डॉ भीमराव अम्बेडकर को आज कौन नहीं जनता। आज राजनैतिक स्तर पर यह नाम बहस का केंद्र बना हुआ है। पिछले तीन दशकों के दौरान लगातार उनके जीवन और विचारों का महत्व बढ़ता गया है और उनसे प्रेरणा लेने वालों की संख्या में भी वृद्धि हुई है। लेकिन इसके साथ ही यह भी सही है कि उनकी राजनीतिक एवं बौद्धिक भूमिका, अवदान और विरासत का विश्लेषण और आलोचनात्मक परीक्षण बहुत कम हुआ है और उनके दलित अनुयायी उन्हें लगभग भगवान बनाने की कोशिश में लगे हैं।
जबकि वास्तविकता है कि गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस या अन्य किसी भी नेता-विचारक की तरह अम्बेडकर भी अपने समय और समाज की उपज थे। जरूरत उनकी राजनीतिक एवं वैचारिक विरासत में से तात्कालिक तत्वों को छांट कर अलग करने और सार्वकालिक तत्वों को अपनाने की है, अंधानुकरण की नहीं। बहुत ऐसी भी बातें थी जो उनकी तात्कालिक सोच थी जो आज किसी मतलब की नहीं हैं, उन्हें छोड़ कर उनके सर्वकालिक सोच को अपनाना होगा।
उदाहरण के लिए, अम्बेडकर चाहते थे कि हिंदू और बौद्ध बाहुल्य इलाके भारत में रहें और मुस्लिम बहुल इलाके यानी कश्मीर घाटी समेत कुछ अन्य इलाके भी पाकिस्तान को दे दिए जाएं। क्या आज कोई इस विचार का समर्थन करेगा? बहुसंख्यक भारतीय तो इसे स्वीकार नहीं कर सकते।
अम्बेडकर का जन्म मध्यप्रदेश के महू में 14 अप्रैल 1891 को एक गरीब परिवार मे हुआ था। वे अपने माता – पिता भीमाबाई और रामजी मालोजी सकपाल की 14 वीं और आखिरी संतान थे। उनके पिता भारतीय सेना की मऊ छावनी में सेवा में थे और यहां काम करते हुए वे सूबेदार की पोस्ट तक पहुंचे थे। एक नीची जाति में जन्म लेने के कारण उन्हें काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। वे हिंदू महार जाति से संबंध रखते थे, जो तब अछूत कही जाती थी। अपने भाइयों और बहनों मे केवल अम्बेडकर ही स्कूल एग्जाम में कामयाब हुए थे। स्कूली पढ़ाई में काबिल होने के बावजूद अम्बेडकर और दूसरे बच्चों को स्कूल में अलग बिठाया जाता था। उनको क्लास रूम के अन्दर बैठने की इजाजत नहीं थी। साथ ही प्यास लगने पर कोई ऊंची जाति का शख्स ऊंचाई से पानी उनके हाथों पर पानी डालता था, क्योंकि उनको न तो पानी, न ही पानी के बर्तन को छूने की परमिशन थी। उनके एक ब्राह्मण टीचर महादेव अम्बेडकर को उनसे खासा लगाव था। उनके कहने पर ही अम्बेडकर ने अपने नाम से सकपाल हटाकर अम्बेडकर जोड़ लिया जो उनके गांव के नाम ‘अंबावडे’ पर था। अम्बेडकर की मृत्यु के बाद उनके परिवार मे उनकी दूसरी पत्नी सविता अम्बेडकर रह गईं थीं। वे जन्म से ब्राह्मण थीं, लेकिन उनके साथ ही वे भी धर्म बदलकर बौद्ध बन गईं थीं। शादी से पहले उनकी पत्नी का नाम शारदा कबीर था। 2002 में उनकी भी मृत्यु हो गई।
डॉ अम्बेडकर को आज ब्राह्मणों का दुश्मन दिखाने की कोशिश की जाती है जबकि वह तो उस समय के समाज में व्याप्त बुराइयों को खुद झेलते आये थे, समाज में उनकी जाति को अछूत समझा जाता था। अपने जीवन में इस अपमान के दंश को बहुत समय तक बहुत तीव्रता के साथ झेला था। इसलिए 1936 में ही उन्होंने घोषणा कर दी थी कि उनका जन्म भले ही हिंदू के रूप में हुआ हो लेकिन उनकी मृत्यु हिंदू के रूप में नहीं होगी। निधन से कुछ ही समय पहले उन्होंने अपने हजारों अनुयायियों के साथ नागपुर में बौद्ध धर्म स्वीकार किया।
