शाब्दिक अर्थ है – ‘अश्व के ठहरने का स्थान’। ध्यान दें, ‘अश्व’ का एक अर्थ राष्ट्र भी है।
पीपल वृक्ष को अश्वत्थ कहा गया है। ऋग्वेद १.१३५.८, १.१६४.२०–२२, १०.९७.५ अथर्ववेद ६.११.१ आदि में पीपल अथवा अश्वत्थ से बने पात्र का उल्लेख मिलता है।
कठोपनिषद् २.३.१ (ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाख एषोऽश्वत्थ सनातनः) और श्रीमद्भगवद्गीता १५.१ (उर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्) आदि में ऊर्ध्वमूल (ऊपर की ओर मूल वाले) और नीचे की ओर शाखा वाले पीपल के पेड़ से संसार का संकेत किया गया है।
उर्ध्वमूल कहने का कारण यह है कि जैसे ‘मूल’ वृक्ष का आधार होता है, मूल ही प्रधान होता है ऐसे ही परमात्मा इस सम्पूर्ण जगत् के आधार हैं, प्रधान हैं और उन्हीं से इस संसार वृक्ष की उत्पत्ति और विस्तार हुआ है। इसकी शाखाएँ ब्रह्मा जी हैं जो सम्पूर्ण जीवों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
जिस प्रकार वृक्ष का ज्ञान और रक्षा उसके पत्तों से होता है उसी प्रकार संसार का ज्ञान और रक्षा ‘वेद’ रूपी पत्तों से होता है। जब व्यक्ति वेद के आधार से इस वृक्ष रूपी संसार को समझ लेता है तब उसमें सत्वगुण की प्रधानता होती है और सत्वगुण में स्थित मनुष्य ‘ऊर्ध्व लोक’ में जाते हैं (‘ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था’ – गीता १४.१५)।
प्रश्न यह है कि अश्वत्थ अर्थात् पीपल ही क्यों?
गीता १०.२६ में भी भगवान कहते हैं ‘अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां’ हमें सम्पूर्ण वृक्षों में पीपल जानों – ऐसा क्यों?
इसके दो कारण हैं। पहला, व्यवहारिक दृष्टि से — पीपल कहीं भी सरलता से लग जाता है और इसकी छाया में चर ही नहीं अचर जीव भी आश्रय पाते हैं। आयुर्वेद की दृष्टि से भी पीपल बड़े गुणों वाला है। आयुर्वेद की दृष्टि से पीपल कषाय रसयुक्त, शीतल, गुरु, पित्त, कफ तथा रक्तविकार को दूर करने वाला कहा गया है।
दूसरा कारण है, उपासना की दृष्टि से —
उपासना की दृष्टि से जीवों के छः वर्ग हैं :
१. आधिकारिक अचेतन जीव – सूर्य, चंद्र, अग्नि, पवन, ग्रह, नक्षत्र, गङ्गा, यमुना, सरयू, सरस्वती आदि
२. आधिकारिक चेतन जीव – राम, कृष्ण, मत्स्य, वराह, कूर्म, वामन आदि क्योंकि इन्हें मध्यस्थ बना कर उपासना की जाती है।
३. आधिकारिक अर्धचेतन जीव – अश्वत्थ, वट, तुलसी, विल्व, सोम आदि, उपासना की दृष्टि से यह भी मध्यस्थ हैं।
४. आश्वत्थिक अचेतन जीव – पाषाण, लोष्ठादि जड़ भौतिक पदार्थ क्योंकि छान्दोग्यउपनिषद के अनुसारआत्मसत्ता रहने पर भी ये जड़ हैं।
५. आश्वत्थिक चेतन जीव – अष्टविध देव योनि व पंचविध तिर्य्यग योनि (कुल १३) – ब्रह्मा, इन्द्र, प्रजापति, पितर, यक्ष, गंधर्व, राक्षस, पिशाच, मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, कृमि यह १३ जीव क्योंकि कर्मतारतम्य से ही इन्हें ये योनियाँप्राप्त हुई हैं। पंचविध तिर्य्यग योनि में से पशु, पक्षी, कीट, कृमि इन चारों को न तो उपासना का अधिकार है और नज्ञान का, मात्र मनुष्य ही इसका अधिकारी है।
६. आश्वत्थिक अर्धचेतन जीव – सम्पूर्ण औषधि व वनस्पति वर्ग।
उपासना का मूल धरातल ‘प्रणवोंकार’ है, इसे ‘परमप्रजापत्युपासना’ भी कहा जा सकता है। ईश्वरांश (षोडशीपुरुषांश) योगमाया को आगे कर राम, कृष्ण आदि का अवतार हुआ करता है। षोडशीपुरुष को भी ‘अश्वत्थ’ कहा गया है और यही ‘मायी ईश्वर’ भी कहे गये हैं। इसका विस्तार अनंत है। पुराणों में ‘सप्तवितस्तिकाय’ नाम से प्रसिद्ध हैं। यही ब्रह्मांड भी हैं। अश्वत्थेश्वर में ऐसे सहस्र ब्रह्मांड हैं (जा के रोम कोटि ब्रह्मण्डा)। पुराण का सृष्टिक्रम प्रधान रूप से अव्यक्त स्वयम्भू से ही आरम्भ होता है अतः यह उपासना विद्वानों द्वारा ‘पौराणिक उपासना’ भी कही गई है।
अश्वत्थ वृक्ष की भाँति ही इस पर लिखना भी बहुत विस्तार वाला हो सकता है इसलिए इसे यहीं विराम देते हैं।