अर्धनारीश्वर से सृष्टि की उत्पत्ति

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Varun Upadhyay
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अंतरात्मा की अंतर्दृष्टि

सकलभुवनभूतभावनाभ्यां जननविनाशविहीनविग्रहाभ्यां ।
नरवरयुवतीवपुर्धराभ्यां सततमहं प्रणतोस्मि शंकराभ्याम् ॥

अर्थात, जो समस्त भुवनों के प्राणियों को उत्पन्न करने वाले हैं, जिनका विग्रह जन्म और मृत्यु से रहित है तथा जो श्रेष्ठ नर और सुंदर नारी (अर्धनारीश्वर) रूप में एक ही शरीर धारण करके स्थित हैं, उन कल्याणकारी भगवान शिव और शिवा को मैं प्रणाम करता हूँ।

भगवान शिव का अर्धनारीश्वर रूप परम् परात्पर जगत्पिता और दयामयी जगन्माता के आदि संबंधभाव का द्योतक है। सृष्टि के समय परम् पुरुष अपने ही अर्धांग से प्रकृति को निकाल कर उसमें समस्त सृष्टि की उत्पत्ति करते हैं।

द्विधा कृतात्मनो देहमर्धेन पुरुषोभवत ।
अर्धेन नारी तस्यां स विराजमसृजत्प्रभु ॥

ईश्वर सच्चिदानंदस्वरूप हैं। ईश्वर का ‘सत्स्वरूप’ उनका ‘मातृस्वरूप’ है और ‘चित्स्वरूप’ उनका ‘पितृस्वरूप’ है। उनका तीसरा ‘आनंदरूप’ वह स्वरूप है, जिसमें ‘मातृभाव’ और ‘पितृभाव’ दोनों का पूर्णरूपेण सामंजस्य हो जाता है, वही शिव और शक्ति का संयुक्त रूप अर्धनारीश्वररूप है। सत – चित दो रूपों के साथ – साथ तीसरे ‘आनंदरूप’ के दर्शन अर्धनारीश्वररूप में ही होते हैं, जो शिव का संभवतः सर्वोत्तम रूप कहा जा सकता है।

सत – चित और आनंद : ईश्वर के इन तीन रूपों में आनंदरूप अर्थात साम्यावस्था या अक्षुब्धभाव भगवान शिव का है। मनुष्य भी ईश्वर से उत्पन्न उसी का अंश है आखिर आत्मा भी तो परमात्मा से ही निकली है अतः उसके अंदर भी यह तीनों रूप विद्यमान हैं। इसमें से स्थूल शरीर उसका ‘सदंश’ है तथा वाह्य ‘चिदंश’ है। जब ये दोनों मिलकर परमात्मा के स्वरूप की पूर्ण उपलब्धि करते हैं, तब उसके ‘आनन्दांश’ की अभिव्यक्ति होती है। इस प्रकार मनुष्य में भी सत – चित की प्रतिष्ठा से आनन्द की उत्पत्ति होती है।

स्त्री और पुरुष दोनों ईश्वर की प्रकृति हैं। स्त्री उनका सदरूप है और पुरुष चिद्रूप, परंतु आनन्द के दर्शन तब होते हैं, जब ये दोनों मिलकर पूर्ण रूप से एक हो जाते हैं। शिव गृहस्थों के ईश्वर हैं, विवाहित दंपत्तियों के उपास्य देव हैं। शिव स्त्री और पुरुष की पूर्ण एकता की अभिव्यक्ति हैं, इसी से विवाहित स्त्रियां शिव की पूजा करती हैं।

भगवान शिव के अर्धनारीश्वर अवतार की कथा :

