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विनाश का विकास कोरोना की जुबानी

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Dhananjay Gangey
Dhananjay gangey
Journalist, Thinker, Motivational speaker, Writer, Astrologer🚩🚩

विकास का अर्थ समृद्धि से भिन्न है, विकास उसे कहते हैं जिसमें मनुष्य की सर्वथा उन्नति प्रकृति को संरक्षित करके हो। वहीं केवल समृद्धि का प्रकृति के विकास से कोई सरोकार नहीं है। किन्तु आज विकास का अर्थ भौतिक विकास से है, जंगल काट कर नगर बसाना, औद्योगिकरण से प्रकृति को क्षति पहुँचना क्योंकि विकास अभी जारी है, विनाश अभी बाकी है।

कोरोना वायरस ने मनुष्य को सीमित किया है। कल तक जीवों को मार कर खाने वाले और उन्हें प्रोटीन का अच्छा स्रोत बताने वाले आज अपने घरों में दुबके हुए हैं। न्यूयॉर्क, लंदन, पेरिस, रोम जैसे अभेद्य सुरक्षा सामग्रीयों/उपकरणों से लैश शहर जो अपने को एंटी मिसाइल सिस्टम से सुरक्षित करके अपनी पीठ थपथपा रहे थे उन्हें आज चमगादड़ के रोग ने बर्बाद कर डाला है। क्या आधुनिक विकास का जो मॉडल बनाया गया है वह प्रकृति के अनुकूल है? प्रकृति का सामर्थ्य यह है कि मानव की किसी भी व्यवस्था को एक मिनट में धराशायी कर सकती है।

कोरोना महामारी ने बहुत कुछ सोचने के लिए विवश कर दिया है कि “प्रकृति का विकास” या “प्रकृति में विकास” यह धरती सिर्फ मनुष्य के लिए ही बनी है तो अन्य जीव की क्या जरूरत, क्या वह मनुष्य की जीभ के रसास्वादन के लिए धरती पर लाये गये हैं? मनुष्य का पेट जब अन्न से भर सकता है तब वह जानवर बन अन्य जीवों को खाद्य सामग्री कैसे बना सकता है?

मनुष्य की मां जितना अपने बच्चों को लाड़, प्यार, दुलार के साथ भोजन का प्रबंध करती है उतना ही अन्य जीवों की मां भी करती है जैसे गाय को बझड़े को दुलारते, चिडिया को अपने बच्चे को दाना खिलाते आप देख सकते हैं।

आज विश्व लॉकडाउन होने से प्रकृति में सांस लेने लायक हवा हो गयी, नदियां स्वच्छ और जल पीने योग्य हो गया, चिड़िया आसमान में बेधड़क उड़ रही है, विश्व के वातावरण में आक्सीजन लेबल 100 साल में सबसे अच्छा हो गया है।

आज मनुष्य अपने जीवन के लिए डरा है तो अन्य जीव प्रसन्न हैं जंगल की कटान रुक गयी है। मानव अपने आप को असीमित मान कर चलना शुरू कर दिया था। एक प्राकृतिक आपदा ने मानवीय उद्देयों में लगाम लगा दिया है।

मनुष्य अपने लिए गड्ढा स्वयं खोदता है एड्स, सार्स, फ्लू, प्लेग और कोरोना जैसी बीमारियां उसके कारनामों के कारण मनुष्य में प्रवेश की हैं। मनुष्य का लालच इतना बढ़ा है कि वह अपने को क्रियेटर ही मान लिया है। वह कभी नहीं सोचा कि कितना ही बड़ा और आधुनिक शहर क्यों न बन जाय यदि पानी ही वहाँ खत्म हो जायगा तब उस शहर को भुतहा बनने में समय नहीं लगेगा।

कुछ मनुष्यों द्वारा किये पाप को पूरा विश्व भोग रहा है। भौतिक विकास में इतने अंधे न हो जाइये कि धरती पर अन्य जीव को जगह न दीजिये, पूरे प्रकृति का स्वामी मनुष्य को मानने की गलती न करिये। न ही सबको भोग्य की वस्तु समझिये। “प्रकृति” एक संतुलन का नाम है। एक चींटी भी प्राकृतिक संतुलन स्थापित करने में सहयोग करती है।


नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।

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अस्वीकरण: प्रस्तुत लेख, लेखक/लेखिका के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो। उपयोग की गई चित्र/चित्रों की जिम्मेदारी भी लेखक/लेखिका स्वयं वहन करते/करती हैं।
Disclaimer: The opinions expressed in this article are the author’s own and do not reflect the views of the संभाषण Team. The author also bears the responsibility for the image/images used.

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3 years ago

बहुत ही उपादेय लेख है; प्रकृति ही संतुलन का दूसरा नाम है – मनुष्य के तरह अन्य जीवजंतू तथा बृक्ष लता यहां बिकाशित, बर्धित होना प्राकृतिक नियमधारा है, इसका ब्यतिक्रम का पराभव मानव समाज को ही भोगना है। सांप्रतिक समय में यथार्थतः “प्रकृति में विकाश” ही अनिवार्य है, न कि प्रकृति का विकाश।
धन्यवाद, नमस्ते।🙏।

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