साम्प्रदायिक गांधी

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Dhananjay Gangey
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गांधी जी ऐसे नेता थे जो हिन्दू राजनीति के मुखिया होने के साथ – साथ मुस्लिमों के भी सिरमौर बनना चाहते थे। वैसे तो गांधी का भारतीय राजनीति में प्रवेश 1901 इस्वी में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन से हुआ था जहां उन्हें दक्षिण अफ्रीका के प्रवासी मजदूर ‘गिरमिटिया’ की दशा से भारतीय आवाम और अंग्रेजी शासन को अवगत करवाना था।

 

गांधी जी को गिरमिटिया के अधिवेशन में जो पर्चा पढ़ना था जिसे उन्होंने रातभर तैयार किया लेकिन जब पढ़ने की बारी आई तो उनके हाथ – पैर काँपने लगे, अंततः उनकी जगह उस पर्चे को दिनशा वाचा (Dinshaw Edulji Wacha) ने पढ़ा।

गांधी के राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले थे, गांधी जी जब पुनः भारत में 9 जनवरी 1915 इस्वी को बम्बई लौटे तो बम्बई बंदरगाह के समारोह में नेहरू और जिन्ना दोनों उपस्थित थे।

गांधी जी को गोखले ने राजनीति में प्रवेश करने से पहले भारत भ्रमण करने के लिए कहा जैसा कि गांधी जी ने किया भी। पहली बार वह 1915 इस्वी में कांग्रेस के सम्मेलन में शामिल हुए। गांधी जी को प्रसिद्धि चंपारण आंदोलन 1917 इस्वी के बाद मिली। इसी आंदोलन की सफलता के बाद गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर ने उन्हें महात्मा की उपाधि दी।

सम्प्रदायिक हवा :

साम्प्रदायिक राजनीति की शुरुआत भारत में गांधी जी द्वारा शुरू की गयी थी। उन्होंने मोपला विद्रोह का समर्थन किया जहां हिन्दू जमीदारों और हिन्दू नागरिकों को मारा जा रहा था। सबसे बढ़कर खिलाफत आंदोलन जिसका भारतीय राजनीति से कोई मतलब नहीं था, गांधी जी ने मुसलमानों का भी नेता बनने के लिए धार्मिक राजनीति के समर्थन के साथ – साथ उसमें सक्रिय भूमिका भी निभाई। आर्यसमाजी नेता स्वामी श्रद्धानंद जी को हिन्दू – मुस्लिम का अग्रदूत नियुक्त किया जिनकी हत्या 1926 इस्वी में अब्दुल रशीद नाम के भारत के पहले आतंकवादी द्वारा दिल्ली में कर दी गई। यही नहीं गांधी जी ने अब्दुल रशीद को निर्दोष माना और घटना के लिए परिस्थिति को जिम्मेदार ठहराया।

खिलाफत आंदोलन के लिए जिन्ना ने गांधी जी को चेताया था कि आप आग से खेल रहे हैं, मुस्लिम जैसे कट्टर मजहब को राजनीतिक तौर पर शामिल करना खतरनाक साबित होगा।

जिन्ना के 14 सूत्री मांग को कांग्रेस द्वारा अनसुना किये जाने पर धर्मनिरपेक्ष जिन्ना कांग्रेस की तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनीति छोड़ कर सफी गुट में शामिल हो गये जो कि एक मुस्लिम समर्थित समूह था।

1937 के चुनाव से पूर्व कांग्रेस और लीग ने यह तय कर लिया था कि मिलीजुली सरकार बनायेंगे। इस समय कांग्रेस के अध्यक्ष नेहरू थे। उत्तर प्रदेश कांग्रेस के कर्ता – धर्ता नेहरू के खास रफी अहमद किदवई थे उन्होंने मिलीजुली सरकार में लीग पर प्रभाव के लिए कुछ मुस्लिम कांग्रेसी नेताओं जिसमें चौधरी खलीकुजमा और नबाब मोहम्मद प्रमुख थे, को लीग के टिकट पर लड़वाया। परिणाम कांग्रेस के लिए आशातीत थे, उन्हें स्पष्ट बहुमत मिला।

