29 अक्टूबर 2019 को भारत के तीसरे धाम की यात्रा प्रारंभ हुई। यात्रा के साथी विनय जी थे जिनके साथ पूर्व में जगन्नाथ पुरी की यात्रा संपन्न हुई थी।
“प्रयागराज एक्सप्रेस” से कानपुर और फिर वहाँ से अयोध्या की तरफ से आ रही “साबरमती एक्सप्रेस” से अहमदाबाद तक का सफर होना था। रात के 1:30 बजे कानपुर से “साबरमती एक्सप्रेस” मिली। यह वही ट्रेन थी जिसके एक डिब्बे में 27 फरवरी 2002 में अयोध्या जा रहे 59 कारसेवकों को जलाकर मार डाला गया था, जिसके परिणामस्वरूप गुजरात में दंगे हुए थे। इस दंगे में सरकारी आंकड़ों के अनुसार 1100 लोग मारे गये थे।
ट्रेन में बैठते ही गुजरात दंगे की याद ताजा हो गयी। इस दंगे के परिणाम बहुत विध्वंसक रहे। साथ ही इससे दो बातें निकल कर आयीं, पहला गुजरात में आये दिन होते हिंदु – मुस्लिम दंगों से एक लंबी शांति मिली और दूसरा श्री नरेंद्र दमोदरदास मोदी जी का उदय हुआ जिन्होंने गुजरात ही नहीं वरन प्रधानमंत्री के रूप में सम्पूर्ण भारत की तस्वीर बदल दी।
विनय से गुजरात दंगे को लेकर एक लंबी चर्चा का भी दौर चला। शाम होते – होते गोधरा स्टेशन आ गया जहाँ यह घटना 2002 में घटी थी। स्टेशन पर उतर कर गोधरा देखा। यह एक मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र है।
दंगे की सोच से आगे बढ़ते हुए यात्रा क्रम में सुबह 4 बजे अहमदाबाद पहुंचे जहाँ उतर कर यात्रा के प्रथम पड़ाव सिद्धपुर के लिए जाना था।
सिद्धपुर भारत के प्रसिद्ध तीर्थ स्थलों में से एक है। यह “मातृ गया” पिंडदान के लिए प्रसिद्ध है। इस स्थल का सम्बंध सतयुग से है। भगवान विष्णु के अवतार कपिल मुनि का जन्म यहीं हुआ था।
स्वयंभुव मनु अपनी तीन पुत्रियों आकूति, देवभूति और प्रसूति में से देवभूति के विवाह हेतु ब्रह्मा जी के मानस पुत्र कर्दम ऋषि के आश्रम यहीं पधारे थे।
यहाँ पर भारत के प्रसिद्ध सरोवरों में से एक बिंदु सरोवर है जिसका वर्णन ऋग्वेद में मिलता है।
भगवान के कर्दम पर वात्सल्य दिखाने में जो अश्रु की बूंद गिरी वही बिंदु सरोवर के रूप में है। यही सरस्वती और गंगा का मिलन बिंदु भी है। सरस्वती अब विलुप्त हो गयी हैं और गंगा की कभी कोई छोटी धारा रही होगी।
कर्दम ऋषि ने यही 10000 वर्षों तक तप किया था। यहीं पर उन्होंने एक ऐसा विमान बनाया था जो सौर ऊर्जा और वायु दोनों से चल सकता था, जिसकी गति मन की गति सी थी, इसका आकार भी मनोनुकूल किया जा सकता था। विमान के ऊपर ही तालाब, वाटिका आदि सभी कुछ था। विमान अदृश्य रह कर दूसरों पर नजर भी रख सकता था।
कर्दम ऋषि और उनकी पत्नी देवभूति से नौ कन्याओं के बाद पुत्र के रूप में कपिल मुनि का जन्म हुआ। भगवान कपिल अपनी बहनों के साथ – साथ अपनी माता के भी गुरु थे। पिता के सन्यास लेने के बाद माता को मुक्ति दिलाने के लिए “सांख्य दर्शन” का उपाख्यान किया। साथ “कपिल गीता” का उपदेश दिया। सबसे बड़े दुःख को भी वर्णित किया। उनके उपदेशों से माता की मुक्ति हुई, यही स्थल कालान्तर में ‘मातृ गया’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
