सवर्णों का अंक गणित

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भारत में कुल जनसंख्या का लगभग २२-२५% सवर्ण समाज निवास करता है।

जी हां, वही जनरल क्लास या फॉरवर्ड क्लास वाले लोग जिन्होंने दूसरों पर इतने जुल्म ढाए कि उन्हें आरक्षित, पिछड़े या दलित की सूची में डालना पड़ा और वे लोग इतने पिछड़े कि स्वतंत्रता के बाद से अब तक ७४-७५ वर्षों में उबर नहीं पाए।

पहले जातियों का गणित समझिये :

भारत में करीब २२-२५% सामान्य जाति (UC), करीब ४५-४८% अन्य पिछड़ी जाति (OBC), करीब २०% पिछड़ी जाति/ अनुसूचित जाति (SC) और करीब ९-१०% पिछड़ी जनजाति/अनुसूचित जनजाति (ST) निवास करती है। 

इन आंकड़ों से आप यह तो समझ गए होंगे कि राजनीति में इन जातियों का गणित कितना महत्वपूर्ण है। पहली बार १९०१ की जनगणना अंग्रेजों ने जातिगत आधार पर करवा कर भारत को २३७८ जातियों में बांटा था। तब उनका उद्देश्य यह था कि ऊंच-नीच, सवर्ण-दलित का भ्रम फैला कर भारत की जनता को आपस में ही लड़वा दिया जाए। यदि वे आपस में ही उलझे रहेंगे तब स्वतंत्रता की बात कहां से उठेगी?

किन्तु भारत की सनातन काल से चली आ रही व्यवस्थित वर्ण व्यवस्था ने अंग्रेजों के  इस मनसूबे पर पानी फेर दिया।

स्वतंत्रता के पश्चात राजनेताओं को अपनी सत्तालोलुपता और लोकतंत्रीय ढांचे के अनुकूल जातिगत राजनीति बहुत पसंद आयी और आरक्षण का कभी न समाप्त होने वाला खेल शुरू हुआ जो अनवरत जारी है।

साल-दर-साल नई जातियां आरक्षण की जद में आ कर वोट बैंक की राजनीति को मजबूती प्रदान कर रही हैं।

पार्टी कोई भी हो, विचारधारा कोई भी हो, यह सत्ता में बने रहने का इतना मजबूत आधार है कि एक बार गोटियां सेट हो जाये तो राजनीति की कई पारियां सरलता से खेली जा सकती हैं।

आज से पांच-सात वर्ष पहले तक यह खेल उसी प्रकार से चलता आ रहा था जिस प्रकार से इसे शुरू किया गया था। जातियां वोट बैंक की राजनीति का मोहरा बनी किन्तु इसमें एक समस्या थी जो शुरू से ही बनी रही।

समस्या यह थी कि जाति के आधार पर बांटने के सभी प्रयासों के बाद भी यह जो सवर्ण समाज था, जिसे सामान्य जाति या फॉरवर्ड क्लास कहा जाता है, वही गेम प्लानर बन जाता था। जनसंख्या में २५% लेकिन सत्ता की कुर्सी तक पहुंचाने का सुनिश्चित माध्यम।

जब इस पर विमर्श हुआ तब जो बात सामने आई वह वही थी जो सुव्यवस्थित वर्ण व्यवस्था के माध्यम से समाज को संचालित करने के लिए सनातन काल से चली आ रही थी।

समाज को नेतृत्व देने का कार्य सनातन काल से इन्ही तथाकथित सवर्णों या ऊंची जाति वालों के हाथ में था। जो यह आज भी अलग-अलग पार्टियों में रहते हुए करते आ रहे हैं।

वही राजनीतिक पार्टी या दल सत्ता में होती जिसमें सवर्णों की पैठ अधिक होती। अतः सभी राजनीतिक पार्टियों में इनकी संख्या शीर्ष नेता के न चाहते हुए भी लगभग बराबर की ही रही।