नेहरू का मानना था कि दो पक्ष कांग्रेस और ब्रिटिश सरकार हैं, नेहरू लीग को मुस्लिमों की नुमानंदगी वाली स्वतंत्र पार्टी मानने को तैयार नहीं थे, न सरकार में भागीदारी जबकि दूसरे नेता पटेल, गोविंद वल्लभ पंत, अबुल कलाम आजाद और गांधी जी भी पूर्व समझौते के अनुसार ही चलना चाहते थे लेकिन नेहरू के आगे गांधी जी विवश नजर आये। इस बात का उल्लेख दुर्गा दास ने अपनी पुस्तक ‘इंडिया आफ्टर कर्जन टू नेहरू’ और शशि थरूर ने अपनी पुस्तक ‘अंधकार काल : भारत में ब्रिटिश साम्राज्य’ में किया है।

जिन्ना को बहुसंख्यक तानाशाही का पहला डर कांग्रेस की तरफ से ही दिखाया गया। उत्तर प्रदेश से शुरू हुआ यह विवाद अन्ततः भारत के विभाजन का कारण बना।

गांधी ने भजन में ईश्वर के साथ अल्लाह को शामिल करके धर्मनिरपेक्षता के नाम पर तुष्टिकरण का ही प्रयास किया।

‘रंगीला रसूल’ नामक पुस्तक का प्रकाशन 1923 इस्वी में लाहौर से महाराज राजपाल के सम्पादन में हुआ, इसके लेखक पं एम. ए. चमूपति थे। इनके लिखने का उद्देश्य था कि मुसलमानों द्वारा कृष्ण और स्वामी दयानंद सरस्वती को अपनी पुस्तकों के माध्यम से बदनाम किया जाए।

शुरू में ‘रंगीला रसूल’ पुस्तक पर कोई विवाद नहीं था लेकिन यह पुस्तक गांधी जी के हाथ लगने पर वे जून 1924 से लेकर अगस्त 1929 तक अपने अंग्रेजी अखबार ‘यंग इंडिया’ में इसकी आलोचना लिखते रहे और मुसलामानों के गुस्से को हवा देते रहे, जब तक कि महाराज राजपाल की हत्या एक 19 साल के मुस्लिम युवक इल्मदीन ने नहीं कर दी।

कांग्रेस में कई ऐसे मौके आये जब गांधी जी ने खुलकर मुस्लिमों का समर्थन करके मुस्लिमों का मसीहा बनने का प्रयास किया।

हिन्दू – मुस्लिम भाई – भाई और स्वयं को आदर्श रूप में प्रस्तुत करने में उनका स्वयं का लड़का रामदास मुस्लिम हो गया। जिसे उन्होंने लौटाने का प्रयास नहीं किया। दुःखी माता कस्तूरबा गांधी जिन्हें अपने धर्म में बहुत आस्था थी उन्हें पुत्र रामदास को वापस हिन्दू धर्म में लाने के लिए बम्बई के आर्य समाज का सहारा लेना पड़ा।

गांधी जी जिस चरित्र की बात करते रहे उसको इनके पुत्र रामदास ने ही अपनी पुत्री से अभद्र व्यवहार करके सिद्ध कर दिया कि गांधी का विचार असफल है।

गांधी जी की स्वीकार्यता जब उस समय हिन्दू और मुस्लिमों में बराबर थी तब वे देश के धार्मिक रंग में रंगे बंटवारे को कैसे नहीं रोक पाये?