यहीं पर त्रेता युग में भगवान परशुराम को मातृहत्या से मुक्ति मिली थी। द्वापर में यह स्थल भगवान कृष्ण से जुड़ा रहा। जब भीमसेन पर कुरुक्षेत्र के युद्ध के समय में दुःशासन का रक्तपान का दोष लगा तो पिंडदान के लिए भगवान कृष्ण ने उन्हें यहीं भेजा था।
कलियुग में भी बहुत से मातृभक्त यहाँ आते रहे हैं। यही लोभ मुझे भी था तो मैंने अपनी गुजरात यात्रा का प्रथम पड़ाव यहीं निश्चित किया था।
सरोवर में स्नान के बाद पिंडदान की बारी आयी तो मैंने पंडित जी को बताया कि मेरे माता – पिता जीवित हैं तब पिंडदान किसका कर सकते हैं? उन्होंने कहा बड़े सौभाग्य की बात है कि आप यहां आये हैं अतः आप मातामही अर्थात दादी और नानी के लिए करिये।
हम भी गणवेश में बैठ गए पिंडदान करने। इस समय मन में श्रीमद्भागवत की कथा, भगवान कृष्ण, भगवान परशुराम, कर्दम, ऋषि कपिल, माता देवभूति, मनु आदि का चित्रण चलने लगा था। एक समय ऐसा आया जब यही समझ नहीं आ रहा था कि इसका किस युग से साम्य स्थापित करें। ऐसा प्रतीत हुआ कि किंचित युगों – युगों में किसी न किसी रूप में इस पावन क्षेत्र में आने का सौभाग्य मिलता रहा है।
मन बहुत पुलकित था, आत्मा स्वयं को ही धन्यवाद देती रही कि धन्य है यह शरीर जो आत्मा को लेकर यहाँ आयी। हम क्रिया सम्पन्न करके इष्ट को प्रणाम करके पूर्वजों के लिए आग्रह करके आगे के मार्ग पर निकले।
सिद्धपुर क्षेत्र पाटन जिले में है और यह पाटन प्राचीन गुजरात अर्थात अहिल्यवाड़ की राजधानी रहा है। मन में भारत का इतिहास और चालुक्य राजाओं का इतिहास चलने लगा। भीम, कर्णावती, रानी की वाव, सहस्रलिंग पोखर, मोढेरा का सूर्य मंदिर आदि – आदि।
हम सिद्धपुर के बाद सहस्रलिंग तालाब देखने के लिए पहुचे जहाँ एक तालाब में एक हजार शिवलिंग हैं। खबसूरत कारीगरी और सबसे बड़ी आश्चर्य की बात कि इतने अधिक शिवलिंग का उस समय एक स्थान पर ही क्या प्रयोजन रहा होगा। इसका निर्माण 1086 इस्वी में जयसिंह सिद्धराज ने करवाया था। यहाँ की जलापूर्ति के लिए सरस्वती नदी तक नहर बनायी गई थी। इस झील पर मुसलमानों ने तीन बार आक्रमण किया था। अभी भी तालाब का पूरा उत्खनन होना बाकी है जिससे भविष्य में कई और रहस्य खुल सकते हैं।
सहस्रलिंग तालाब के बाद विश्व विरासत स्थल रानी की वाव पहुचे जो पास में ही थी। रानी की वाव की बनावट में अद्भुत शिल्पकला और वैज्ञानिक तकनीक का प्रयोग कर उस समय कैसे इस कुएं को बनाया गया होगा जो आज भी जीवित है।
रानी की वाव का निर्माण 11वीं सदी में रानी उदयमती ने करवाया था, यह जमीन में पांच मंजिले के बराबर नीचे है। वाव में जलापूर्ति सरस्वती नदी से होती थी। कहा जाता है कि एक गुप्त द्वार रुद्रमहालय के लिए यहीं से जाता था। रानी की वाव की दीवार पर जिन मूर्तियों का चित्रांकन है वह आज भी सुरक्षित हैं।
दीवार पर राम, सीता, शिव, पार्वती, चौसठ योगिनी, चामुंडा, महिषासुर मर्दिनी, ब्रह्मा, नर्तकी आदि का चित्रांकन है। साथ पाटन का प्रसिद्ध वस्त्र पाटोणा का भी चित्रांकन मिलता है। मूर्तियां रेत में दबी होने के कारण आज भी सुरक्षित हैं।
