आलोचना का अर्थ कमियों के विषय में कहना या बताना है। आलोचना बुराई अथवा कीचड़ उछालने से भिन्न है। अतः आलोचना से क्या घबराना? इससे और बेहतर होने और करने का जज़्बा मिलता है। यदि आपकी आलोचना हो रही है तो अभी भी सुधार की संभावना बनी हुई है।
सहनशीलता कमजोरी नहीं है बल्कि सहनशील वही होता है जिसमें उच्श्रृंखलता नहीं है, यह आपके मानवीय पक्ष की गहराई को दिखाता है, आपनी संवेदना को धार देता है।
सौ प्रश्नों का एक उत्तर मौन रह जाना होता है। सहनशीलता से ज्यादा बड़ी समस्या यह कि क्या आप मौन रह भी सकते है? सहनशीलता एक मजबूती है, यह सबके बस की बात नहीं है। बर्दाश्त करने की क्षमता पर निर्भर करता है कि “वह वस्तु हो या मनुष्य, कितना टिकाऊ है”।
लोकतंत्र में और कुछ भले ही न मिले किन्तु आलोचना का अधिकार अवश्य मिलता है। सत्ता पक्ष को लोगों ने अर्थात् जनता ने वोट दिया है और प्रश्न भी यही लोग उठाएंगे। उन प्रश्नों का निराकरण किया जाय न कि आलोचक के चरित्र को ही दूषित करना प्रारम्भ कर दिया जाय। अथवा उस पर अनुचित कार्यवाही, सत्ता के मद में कर दी जाय।
प्रश्न का उत्तर होता है, न कि बदले में प्रश्न! यह कहना कि समाज ने सहनशीलता खो दी है, जल्दबाजी होगी। सहनशील बनने का गुण हमें हमारे परिवारिक संस्कारों से मिलता था। हमने समाज में सत्य, त्याग, सहनशीलता का निवेश बन्द कर दिया है। अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था सोफिस्ट दर्शन आधारित है जिसका मानना है कि ‘वह तुम्हारी आलोचना करता है, तुम भी बदले में उसकी आलोचना करो’।
मात्र राजनीति या राजनीतिक पार्टियां इसके लिए दोषी नहीं हैं क्योंकि इन दोनों का निर्माण समाज से होता है और यह समाज हमसे और आप से ही निर्मित होता है ।
आलोचना न सह पाना बताता है कि हमारा व्यक्तित्व कितना हीन हो चला है। कुछ जरूरी तत्वों का समाज में निवेश होना अत्यावश्यक है अन्यथा आलोचना पर जूतम-पैजार तो हो ही रही है।