अंग्रेज भारत का उद्धारक कैसे बन गया?

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Dhananjay Gangey
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वैज्ञानिक अविष्कार सिर्फ इन्द्रियों का विकास है आत्मा का नहीं जबकि सुख, प्रसन्नता शरीर का विषय नहीं है यह आत्मा का विषय है। मानवता का कल्याण मनुष्यता में है। अंग्रेजों ने अपनी उपनिवेशवादी आकांक्षाओं में दो विश्व युद्ध में करोड़ो लोगों को मार दिया।

अंग्रेजों द्वारा दुनिया के आधे हिस्से को गुलाम बनाने के बाद भी आज उनकी कल्याणकारी छवि कैसे बनी है? उसका कारण है अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था और अंग्रेजी राजनीति से प्रेरित लोग। लोगों को शायद यह पता ही नहीं है कि इन्ही अंग्रेजों के प्रजाति पोप का एक अलग देश वैटिकन सिटी है। वह किस लिए है? विश्वभर में धर्मान्तरण द्वारा लोगों को ईसाई क्यों बनाया जाता है जिसके लिए फंडिंग अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस आदि देशों से होती है।

भारत के जिन क्षेत्रों में आज भी आकाशवाणी नहीं पहुँच पायी वहाँ ईसाई मिशनरियां पहुँच कर धर्मान्तरण कराने लगीं। सेकुलर राजनीति, टेरेसा को भारतरत्न देने में इतनी व्यस्त थी कि उसे नार्थईस्ट का ईसाईकरण होता नहीं दिखा। न ही झारखण्ड, छत्तीसगढ़ के आदिवासियों का कोस्टल भारत का ईसाईकरण दिखा। लेकिन अंग्रेज धर्मनिरपेक्ष और वैज्ञानिक मनोवृत्ति का होता है यही हमें स्कूल की कक्षाओं में पढ़ाया जाता रहा जो आज भी जारी है।

अंग्रेजों के विषय और उनकी वैज्ञानिकता का भ्रम बहुत जल्द टूट जायेगा जब भारत और चीन जैसे देश विश्व को नया नेतृत्व देने लगेंगे। पाश्चात्य व्यवस्था तब तक ही मजबूत है जबतक इससे विश्व की अर्थव्यवस्था को कुछ मिल रहा है। बिरसा मुंडा द्वारा ईसाईकरण के खिलाफ किये गए ई० 1899 के बिद्रोह को सेकुलरों ने किताबों में दबा दिया है।

जिस यूटोपिया को समाज में कुछ विकृत सोच वाले रोप रहे हैं, उससे जनकल्याण न होकर वैमनस्यता में ही बढ़ोत्तरी होगी। संयुक्त परिवार से  न्यूक्लियर परिवार की ओर बढ़ते भारत में शिक्षा के स्तर में वृद्धि के साथ महिला अपराध में बहुत तेजी से वृद्धि हुई है। अनपढ़ और पढ़े लिखे के बीच एक अंतर यह भी है कि पढ़ लिखकर वह नारी को टंच माल के रूप में देखने लगता है। यह शिक्षा और संस्कार अंग्रेजी पैटर्न से विरासत में मिली है लेकिन शोर किया जाता रहेगा कि इसके लिए ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद जिम्मेवार है।

आज धर्म की विडम्बना यह है कि वह राजनीति के नियंत्रण में बुरी तरह फँस गयी है। धर्म और धार्मिक उपासना की व्याख्या वह कर रहे हैं जिन्हें न धर्म का ज्ञान ही है और न धर्म में श्रद्धा। वाचालता, उच्छृंखलता को आज लोग भी समाज में विकास की जरूरत बता रहे हैं।

हमारे समाज में गांव, गरीब, किसान, माता-पिता की परेशानी से ज्यादा लोगों के स्वयं हित केंद्र में है। सारी विचारधारा देहात्मवाद की ओर घूम गयी है, सुख का मूल शरीर तक सीमित होता जा रहा है।


नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।

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