बंटवारे के लिए हुये दंगे में हिन्दू महिलाओं ने अपनी आप बीती जब गांधी से कहा तो उनका उत्तर था कि बलात्कार करवा लेना था लेकिन अपनी भूमि छोड़ कर नहीं आना था।

दंगे के समय लाहौर से आयी ट्रेन जिसमें सिखों की लाशें भरी थी, उसके बारे में सुन कर दिल्ली में दंगा हो गया जिसमें सिख – हिन्दू मिलकर मुसलमानों को मारने लगे। गांधी जी ने दंगे से मुस्लिमों को बचाने के लिए दिल्ली में आमरण अनशन शुरू कर दिया।

जब गांधी ने बंटवारे को स्वीकार किया तब उस समय फ्रंटियर गांधी (खान अब्दुल गफ्फार खान) ने गांधी जी से कहा कि आपने ने हमें भूखे भेड़ियों के सामने डाल दिया, हम अपने लोगों से क्या कहेंगे? उनका बाकी का जीवन पाकिस्तानी जेलों में बीता।

यह सच है कि गांधी जी अफ्रीका में भारतीय व्यापारी अब्दुल्ला का केस लड़ने गये थे जिससे वह नेता बने। उनके मन में सदा अब्दुल्ला के प्रति कृतज्ञता रही। उन्होंने जिन्ना की सलाह को खिलाफत में न मान कर तुष्टीकरण के बूते भारत के बंटवारे की संकल्पना को मुस्लिमों में बलवती होने दिया। गांधी जी ने वह जिन्न निकाला जो आज भी बोतल से बाहर घूम रहा है।

बंटवारे के बावजूद वह तुष्टिकरण से बाज नहीं आए, एक बार फिर पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपया दिलाने के लिए आमरण अनशन शुरू कर दिया। कांग्रेस आज भी धर्महीन राजनीति की बात करती है, जबकि वही गांधी धर्महीन राजनीति को आत्माविहीन शरीर कहते हैं, इसपर वह रामराज्य का आदर्श रखते हैं। यह परस्पर विरोधी विचार पूरी कांग्रेस की राजनीति को भ्रमित कर रखे है कि वह किस मार्ग पर लगे?

तिलक, गोखले, फिरोजशाह मेहता, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, भगत, सुभाष आदि ने जिस सम्प्रदायिक राजनीति से बचने का प्रयास किया गांधी जी ने मुस्लिम तुष्टिकरण से उसे हवा दे दी।

गांधी की भयंकर भूल :

जब देश स्वतंत्र हुआ और देश का नेतृत्व करने की बारी आयी तब गांधी जी ने स्वयं को सत्ता से दूर रखा, अपने को महान, महात्मा बनाने में रमे रहे। जिनका पूरा जीवन राजनीतिक सुधार के लिए था उन्हें सत्ता से गुरेज? गांधी जी ने महाभारत के भीष्म पितामह की तरह गलती की जिन्होंने अपनी मजबूरी सिंहासन के प्रति रखी भले ही महाभारत हो गया।

दूसरी ओर जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी के इमरजेंसी के विरोध में सम्पूर्ण क्रांति का नारा देकर 1977 इस्वी में कांग्रेस को बुरी तरह पराजित किया, जब सत्ता की बारी आयी तो वह भी गांधी जी की तरह अपने को महात्मा मान लिया। अब दौर राजनीतिक भ्रष्ट्राचार और अपराधीकरण का शुरू हुआ।

सत्ता के कालिख से बचना के लिए आदर्शवाद और व्यक्तिवाद को हवा दी गयी जिससे आने वाली पीढ़ियों के लिए नये भगवान बनने की राह निष्कंटक हो सके। गांधी चले गये किन्तु सत्ता की रपटीली राहें आज भी गांधीवाद की गूंज सुनतीं हैं।


नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।

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Krishna Swarup Dikshit.
Krishna Swarup Dikshit.
3 years ago

गांधीजी के विचारों का सटीक वर्णन। गांधी हिंदुओं को भरमाने के लिए ही रघुपति राघव राजाराम बोलते रहे। यथार्थ में तो यह भी उनकी मुस्लिमों को तुष्ट करने की चाल ही थी, जिसके कारण उन्होंने ईश्वर अल्लाह तेरा नाम जोड़ा जो लक्ष्मण दास जी के भजन में था ही नहीं और मुस्लिमों ने इसे कभी नहीं माना। मैं लेखक को इस कार्य के लिए ‌साधुवाद देता हूं।

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