जिस प्रकार आग, पानी आदि का अपना एक धर्म है, जिसे कभी बदला नहीं जा सकता, बदलने की अवस्था में इनकी उपादेयता और उपयोगिता ही समाप्त हो जायेगी। ठीक इसी प्रकार इस धरा पर के समस्त मनुष्यों का धर्म एक ही है।
धर्म क्या है?
धर्म एक संस्कृत शब्द है। ध + र् + म = धर्म। संस्कृत धातु ‘धृ’ – धारण करने वाला, पकड़ने वाला। ‘धारयति – इति धर्म:’ अर्थात जो धारण करने योग्य है, वही धर्म है।
यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः। – वैशेषिकसूत्र १.१.२
जिससे यथार्थ उन्नति (आत्म बल) और परम् कल्याण (मोक्ष) की सिद्धि होती है, वह धर्म है।
इस परिभाषा से यह ठीक – ठीक पता नहीं चलता कि क्या धारण करना चाहिए अथवा करने से आत्म बल और मोक्ष की सिद्धि होती है? इसके लिए शास्त्रों ने धर्म के लक्षणों को बताया है। उदाहरण स्वरूप मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षण बताए गए हैं :
धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥ – मनुस्मृति ६.५२
धृति (धैर्य), क्षमा, दम (हमेशा संयम से धर्म में लगे रहना), अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, धी (सत्कर्मों से बुद्धि को बढ़ाना), विद्या (यथार्थ ज्ञान लेना), सत्य और अक्रोध।
याज्ञवल्क्य स्मृति ने ९ लक्षण गिनाए हैं :
अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
दानं दमो दया शान्ति: सर्वेषां धर्मसाधनम्॥ – याज्ञवल्क्य स्मृति १.१२२
अहिंसा, सत्य, चोरी न करना (अस्तेय), शौच (स्वच्छता), इन्द्रिय-निग्रह (इन्द्रियों को वश में रखना), दान, संयम (दम), दया एवं शान्ति।
इसी प्रकार श्रीमद्भागवत पुराण में सातवें स्कंध के ११वें अध्याय में श्लोक ८ से १२ तक में धर्म के ३० लक्षण बताए गए हैं।
यह बताया गया है कि अमुक लाक्षणिक कार्यों को करने से आप धार्मिक कहलाएंगे और आपके धर्म का पालन होगा। यहाँ आप ध्यान देंगे तो पाएंगे कि आज संसार में जितने भी ‘तथाकथित’ धर्मों का अस्तित्व है, उनमें लगभग इन्हीं लक्षणों का समावेश मिलता है, अतः इससे इतना तो स्पष्ट होता है कि धर्म मूल रूप में वस्तुतः एक ही है और कभी किसी समय एक से ही आज अलग – अलग हुए हैं। यूँ विचार करने से आप यह भी समझ सकते हैं कि वास्तव में यह अलग – अलग धर्म नहीं हैं बल्कि अलग – अलग ‘मत’, ‘पथ’ या ‘संप्रदाय’ हैं जो लगभग एक समान लक्षणों वाले धर्म के पालन करने कि भिन्न – भिन्न तरीके बतलाते हैं। धर्म सनातन है जिसका मूल मार्ग ‘सनातन धर्म’ है इसी कारण मात्र सनातन वैदिक धर्म को ही ‘धर्म’ की संज्ञा दी जा सकती है।
हम जो पूजा, पाठ, नियम, व्रत आदि करते हैं, स्वतंत्र अवस्था में यह सभी धर्म नहीं हैं। यह नियम, व्रत अनुष्ठान हमें ऐसी पवित्र व निश्रयी बुद्धि प्रदान करते हैं जिससे कि हम धर्म का पालन कर सकें अर्थात जो धर्म के लक्षण बताए गए हैं, उनका पालन कर सकें। वेद, उपनिषद, पुराणादि शास्त्रों को पढ़ने का उद्देश्य भी यही होता है कि हमारी बुद्धि पवित्र हो सके और हम ‘धर्म’ का पालन कर सकें और इस प्रकार से पुरुषार्थ चतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) का यथा विधि से पालन हो सके।
महाभारत अनुशासनपर्व में आया है :
ये तु धर्मं प्रशंसन्तश्चरन्ति पृथिवीमिमाम्।
अनाचरन्तस्तद्धर्मं संकरेऽभिरताः प्रभो॥
प्रभो! जो लोग इस पृथ्वी पर धर्म की प्रसंशा करते हुए घूमते-फिरते हैं; परंतु स्वयं उस धर्म का आचरण नहीं करते, वे ढोंगी हैं और धर्म संकरता फैलाने में लगे रहते हैं।
