बनाया। उस तरह कभी किसी सरकार ने देश की अर्थव्यवस्था के बारे में कभी कोई मुहिम शुरू नहीं की। कारण स्पष्ट है, अर्थव्यवस्था की बात मतलब विकास की बात। सरकार के कामकाज की बात। सरकारों के वित्तीय प्रबंधन की बात। फिर तो सरकारों का फिर से चुन कर आना इन्हीं बातों पर भी निर्भर करेगा, फिर तो काम करना पड़ेगा और परिणाम दिखाने होंगे क्योंकि अर्थव्यवस्था की समझ रखने वाला जनमानस देश की प्रगति पर सवाल पूछेगा। आर्थिक प्रगति की कसौटी पर सरकार के कार्यों की समीक्षा करेगा। फिर जो सत्ता में बैठे माननीय लोग हैं, जो राजसी सुख से लबरेज हैं, उन्हें सेवकों की भूमिका में आना पड़ेगा और भला सत्तासीन लोगों को यह कैसे मंजूर हो सकता है? अतः एक आम आदमी इन से दूर रहे, वह सिर्फ अपने जीवन यापन में ही व्यस्त रहें। देश का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग ‘देश की अर्थव्यवस्था’ पर उसकी समझ शून्य रहे, ताकि सत्ताधीशों की दुकानें चलती रहे और आम आदमी सिर्फ इतनी समझ रखे कि, क्या सस्ता हुआ? क्या महंगा और क्या हमें मुफ्त मिला? किस सरकार ने कर्ज माफ किया? किसने टैबलेट बांटा तो किसने मोबाइल बांटा? किसने कितने किलो चावल बाँटा तो किसने चना?

2014 का संघीय चुनाव बहुत मामलों में परिवर्तनकारी रहा। पहली बार किसी चुनाव के बाद कोई सरकार आई, जिसने आर्थिक मामलों में एक आम आदमी की भागीदारीता सुनिश्चित की। चाहे वह नोटबंदी का समय हो, या जीएसटी का, सीधे जनता से संवाद करना तथा जनता को इन मुद्दों से सीधे जोड़ना देश के आम आदमी का देश की अर्थव्यवस्था के प्रति समझ बढ़ाने में सहायक सिद्ध हुआ। पहली बार रिजर्व बैंक जैसी महत्वपूर्ण संस्था आम आदमी के बीच के संवाद का विषय बना। पहली बार रिजर्व बैंक के गवर्नर के बारे में सामान्य जनमानस में चर्चा प्रारंभ हुई, चाहे वह रघुराम राजन की बात हो या उर्जित पटेल।  यह अच्छा संकेत है, कम से कम एक आम आदमी ने इस ओर रुचि तो दिखाया। एक आम आदमी द्वारा इस ओर रुचि दिखाना उसके अर्थव्यवस्था के प्रति समझ को बढ़ाएगा, जिससे उसकी स्वतः ही देश की अर्थव्यवस्था में भागीदारीता के प्रति उत्सुकता बढ़ेगी। एक आम आदमी की भागीदारीता बढ़ने से यह विषय सरकार केन्द्रित ना होकर जन विषय बन जाएगा। जिससे राह आसान तो नहीं पर वर्तमान में जितना दुष्कर लग रहा है, उतना भी दुष्कर नहीं रहेगा। मेरा दुष्कर बोलना अति आशावादियों को परेशान तो कर सकता है, परंतु ऐसा बोलने के प्रति कुछ कारण अवश्य है।

अगर हम बात करें वर्तमान उस समय की जब यह सपना राष्ट्र के समक्ष लाया गया था, तो सर्वप्रथम 5 ट्रिलियन इकोनामी की चर्चा जून 2019 के नीति आयोग की बैठक में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी द्वारा प्रारंभ की गई थी। उसी वर्ष पेश हुए 2018-19 के आर्थिक सर्वेक्षण तथा 2019-20 के बजट में चर्चा को आगे बढ़ाते हुए बकायदा सरकार ने अपना रोडमैप भी जारी किया था।

