किसी भी आंदोलन के पीछे की शक्ति होती है ‘जनविश्वास’, जैसे ही हम ‘जनविश्वास’ खो देते हैं वैसे ही आंदोलन खत्म हो जाता है।
जनतंत्र में विरोध एक प्रक्रिया है। सत्ता को इससे दो चार होना ही पड़ता है। भारत में जनांदोलन के प्रणेता गांधी जी रहे हैं उन्होंने अफ्रीका में किये अहिंसात्मक प्रयोग को भारत में लागू किया। अनुशासन, नैतिक बल और अहिंसा उनके आंदोलन की खूबसूरती थी।
वह जानते थे कि शासन के विरुद्ध हिंसात्मक आंदोलन को ब्रिटिश बहुत सरलता से और क्रूर तरीके से दबा देंगे। साथ ही अहिंसात्मक आंदोलन को दबाने के लिए शासन द्वारा किये गए बल प्रयोग से शासन में जनता के विश्वास को बुरी तरह प्रभावित करेगा।
भारत में गांधी जी द्वारा पहला बड़ा सफल आंदोलन बिहार के चम्पारण में “तिनकाठिया” को खत्म करने के लिए किया गया। यह किसान आंदोलन था। गांधी जी के आंदोलन के पीछे सबसे महत्वपूर्ण बात उनके अनुशासित कार्यकर्ता थे इसी के बल पर गांधी जी का आंदोलन अपने आप ही सफल रहता था। ऐसा रौलट सत्याग्रह, असहयोग, सविनय अवज्ञा और भारत छोड़ो आंदोलन आदि में दिखाई भी देता है। असहयोग आंदोलन के समय “चौरी-चौरा” में हिंसा होने से गांधी जी ने अपना आंदोलन तुरंत वापस ले लिया था।
इस समय हो रहे तथाकथित गांधीवादी किसान आंदोलन में गांधीवादी विचार का पालन नहीं किया गया। हिंसा की बात छोड़िये, राष्ट्र ध्वज का अपमान देश की राजधानी में राष्ट्रिय पर्व के दिन किया गया जिसकी जिम्मेदारी भी आंदोलनकर्ता नहीं ले रहे हैं।
विचारणीय विषय है, यदि आंदोलन दिशाहीन नहीं होता तो वह कैसे उपद्रवी और आतंकवादियों के हाथ चला जाता? लोकतंत्र में विरोध का मतलब राष्ट्र की अस्मिता को तार – तार नहीं किया जाता। यदि आंदोलन की सफलता का श्रेय उसके नेता को है तो उसमें हुई गड़बड़ी की जिम्मेवारी भी उसी की बनती है, इससे पल्ला नहीं झाड़ा जा सकता।
भारत में पिछले कुछ आंदोलनों से यह बात सामने आती है कि इसमें आंदोलन से ज्यादा राजनीतिक विचारधारा का विरोध होता है, जिसके पीछे राजनीतिक एजेंडा और राजनीतिक पार्टियां कार्य करती हैं।
हमनें गांधी जी के आंदोलनों से क्या सीखा?
यदि हिंसा करनी है तो गांधीवाद को क्यों बदनाम किया जा रहा है? सत्ता की लालसा बार – बार केजरीवाल बनने से पूरी नहीं होती।
देश में आमूलचूल परिवर्तन आ चुका है, भारत अब मनमोहन सिंह के समय वाला भारत नहीं रह गया है। अब वह विश्व में एक मजबूत देश बन चुका है और उसकी धमक पूरा विश्व सुन रहा है। अब राजनीतिक एजेंडा चला कर देश को बार – बार न विभाजित कर सकते हैं न ही सत्ता प्राप्त किया जा सकता है।
आंदोलन की सफलता ईमानदारी पर निर्भर करती है।
किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत जो राकेश टिकैत के पिता हैं, वह नेता कैसे बने यह जानिए। वह अपने गांव के आस पास के लोगों को संगम नहलाने और मथुरा, काशी, आयोध्या फ्री घुमाने का वादा करके पार्टी की टोपी दे कर रेलवे की जबरी मुफ्त सेवा देने के बदले 50-50₹ लेते थे। इस तरह गांव के लोगों को लेकर पहुँच जाते थे तीर्थ करवाने और लगे हाथ वहीं रैली कर लेते थे।
रैली में टोपी – लाठी देखकर वहाँ देखने के लिए भीड़ इकट्ठा हो जाती, लोगों के पूछने पर पता चलता था कि कोई किसान रैली हो रही है। दूसरी चीज भारत में देखने वाला शौक भी बहुत अधिक है। पुनः रेलवे से टोपी और लाठी के सहारे घर चले जाते थे।
खैर, अब तो बेटे राकेश टिकैत कई पार्टियों से चुनावी और राजनीतिक साठ – गांठ कर भी चुके हैं। अब आपको क्या लगता है कि टिकैत, बी एन सिंह आदि गांधीवादी किसान नेता हैं?
नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।
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