धर्म का आचरण करने का अर्थ है कि धर्म के जो लक्षण शास्त्रों में गिनाये गए हैं, उनका हम पालन करें। हम लाख मंदिर–मंदिर भटकें, भगवान का ध्यानादि करें किन्तु झूठ और प्रपंच न छोड़ें तो मंदिर जाने या भगवान को भजने का कोई भी लाभ न पा सकेंगे दूसरी तरफ निपट अनपढ़ व्यक्ति भी धर्म के लक्षणों का पालन कर के धार्मिक बन सकता है। शास्त्रों में ऐसे अनेक प्रमाण मिलते हैं जहां निश्रयी बुद्धि की प्राप्ति सद्कर्म मात्र करने से हुई। मन से राम–राम या कृष्ण–कृष्ण भजने मात्र से भी ऐसी पवित्र और निश्रयी बुद्धि की प्राप्ति हुई है, ऐसा भी हमने शास्त्रों में पढ़ा और जाना है।
आज के समय के अनुसार विचार करें तो पाएंगे कि रोजी–रोटी और परिवार के भरण–पोषण के लिए सुबह से शाम तक की भाग–दौड़ के बीच न मंदिर जाने का समय ही मिल पाता है और न भगवान को भजने का ही पर्याप्त समय मिल पाता है, तो क्या ऐसे में व्यक्ति धार्मिक नहीं हो सकता? अवश्य हो सकता है यदि वह सत्य बोले, दया, अहिंसा, संयम, शांति आदि धर्म के लक्षणों का भली प्रकार से पालन करे। मंदिर जाना, भगवान को भजना अथवा संध्या करने का उद्देश्य भी यही है कि सत्य, अस्तेय, शौच, निद्रीय निग्रह, संयम, दान, क्षमा आदि का पालन हो सके, हमारी बुद्धि ऐसी पवित्र बन सके जिससे कि इनका पालन हो।
किन्तु ऐसा भी नहीं है कि मंदिर जाना, पूजा या अनुष्ठान आदि करने का कोई अर्थ है ही नहीं। यही वे माध्यम हैं जिनसे आज के समय में ऐसी बौद्धिक क्षमता मिल सकती है जिससे धर्म का पालन करना संभव हो सके। आज के समय में निर्गुणोपासना के माध्यम से चित्त स्थिरता प्राप्त करना लगभग असंभव है क्योंकि इसमें साधक को कोई आधार नहीं मिलता जबकि सगुणोपासना में भगवद प्रतिमा का आधार होता है। असल में भारत मूल रूप से मूर्तिपूजक रहा ही नहीं है, मूर्ति पूजा अध्यात्म की शिशु कक्षाएं हैं किन्तु आज के समय में यही प्रधान और सिद्ध माध्यम है।
हम देखते हैं कि आज कल लोगों को सरकार द्वारा की जा रही निगरानी (Surveillance) सीसीटीवी आदि से परेशानी होती है। लोग कहते हैं कि ऐसा होना ठीक नहीं हैं, यह उनके निजी जीवन में दखल है। विचार करने वाली बात यह है कि ऐसा करने की आवश्यकता ही क्यों पड़ी? वेदों में मनुष्यों को जो स्वतंत्रता दी गई है, वह बंधनमयुक्त है, उन पर धर्म और धार्मिक नियमों का बंधन है। आज के समय में लोग स्वतंत्रता का अर्थ बंधनमुक्त स्वतंत्रता से लेते हैं जो समस्या की मूल जड़ है।
एक धार्मिक मनुष्य के लिए सबसे बड़ी निगरानी धर्म के नियम ही हैं। हम अपने लेखों में प्रायः यह कहते आए हैं कि इस संसार में तीन प्रकार के लोग निवास करते हैं –
१. परमेश्वर को न मानने वाले
२. परमेश्वर को सातवें आसमान में मानने वाले और
३. परमेश्वर को सर्वत्र उपस्थित मानने वाले।
परमेश्वर को न मानने वाले लोग सर्व तंत्र स्वतंत्र रहते हैं। उनके लिए कोई नियामक नहीं है। वे स्वेच्छाचारी रहते हैं। दूसरी श्रेणी के अर्थात सातवें आसमान में ईश्वर को मानने वाले लोगों के लिए भी यहां कोई देखने वाला न रहने के कारण वे स्वेच्छाचारी हो सकते हैं। परमेश्वर को सर्वव्यापक, अपने सभी ओर उपस्थित मानने वाले परमेश्वर को सदा सर्वत्र अपने समीप मानते हैं। इस कारण वे बुरा कार्य नहीं कर सकते।
ईशा वास्यमिदंसर्व यत्किं च जगत्यां जगत्। (यजु० ४०/१ । ईशो प० १)
‘जो कुछ यहां है, उसमें परमेश्वर पूर्णरूप से ओत प्रोत – भरा है।’ जो मनुष्य इसको ठीक तरह समझेगा, उसे किसी निगरानी से क्या समस्या होगी? मूल तो उस पर किसी निगरानी की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। उसके लिए तो सर्वव्याप्त परमात्मा की दृष्टि ही सीसीटीवी से बढ़ कर होगी। जो मनुष्य अपने अंदर और बाहर सर्वत्र सर्वज्ञ सर्वेश्वर को उपस्थित जानेगा, वह जानबूझ कर बुरा कार्य कर ही नहीं सकेगा।
धर्म का पालन करना एक शिक्षित और सुव्यवस्थित समाज और विकसित भविष्य के लिए परम् आवश्यक है अतः धार्मिक बनिए।