अगर हम किसी देश के जीडीपी की बात करें तो सामान्य भाषा में इसे हम उस देश के भौगोलिक क्षेत्र में 1 वर्ष के भीतर उत्पादन एवं सेवा का कुल मौद्रिक मूल्य बोलते हैं। इसे व्यय विधि, आय विधि एवं उत्पादन विधि द्वारा गणना किया जाता है। जिसे अंतरराष्ट्रीय जगत में अमेरिकी मुद्रा डॉलर में आंका जाता है। दो देशों के जीडीपी की अंतरराष्ट्रीय तुलना ज्यादातर उत्पादन विधि के गणना अनुसार किया जाता है। 2019 में भारत की जीडीपी 2.7 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर थी उससे पूर्व 2014 में 1.8 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर थी। अर्थात मोदी सरकार 1.0 में देश की जीडीपी में 1.8 ट्रिलियन से बढ़कर 2.7 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की बढ़ोतरी हुई थी। अब मोदी सरकार 2.0 ने 2024 तक 5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का लक्ष्य रखा है। किसी भी देश का विकास व समृद्धि उसके जीडीपी से आंका जाता है, अर्थात जितना ज्यादा जीडीपी उतना ज्यादा समृद्ध देश। साफ है कि, अगर हम 5 ट्रिलियन अर्थव्यवस्था वाले देश बने तो हमारा देश पहले से ज्यादा विकसित और समृद्ध बनेगा। 2019 में प्रति व्यक्ति वार्षिक आय लगभग 1,42,000 रुपये (मासिक आय 11900 औसत) थी। 5 ट्रिलियन इकोनॉमी होना मतलब प्रति व्यक्ति आय लगभग दुगनी होना, जिससे देश के नागरिकों के जीवन स्तर में सुधार आना होगा।  2.7 से बढ़कर 5 ट्रिलियन लक्ष्य को पाने के लिए अगले 5 वर्षों तक भारत को उत्पादन विस्तार में 84% की बढ़ोतरी करनी होगी अथवा वार्षिक संवृद्धि दर को 13% चक्रवृद्धि वार्षिक दर से विकास करना होगा। जिसमें हम अगर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया द्वारा गणना किए गए 4% मुद्रास्फीति दर का समायोजन करें तो भी यह दर कम से कम 9% वास्तविक संवृद्धि दर होनी चाहिए। यह सारी गणनायें 2019 के अनुसार है। विगत 5 वर्षों में कभी भी वास्तविक संवृद्धि दर या वार्षिक विकास दर 7.1% से ज्यादा नहीं रही, और आज तक कभी भी 9% नहीं रही, तो 9% विकास दर हासिल करना निश्चित तौर पर चुनौती भरा है। किसी देश की इकोनॉमी का लक्ष्य जितना बड़ा होगा अर्थात अर्थव्यवस्था में जितनी प्रगति होगी उतनी वृद्धि देश के विकास तथा संसाधनों में होगा। जिससे प्रति व्यक्ति के हिस्से में उतना ही बड़ा भाग विकास एवं संसाधन का आएगा, जिससे प्रति व्यक्ति आय बढ़ेगी, प्रति व्यक्ति आय बढ़ने से उनकी खरीद क्षमता बढ़ेगी, खरीद क्षमता बढ़ने से उद्योगों का विस्तार होगा, जिससे रोजगार बढ़ेगा, रोजगार बढ़ने से उत्पादन बढ़ेगा, उत्पादन बढ़ने से अर्थव्यवस्था बढ़ेगी। यह एक चक्रीय प्रणाली जैसा होगा।