जिन संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अम्बेडकर की दुहाई देकर आरक्षण की मांग की जाती है, वे खुद आरक्षण को नापसंद करते थे। उन्होंने इसे बैसाखी कहकर खारिज कर दिया था। मगर बाद में उनका नाम ले – लेकर ही इस व्यवस्था को चलाए रखने के सबसे ज्यादा तर्क दिए गए। नतीजतन ये आज तक जारी है।
जब संविधान लिखा जा रहा था तब महात्मा गांधी के अलावा जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, डॉ. भीमराव अम्बेडकर सहित कुछ और नेता वैचारिक रूप से बहुत ताकतवर भूमिका में थे। राजनीतिक रूप से डॉ. अम्बेडकर, नेहरू व पटेल से अलग सोच रखते थे लेकिन संवैधानिक मसलों पर आमतौर पर तीनों का दृष्टिकोण मिलता था। ऐसे में बात उठी आरक्षण की।
तब डॉ. अम्बेडकर ने अनुसूचित जाति और जनजातियों को आरक्षण दिए जाने पर सबसे ज्यादा एतराज जताया। उन्होंने स्पष्ट कहा कि आरक्षण बैसाखी है। बाद में सबके मनाने पर बड़ी मुश्किल से 10 वर्ष तक आरक्षण के लिए माने। किंतु बाद में यह बढ़ता गया और आज तक जारी है।
एक और घटना है 25 दिसंबर 1927 की, जब अम्बेडकर ने मनुस्मृति जलाई जिसको ऐसे प्रचारित किया गया और आज भी वह जारी है कि जैसे अम्बेडकर ब्राह्मण विरोधी थे जबकि मनुस्मृति जलाने की मुख्य वजह थी कि तब तक मनुस्मृति के साथ भरपूर छेड़-छाड़ हो चुकी थी और तब के राजनैतिक पंडित इसे ढाल के रूप में प्रयोग करते थे। पुस्तक जलाने का अर्थ उन लोगों का प्रतीकात्मक विरोध था। लेकिन आज तो उस तरह की सामाजिक बुराई उतने बड़े पैमाने पर है ही नहीं फिर क्या मतलब उन बातों का?
सामाजिक बुराइयां समय – समय पर समाज में आती रहीं हैं लेकिन कभी राजा राममोहन राय और कभी कोई और इसे दूर करने के लिए आगे भी आते रहे हैं। जाहिर सी बात है कि उन लोगों ने उस समय के ब्राह्मणों को भी बहुत कुछ कहा भी होगा लेकिन उसका कभी राजनैतिक प्रयोग तो नहीं हुआ, राजा राममोहन राय ब्राह्मण विरोधी तो नहीं कहे गए।
आज भी धर्म के बड़े जानकार इस बात को समझते और मानते हैं। वह जानते हैं कि वेदों कि ऋचाएं छंदों के विज्ञान पर आधारित हैं, उनमें केवल अर्थ में हेरफेर संभव है लेकिन मनुस्मृति के साथ ऐसा नहीं था तो जिसको भी जितनी समझ आई उतनी छेड़-छाड़ और परिवर्तन किया। आज मूल मनुस्मृति का मिलना असंभव सा है। लेकिन मनुस्मृति आज भी छपती है और जिसे भी धर्म कि समझ है और जिसने भी ग्रंथों को पढ़ा है, वह समझता है कि कहाँ क्या परिवर्तित है क्योंकि मूल तो वेद ही हैं, वेदों में तो कहीं दलितों के लिए कोई छुआ छूत का जिक्र ही नहीं है। वेद तो ब्राह्मण, क्षत्रिय, शुद्र और वैश्य को समाज-रूपी शरीर के अंग मानते हैं, सभी का वेदों को पढने और समझने का अधिकार है।
आज कुछ मूर्ख मनुस्मृति जलाने का दिवस भी मनाते हैं अब उन्हें कौन इसकी वास्तविकता समझाए और सबसे बड़ी बात कि जब इसके सहारे ही उनकी रोटी – दाल चलती हो तो वो क्यों समझेंगे?
सिर्फ़ आप ने अपने द्वेष पूर्ण विचार दिये हैं जिनका सच्चाई से कोई लेना देना नहीं है। आप को सिर्फ़ आरक्षण को गलत बताना है इसलिए लिखा है
सटीक संकेत दिया है आप ने जब लोग उस तक पहुँच पाये