भारत का संविधान कहता है कि धर्म और जाति के आधार पर विभेद नहीं किया जा सकता है किन्तु राजनीतिक पार्टियों का आलम यह है कि 1932 की जातीय जनगणना से लेकर आज तक के चुनाव में हर सीट पर जातीय समीकरण बिठा रहे हैं।
जाति, बिरादरी के नेताओं की चुनाव के समय बड़ी पूछ हो रही है। ओमप्रकाश राजभर, जाट बिरादरी के नेता जयंत हो या निषाद पार्टी के मुकेश साहनी हों लेकिन लोकतांत्रिक प्रणाली इसे जातीय वैमनस्यता फैलाना नहीं कहेगी बल्कि इसे सोशल इंजीनियरिंग का नाम देगी।
परशुराम जयंती, राणाप्रताप जयंती, अग्रसेन जयंती, पटेल जी जयंती, बिरसा मुंडा जयंती आदि का शोर चल रहा है। पार्टियां मराठा, जाट, गुर्जर, कुछ राज्यों में कुर्मी आदि सब को आरक्षण का लॉलीपॉप दे रही हैं।लोकतंत्र में लाख मर्ज की एक दवाई है ‘आरक्षण’।
चुनाव पूर्व सबसे वादा और चुनाव के बाद संविधान की दुहाई। आखिर आरक्षण की कौन सी जरूरत स्वतंत्रता के 75 साल बाद बची है? आगे वाला पीछे कर दिया गया, अब पीछे वाला नेता बन कर ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि को आरक्षण दिए जाने की वकालत कर रहा है।
चुनाव के समय नेताओं को जातियां याद आती हैं, यदि रोजगार का प्रबंध बेरोजगारी की तुलना में हो तो आरक्षण की नौबत ही न आये।
समस्या कोई नहीं उठाना चाहता है बल्कि जातियों की तकलीफ भुनाना चाहते हैं। कौन सी जाति का नेता नहीं है, यह उन बड़ी जातियों के लिए होता है जिससे चुनाव प्रभावित होते हैं।
5013 ओबीसी की जातियां, लगभग 1500 अनुसूचित जातियां, 800 आसपास अनुसूचित जनजातियां – इन्हें ही राजनीतिक अवर्ण कहा जाता है। अभी सवर्णों की जातियां बाकी ही हैं।
कितनी जातियों के कितने नेता! यह विखंडन अंग्रेजों द्वारा शुरू किया था जिसे आजादी के बाद राजनीतिक पार्टियों ने लपक लिया है।
विकास जाति का हो या देश का? गौरतलब है कि देश के विकास पर ध्यानाकर्षण करने पर नेता बरबस ध्यान खींचता है। कैसे एक साइकिल चोर, क्लर्क, मास्टर, वकील राजनीति में आकर, नेता बनकर आज अकूत सम्पत्ति का मालिक बन गया है। परंतु नेता ने क्या किया जाति का जाल जनता पर डाल दिया। इसका ही उन्हें लाभ मिला। उसके कुकर्मो को खोले जाने पर उसके सजातीय लोग इसे राजनीति से प्रेरित मानते हैं। उनका कहना होता है कि किस नेता ने देश नहीं लूटा है? नाहक मेरी जाति वाले पर कीचड़ उछाला जा रहा है, परेशान किया जा रहा है।