अगर हम एशिया के दो देश चीन एवं दक्षिण कोरिया की बात करें तो चीन ने जहां 2003 से 2007 के बीच में 11.7% वार्षिक विकास दर हासिल किया, तो दक्षिण कोरिया ने 1983 से 1987 के बीच में 11% का वार्षिक विकास दर हासिल किया। इस लिहाज से भारत द्वारा अगले 5 वर्ष हेतु 9% विकास दर का लक्ष्य कोई असंभव कार्य नहीं लगता। परंतु इसके लिए आवश्यक है कि घरेलू बचत दर 39% हो जो विगत 5 वर्षों में 30.8% थी। और निवेश दर 41% हो जो 32.5% थी। तथा जीडीपी में निजी उपभोग का हिस्सा 59% से घटाकर 50% लाने की जरूरत है। अर्थात विदेशी पूंजी प्रवाह जीडीपी का 1.7% रहना चाहिए। साफ है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को और अधिक पूंजी निवेश की आवश्यकता होगी, ताकि इसे निवेश प्रधान अर्थव्यवस्था बनाया जा सके। वर्ष 2003 से 2008 के बीच में भारतीय अर्थव्यवस्था में काफी निवेश आया था, परंतु 2008 की वैश्विक मंदी के कारण इसकी रफ्तार जरूर धीमी पड़ी थी। नीति आयोग की यह पहल की भारतीय अर्थव्यवस्था को उपभोग आधारित अर्थव्यवस्था से बदलकर निवेश आधारित अर्थव्यवस्था बनाने का प्रयास सही तो हो सकता है, परंतु घरेलू बचत दर को बढ़ाएं बिना किसी भी देश का अपनी विकास दर को बढ़ा पाना दुष्कर कार्य है। विदेशी निवेश कुछ हद तक अर्थव्यवस्था में पूंजी निवेश की जरूरत को पूरा कर सकती है, परंतु यह घरेलू संसाधनों का विकल्प नहीं बन सकता। हमें घरेलू निवेश को प्रोत्साहन देने हेतु देश के प्रत्येक नागरिक की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी और यह तभी संभव है जब देश में ‘देश की अर्थव्यवस्था’ के प्रति रुचि एवं जागरण का भाव जागृत होगा। जब देश की अर्थव्यवस्था विदेशी पूंजी निवेश के बजाय घरेलू निवेश पर ज्यादा आधारित होगी, तो यह ज्यादा टिकाऊ और भरोसेमंद होगी।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज वैश्विक अर्थव्यवस्था मंदी के दौर से गुजर रही है जिसका बुरा प्रभाव भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी पड़ा है। मौजूदा समय में कोरोना जैसी वैश्विक महामारी जिस तरह से प्रमुख विकसित राष्ट्रों को अपनी चपेट में ले रही है, उससे आने वाले समय में वैश्विक मंदी और भी बढ़ सकती है। कोरोना आधारित वैश्विक मंदी भारत के लिए कैसा होगा यह कहना काफी मुश्किल है, क्योंकि जहां इसका दुष्प्रभाव अर्थव्यवस्था पर दिख रहा है, वहीं भारतीय हितों के लिए कुछ सकारात्मक लक्षण भी दिख रहे हैं। भारत ने जिस तरह से इस वैश्विक महामारी के प्रति अपनी दृढ़ता दिखाई है, जिसके परिणाम स्वरूप अन्य विकसित एवं साधन संपन्न राष्ट्रों की तुलना में भारत कम प्रभावित हुआ, यह वैश्विक दृष्टि से भारत को मजबूत स्थिति प्रदान कर रहा है। कोरोना को लेकर वैश्विक जगत में चीन के प्रति एक नकारात्मक वातावरण निश्चित रूप से चीन की अर्थव्यवस्था के लिए बुरा होगा। जिससे वैश्विक निवेश भारत की ओर आकर्षित हो सकती है। भारत ने जिस तरह से इस वैश्विक महामारी के समय विश्व के प्रमुख देशों की मदद की है, व महामारी से निपटने का प्रयास किया है, वह निश्चित तौर पर भारत की साख को वैश्विक पटल पर मजबूत किया है। विगत कुछ वर्षों में भारत की साख मजबूत हुई है, और व्यापार में साख का क्या महत्व होता है? यह एक छोटा सा व्यापारी भी समझा सकता है। निश्चित तौर पर भारत की वर्तमान स्थिति का फायदा भारत की अर्थव्यवस्था को होगा। 