भारत में लोकतंत्र का आगमन अंग्रेजों की शरणागति की वजह से हुआ है। लोकतंत्र का आधार जनता का वोट है इसलिए इसे वोटतंत्र भी कहा जाता है।
अंग्रेज जाते-जाते यहाँ के नेताओं को सीख देकर गये थे कि धर्म विमुख राजनीति सिर्फ हिंदुओं के विखराव पर निर्भर करेगी। जितना हो सके इन्हें जातियों में बांटो। वही पूर्व स्थापित सामंजस्य बना हुआ था किंतु २०१४ में हुए राजनीतिक परिवर्तन ने हिन्दू धर्म को केंद्र में ला दिया। समस्या तब बढ़ती दिखी जब एक परिवार के इर्दगिर्द घूम रही राजनीति परिवार से दामन छुड़ाती प्रतीत हुई।
अयोध्या के मंदिर के बाद काशी और मथुरा के मंदिर हिंदुओं की आकांक्षा, श्रद्धा और भक्ति का मनोरम पूरा होता दिखाई पड़ा। परम्परागत राजनीति और उनके पूर्व स्थापित सामंजस्य यथा ईसाई मिशनरी, कट्टरपंथी मुस्लिम, विदेशी एनजीओ, हिंदुओं का धर्मांतरण आदि रुक सा गया। बहुत से लोग घर वापसी करने लगे।
परिवारवादी और जातिवादी नेताओं ने वर्ग वैमनस्यता को हथियार के रूप में प्रयोग करना शुरू किया। एक ओर जातीय जनगणना की मांग और दूसरी ओर रामचरितमानस की व्याख्या जातीय नजरिये से करना शुरू किया।
महाकाव्य में जातीय दृष्टिकोण से कुछ दोहे-चौपाइयों को चिह्नित किया। देश काल की जगह समकालीन व्याख्या का आरोपण करके यह दिखाने का प्रयास किया गया कि ‘शूद्र और नारी को सनातन हिंदु धर्म में हेय माना जाता है’।
यदि संविधान को ही कसौटी पर कसा जाय तो देखने को मिलेगा वर्ण के चार आधार का विभाजन पूर्ववत है। इसमें भी निम्नतर क्या है, वहाँ कोई कोई शूद्र पूज्य हो सकता है लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में यदि शूद्र या आदिवासी राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या मंत्री भी हो तो वह अपने बच्चें के लिए आरक्षण को उचित ही ठहरायेगा।
भारत विश्व की प्रयोगशाला रहा है, उन्नत मस्तिष्क को जातीय और आरक्षण के विष से पाट दिया गया। हिन्दू जनमानस यह प्रश्न भूल गया कि जो सनातन व्यवस्था हजारों साल से चली आ रही है, वह शोषणकारी कैसे हो गई और विदेशी आक्रांता उद्धारक कैसे बन गये?
गैर ब्राह्मण संतो की भी एक परंपरा रही है, जिसकी कड़ी कबीर से शुरू होकर, मीरा, रैदास, एकनाथ, और रहीम तक जाती है। भारतीयों के मन में शिक्षा, साहित्य, इतिहास और सिनेमा के माध्यम से सिलेक्टिव चीजों को डाला गया। हमें वास्तविक अतीत भले पता न हो फिर भी घृणा है। हम मुगल और अंग्रेजों में ही निमग्न हैं। वाह अकबर… वाह डलहौजी…!
देश की संस्कृति को खिचड़ी बनाने का सरकारी प्रयास शुरू से जारी रहा है। लोकतंत्र की खूबी देखिये, नेता से लेकर ब्यूरोक्रेसी और पुलिस प्रशासन आसन्न भ्रष्ट्राचार में लिप्त, क्या मजाल कोई चूँ करे।
न्यायपालिका भी सरकारी भ्रष्ट्राचार की राजदार है। मजेदार बात है कि लूटतंत्र में कोई जातीय वैमनस्य नहीं है। राजनीतिक स्तर पर वैमनस्य का कारण है सत्ता की लूट जो अब तक इसी माध्यम से होती रही है।
हिन्दू धर्म पर टिप्पणी करने के लिए अन्य मजहबी स्वतंत्र हो जाता है किन्तु जब उसकी बारी आती है तब सिर तन से जुदा होने लगता है। बौद्ध नवबौद्ध बन कर भीम-मीम करता दिख रहा है, उसकी बड़ी वजह है भारत के इतिहास में ही बौद्ध और हिन्दू में वर्ग संघर्ष।
आज भारत में राजनीतिक असंतुष्ट बौद्ध बन जाता है, जिससे वह सनातन व्यवस्था को गाली दे सके। सबसे बढ़कर भारत में जो बौद्ध धर्म पैर पसारने में विफल रहा वह भारत से निर्यात होकर सुदूर देशों में विस्तीर्ण हो गया। किंतु भारत को जीतने की आकांक्षा सदा मन मे लिए रहा है। जब भी मौका मिला जी भर के उद्यम किया, निरन्तर निराशा हाथ लगी।
एक बार सीमा पर मुस्लिमों के आ जाने से बौद्धों की आकांक्षाएँ हिलकोरे मारने लगीं। वे मुस्लिमों के राजदार बन गये। यही प्रयास अंग्रेजों के साथ किया, उन्हें लगा कि वह बुद्ध की धरती पर धम्य का प्रतिपादन कर लेंगे। आज वही कार्य नव बौद्ध कर रहे हैं।
भारत में एक समस्या बहुत तेजी से फैल रही है, जिस पर ध्यान नहीं जा रहा है। भारत के गांव-गांव के मस्जिद और मदरसों में बंगाल से मौलवी पहुँच रहे हैं। यह बंगाली न होकर बंगला जुबान वाले रोहिंग्या मुस्लिम हैं जो गांवों में कट्टरता और वैमनस्यता बढ़ा रहे हैं। इस माध्यम से ये शरणार्थी अपना कागज भी भारत का बनवा लेगा। कल को इसी में से चुन कर संसद और विधानसभा में पहुँच भी जाएंगे।
हिन्दू जात-पात, अगड़ा-पिछड़ा में उलझा हुआ है। चीन के उइगर मुस्लिम भी भारत में शरण चाहते हैं। शरणार्थी शिविर में भी रहेगा फिर भी आबादी बढ़ती रहेगी।
हिंदुओं में फलापन्थी, फलावादी तुलसीबाबा पर विवाद कर रहे हैं। अतीत पर विवाद नहीं बल्कि उससे सबक लिया जाता है। जब तुम ही नहीं रह पाओगे तब विवाद कैसे करोगे। मुस्लिम को विश्व मे सब से समस्या है। यह अलग बात है ५७ मुस्लिमों के देश और शरण भारत मे चाहिए।