रानी की वाव के निकट ही कभी राजमहल भी रहा होगा। यह विचारणीय विषय है कि जिस वावड़ी की चित्रकला देवताओं के शिल्पी को भी लज्जित कर दे, उस राजा के महल की शिल्पकला निश्चित ही अतुलनीय रही होगी।
पाटन नगरी का उल्लेख महाभारत में मिलता है, यहीं भीमसेन ने हिडम्ब नामक राक्षस का वध करके उसकी बहन हिडम्बा से विवाह किया था।
रानी की वाव के बाद जो सबसे महत्वपूर्ण स्थल आया वह था “मोढेरा का सूर्य मंदिर”। भारत के पूर्वी तट उड़ीसा में कोणार्क और पश्चिम में मोढेरा दोनों अद्वितीय हैं। मोढेरा मंदिर बिल्कुल कर्क रेखा पर स्थित है। 21 मार्च, 23 मार्च और 23 सितम्बर को जब दिन और रात्रि बराबर होते हैं, तब इस दिन सूर्य के कारण अद्भुत खगोलीय घटना यहां प्रत्यक्ष होती है।
मंदिर इस समय ध्वंसावशेष अवस्था में है, इस मंदिर का निर्माण भीम प्रथम ने 1026 – 27 इस्वी में करवाया था। मंदिर का विध्वंस महमूद गजनवी ने और फिर अलाउद्दीन खिलजी ने किया था।
बर्बर मुसलमानों द्वारा मंदिर तोड़ने का कारण था हिंदुओं की आस्था को डिगाना और बर्बरता का परिचय देना जिसका शिकार भारत के समस्त प्राचीन मंदिर रहे हैं।
इसके बावजूद मोढेरा का सूर्य मंदिर अपनी कहानी कहता है। मंदिर प्रांगण में सूर्य आराधना के लिए निर्मित तालाब बहुत ही बेजोड़ और बेमिसाल है, ऐसा लगता है कि जैसे यह धरती पर न होकर किसी देवलोक में हो और इसके निर्माण कर्ता मनुष्य न होकर देव शिल्पी रहे हों।
मंदिर का पूरा निर्माण ज्यामितीय और खगोलिकी आधार पर किया गया है। सूर्य नारायण के अलग – अलग समय अर्थात सुबह, दोपहर, शाम और अस्ताचल सूर्य की आराधना के लिए अलग – अलग मंदिर है। यदि यह किंचित पूर्णावस्था में होता तो आप इसे निश्चित ही कहते कि यह सूर्य नारायण का महल है जिसमें वह हर प्रहर विराजित होते हैं।
मन्दिर में 52 स्तम्भ और 12 आदित्यों के चित्रांकन साथ ही सूर्यकुंड में 108 छोटे मंदिर बने हैं जो ध्वंस अवस्था में हैं। ये 52 सप्ताह और बारह मास का प्रतिनिधित्व करते हैं और 108 सर्व शुभ संख्या है।
दीवार पर मनुष्य के गर्भधारण से लेकर बालक के पैदा होने तक का चित्रण है। शिव, पार्वती, गणेश और शेष शैय्या पर विराजित विष्णु की मूर्ति, शीतला माता, चेचक की देवी का उत्कीर्णन है। मंदिर का पूरा चित्र सूर्य कुंड में दिखाई पड़ता है।
मोढेरा मंदिर के पश्चात प्रसिद्ध उमैया माता के मंदिर के दर्शन हुए और वहीं पर ही रात्रि भोजन हो गया। रात्रि अभी शुरू ही हुई थी, लेकिन आराम को हराम कहके अगले पड़ाव पर पहुँचने की उत्सुकता मन में तरंगें लेने लगीं थीं। थकावट बहुत होने के बाद भी मन में यही था कि रात्रि में ही सफर पूरा कर लेते तो सुबह तक शिव के प्रथम ज्योतिर्लिंग सोमनाथ के निकट तो पहुँच ही जाते।
नोट : ‘मेरी द्वारकाधीश और सोमनाथ यात्रा’ तीन भागों में है, इस यात्रा संस्मरण का अगला अंक है : मेरी द्वारकाधीश और सोमनाथ यात्रा – भाग २, “सोमनाथ के दर्शन”
नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।
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