आलोचना का मतलब विरोध नहीं होता है।
बुरे की बुराई होनी चाहिए। किन्तु अच्छाई को इस तरह न पेश किया जाय कि वह बुराई की तरह लगने लगे। इस समय जो अपने को सेक्युलर कहता है (पर है नहीं), उसे समझना चाहिए कि जनता को जातियों में बाट कर पत्रकारिता की तकसीद नहीं होती। गलत एजेंडा और दूसरे का झंडा उठाना आज फितरत सी बन गई है।
मकड़ी जाले के विचार से व्यक्ति निकल नहीं पाता है। यह अलग बात है कि जाले और विचार बदल जाते हैं….। कुछ मीडिया हाउस एन्टी नैशलिस्ट ही बन गये हैं। चिदम्बरम, अधीररंजन, मणिशंकर अय्यर, मनीष तिवारी, अखिलेश यादव जैसे नेता और कांग्रेस, सपा, राजद जैसी राजनीति पार्टियां वोट बैंक के लिए इमरान खान और शाह महमूद कुरैशी की भाषा बोलने लगें हैं।
ऐसा लगता हैं कि वह भारत नहीं पाकिस्तान की मजलिस में बोल रहे हैं।
जातिवाद की बात करके यदि अयोग्य सत्ता में जायेगा तो उसकी पहली प्राथमिकता सत्ता बचाने की होगी दूसरी वोट बैंक बचाने और बनाने की जिससे पीढियां सुरक्षित हो जाय।
एक छोटी सी कहानी से बात थोड़ा और स्पष्ट हो सकती है। अफ्रीकी देश इथोपिया में हैजे के कारण गरीब जनसंख्या प्रत्येक वर्ष काफी ज्यादा संख्या में मारी जाती है। ब्रिटिश ईसाई मिशनरियों ने वहाँ के राजा से कहा कि यदि आप साफ सफाई का और स्वास्थ्य सेवाओं पर उचित निवेश करें तो हम आप के काफी लोगों को बचा सकते हैं, तब राजा ने कहा प्रत्येक वर्ष जब इतने ज्यादा लोग बचेगे तो उनके रहने खाने का प्रबंध करना होगा, पीछे वो रोजगार की मांग करेंगे जो मैं कर नहीं पाऊँगा तो मेरी सत्ता ही पलट देगें। इसलिए सबसे अच्छा है उन्हें मरने दो, मेरी सत्ता तो बची रहेगी।
आज का फर्क इतना ही है कि यह कहानी जो राजतंत्र की थी इसे लोकतंत्र पर लागू करिये, और यही भारत की कहानी बन जाएगी। भारत के सत्तर सालों की सरकार में ज्यादातर नेता सत्तासीन गिध्द बन कर लोगों के हुक़ूक़ को छीना है, आज जब मोदी जी इस व्यवस्था को बदलने के लिए ऑपरेशन कर रहे हैं तो वही गिद्ध कह रहे हैं कि चाकू चल रही है। गरीब परिवार से आ कर ज्यादातर नेता अरबपति बन गये। इसका आय स्रोत क्या है, पूछने पर तानाशाही, हिटलरशाही और लोकतंत्र खतरे में पहुँच गया ऐसा चिल्लाते हैं जिसने लोकतंत्र की अस्मत लूटी है वही दुहाई दे रहा है।
एक बढ़िया काम हुआ अब जनता जागृत हो रही है, उसे भी पता है सच क्या है। चुनाव दर चुनाव सत्तालोलुप नेताओं और उनकी पार्टी को जमीन दिखा रही है। यह नेता और मीडिया के दलाल कुछ सेक्युलर वाले तथाकथित बुद्धिजीवी वही पुरानी व्यवस्था बनाने की भरसक कोशिश में लगे हैं।
नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।
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