2008 में विश्व ने मंदी का दौर देखा था पर भारत में इस मंदी का कोई खास प्रभाव देखने को नहीं मिला जिसका कारण मनरेगा जैसे महत्वाकांक्षी योजना को बताया गया। मनरेगा के कारण ग्रामीण भारत में रोजगार का सृजन हुआ तथा रोजगार के कारण ग्रामीण भारत में पूंजी का प्रवाह बना रहा, जिसके कारण भारतीय बाजार मंदी के दौर में प्रवेश नहीं कर पाई और भारतीय अर्थव्यवस्था में मंदी का प्रभाव देखने को नहीं मिला। वैश्विक मंदी के कारण विदेशी पूंजी निवेश जरूर कम हुआ परंतु इसके विकल्प के रूप में अगर हम अपने घरेलू संसाधनों का इस्तेमाल करें तो निश्चित तौर पर आगामी वर्षों में भी जब वैश्विक मंदी के कारण विदेशी पूंजी निवेश में असर होगा तब हम अपने घरेलू संसाधनों को बढ़ावा देकर अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत कर सकते हैं। इसलिए हमें एक ऐसी कार्ययोजना बनानी पड़ेगी जिससे हम अपने उत्पादन को बढ़ावा दें जिससे हमारे आयात निर्यात में बनी खाई को भर सके। आज भारत का ट्रेड बैलेंस नकारात्मक है, जिसे सुधारना अति आवश्यक हो गया है। भारत को आयातक देश से बदलकर निर्यातक देश की श्रेणी में लाना पड़ेगा, अर्थात भारत को अपने घरेलू उत्पादन क्षमता को बढ़ाना होगा। यह तभी संभव है जब देश के प्रत्येक नागरिक की भागीदारीता सुनिश्चित हो। यदि देश का प्रत्येक नागरिक अपने देश के विकास हेतु कृत संकल्पित होगा तो यह दुष्कर कार्य भी आसान हो जाएगा। सरकार का यह कार्य होना चाहिए कि वह अर्थव्यवस्था के इस लक्ष्य को पाने के लिए ऐसे रोडमैप लाये जिसमें अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने का कार्य सिर्फ चंद पूंजीपतियों के कंधों पर न हो कर वरन 130 करोड़ जनता के कंधे पर हो। समाज के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति की भागीदारीता सुनिश्चित हो, ताकि वह भी विकास के मार्ग पर कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़े। भारत में वर्तमान परिस्थिति में जहां अमीर गरीब की खाई और गहरी होती जा रही है, यह खाई समाप्त हो। इंडिया और भारत में अंतर ना रहे। तभी विकास सर्वांगीण होगा। 5 ट्रिलियन इकोनॉमी का सपना साकार करना हर भारतीय का सपना बने और हम भारत देश को गौरवशाली, सुखी एवं सम्पन्न राष्ट्र बनते हुए देखें।


नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।

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Vikas Upadhyay
Vikas Upadhyay
3 years ago

Bahut sahi vichar hai…..par jb tk ye hakikat na bn jaye sapna hi lgta hai….

sonu tiwari
sonu tiwari
3 years ago

bahuot adbhut or Saralta se aapne apne lekh ke madhyam se samjhaya ki har nagrik ko ise safal banane hetu unhe isse judna hoga

Varun Upadhyay
Varun Upadhyay
3 years ago

सटीक विश्लेष्ण !!

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