सनातन वर्ण व्यवस्था में इन्हें ‘द्विज’ भी कहा गया है क्योंकि शिक्षा के माध्यम से दुबारा जन्म होना माना गया है। आज आधुनिक विज्ञान के युग में यह बात भले ही दकियानूसी प्रतीत हो, भले ही आप इसे बंटे हुए समाज के चश्में से देखना शुरू कर दें किन्तु यह सत्य ही है कि या तो इन सवर्णों का मस्तिष्क ही उरु-तेज सम्पन्न था, जिसमें नेतृत्व की क्षमता, समाज को जोड़ने की ताकत थी, जिसे एक प्रकृति प्रदत्त गुण कहा जा सकता है या इसे आप एक अलग तरह से भी ले सकते हैं कि जो ज्ञान इन्हें अपने पूर्वजों द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी दिया जाता रहा, उसी ने इन्हें ऐसी क्षमता प्रदान की।

एक सामान्य ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य भी सम्भवतः इसी क्षमता के माध्यम से सरलता से समाज को एकीकृत कर समूह बना लेने में सक्षम हुए। यही नहीं, शूद्रों में भी ऐसे कुल हैं जिन्हें यह क्षमता अपने पढ़े-लिखे पूर्वजों के माध्यम से मिली और उन्होंने भी समाज का नेतृत्व किया लेकिन इनकी संख्या जनसंख्या अधिक होते हुए भी अपेक्षाकृत बहुत कम है।

अब इस समस्या से कैसे बाहर निकला जाए?

रास्ता यह निकला कि जिस प्रकार समाज को जातियों में बांटा गया उसी प्रकार इस सवर्ण या सामान्य जाति को भी बांट कर तोड़ दिया जाए जिससे ये नेतृत्व करने की स्थिति में ही न रहें। इन्हें आर्थिक रूप से, शैक्षणिक रूप से इतना कमजोर कर दिया जाए कि ये खड़े ही न ही सकें।

यह काम कैसे करेगा?

जिस प्रकार किसी रेखा को छोटा करने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि उसे काटा या मिटाया जाय, बल्कि सुनिश्चित रास्ता यह है कि उसके बगल में उससे बड़ी, लंबी रेखा खींच देने से उसे छोटा किया जा सकता है। उसी प्रकार यदि सवर्णों को उनके हाल पर छोड़ दें और दूसरों को इतना ऊपर उठायें कि उनकी कोई गिनती ही न रह जाये तो यह योजना काम कर सकती है। वही किया जा रहा है। 

साथ ही साथ यदि इस सवर्ण समाज को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के आधार पर आपस में ही लड़ा दिया जाए, तो सोने पर सुहागा होगा। इसके बाद भी जो बचेंगे उनको उन्ही के कुल, गोत्र के आधार पर लड़ा कर समाप्त कर देंगे। भारत में बंटने-बांटने के माध्यमों की कहाँ कोई कमी है। ८०० वर्षों तक किसी ने पराक्रम या शौर्य के दम पर हमें गुलाम थोड़े ही बनाये रखा, उन्होंने भी हमें बांटो और राज करो की ही नीति अपनाई थी। 

इस लेख के माध्यम से सवर्ण जातियों के यह अंकगणित समझाने का अर्थ यह है कि सामान्य/ सवर्ण/ फॉरवर्ड/ अपर क्लास के लोग इस खेल को समझें और आपस में न बंटे। आप ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि के रूप में तभी तक सशक्त हैं जब तक एक हो कर सवर्ण के रूप में हैं, अन्यथा विश्वास रखिये कि आपकी गिनती भी एक अदद वोट से अधिक की न रह जायेगी।

अस्वीकरण: प्रस्तुत लेख, लेखक/लेखिका के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो। उपयोग की गई चित्र/चित्रों की जिम्मेदारी भी लेखक/लेखिका स्वयं वहन करते/करती हैं।
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