पुराणों के अनुसार लोकपितामह ब्रह्मा जी ने पहले मानसिक सृष्टि उत्पन्न की थी। उन्होंने सनक – सनन्दनादि अपने मानस पुत्रों का सृजन इस इच्छा से किया था कि ये मानसी सृष्टि को ही बढ़ाएं, परंतु उन्हें सफलता नहीं मिली। उनके मानसपुत्रों में प्रजा की वृद्धि की ओर प्रवृत्ति ही नहीं होती थी। अपनी मानसी सृष्टि की वृद्धि न होते देख कर ब्रह्मा जी भगवान त्र्यम्बक सदाशिव और उनकी परमा शक्ति का हृदय में चिंतन करते हुए महान तपस्या में संलग्न हो गए। उनकी इस तीव्र तपस्या से भगवान महादेव शीध्र ही प्रसन्न हो गए और अपने अनिर्वचनीय अंश से अर्धनारीश्वर मूर्ति धारण कर वे ब्रह्मा जी के पास गए।

तया परमया शक्त्या भगवन्तं त्रियम्बकं ।
सच्चिन्त्य हृदये ब्रह्मा तताप परमं तपः ॥

तिव्रेण तपसा तस्य युक्तस्य परमेष्ठिनः ।
अचिरेणैव कालेन पिता सम्प्रतुतोष ह ॥

ततः केन चिदंशेन मूर्तिमाविष्य कामपि ।
अर्धनारीश्वरो भूत्वा ययौ देवस्स्वयं हरः ॥

– शिवपुराण, वायवीय संहिता, पूर्वार्ध १५/७-९

ब्रह्मा जी ने भगवान सदाशिव को अर्धनारीश्वर रुप में देख कर विनीत भाव से उन्हें साष्टांग प्रणाम किया और उनकी स्तुति की। इसपर भगवान महादेव ने प्रसन्न होकर कहा – हे ब्रह्मन! आपने प्रजा जनों की वृद्धि के लिए तपस्या की है, आपकी तपस्या से मैं बहुत संतुष्ट हूँ और आपकी अभीष्ट वर देता हूँ। यह कहकर उन देवाधिदेव ने अपने वाम भाग से अपनी शक्ति भगवती रुद्राणी को प्रकट किया। उन्हें अपने समक्ष प्रकट देखकर ब्रह्मा जी ने उनकी स्तुति की और उनसे कहा – हे सर्वजगंमयी देवि ! मेरी मानसिक सृष्टि से उत्पन्न देवता आदि सभी प्राणी बारंबार सृष्टि करने के बाद भी बढ़ नहीं रहे हैं। मैथुनी सृष्टि हेतु नारी कुल की सृष्टि करने की शक्ति मुझमें नहीं है। अतः है देवि ! अपने एक अंश से उस चराचर जगत की वृद्धि हेतु आप मेरे पुत्र दक्ष की कन्या बन जाएं।

ब्रह्मा जी के द्वारा इस प्रकार याचना किये जाने पर देवी रुद्राणी ने अपनी भौहों के मध्य भाग से अपने ही समान एक कान्तिमती शक्ति उत्पन्न की, वही शक्ति भगवान शिव की आज्ञा से दक्ष की पुत्री हो गईं और देवी रुद्राणी पुनः महादेव जी के शरीर में प्रविष्ट हो गईं।

इसप्रकार भगवान सदाशिव के अर्धनरीश्वररूप से ही सृष्टि की उत्पत्ति हुई। उनका यह रूप यह संदेश देता है कि समस्त पुरुष भगवान सदाशिव के अंश और समस्त नारियां भगवती शिवा की अंशभूता हैं। उन्ही भगवान अर्धनारीश्वर से यह सम्पूर्ण चराचर जगत व्याप्त है।

पुल्लिंग सर्वमीशानं स्त्रीलिंगं विद्धि चाप्युमाम्।
द्वाभ्यां तनुभ्यां व्याप्तं हि चराचरमिदं जगत्॥

– महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय १४, श्लोक २३५ (गीताप्रेस)

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Prakash C Makholia
Prakash C Makholia
3 years ago

अद्भुत

वीरेंद्र नारायण
वीरेंद्र नारायण
3 years ago

अद्भुत ! इस गूढ़ ज्ञान के लिए आपका हृदय से आभार ।

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