हमारा शरीर पांच तत्वों (पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि और वायु) से बना होता है, जबकि देवताओं का शरीर पांच तत्वों से नहीं बना होता, उनमे पृथ्वी और जल तत्व नहीं होते। मध्यम स्तर के देवताओं का शरीर तीन तत्वों (आकाश, अग्नि और वायु) से तथा उत्तम स्तर के देवता का शरीर दो तत्व तेज (अग्नि) और आकाश से बना हुआ होता है इसलिए देव शरीर तेजोमय और आनंदमय होते हैं।
चूंकि हमारा शरीर पांच तत्वों से बना होता है इसलिए अन्न, जल, वायु, प्रकाश (अग्नि) और आकाश तत्व की हमें जरुरत होती है, जो हम अन्न और जल आदि के द्वारा प्राप्त करते हैं।
लेकिन देवता वायु के रूप में गंध, तेज के रूप में प्रकाश और आकाश के रूप में शब्द को ग्रहण करते हैं।
यानी देवता गंध, प्रकाश और शब्द के द्वारा भोग ग्रहण करते हैं। जिसका विधान पूजा पद्धति में होता है। जैसे जो हम अन्न का भोग लगाते हैं, देवता उस अन्न की सुगंध को ग्रहण करते हैं, उसी से तृप्ति हो जाती है, जो पुष्प और धूप लगाते है, उसकी सुगंध को भी देवता भोग के रूप में ग्रहण करते हैं। जो हम दीपक जलाते हैं, उससे देवता प्रकाश तत्व को ग्रहण करते हैं। आरती का विधान भी उसी के लिए है, जो हम मन्त्र पाठ करते हैं, या जो शंख या घंटी, घड़ियाल बजाते हैं, उससे देवता गण आकाश तत्व के रूप में ग्रहण करते हैं। जिस प्रकृति का देवता हों, उस प्रकृति का भोग लगाने का विधान है।
मेडिकल साइंस भी पंचतत्वों को मानता है, यह बात आज किसी से नहीं छिपी। यही मान्यता Greece, Babylonia, Japan, और Tibet की प्राचीन सभ्यताओं में भी है। जिस पर विश्व में कई वैज्ञानिक प्रयोग हुए हैं जिनसे यह बात सिद्ध हुई है।
इस तरह हिन्दू धर्म की पूजा पद्धति में भोग लगाने का यह कारण बिल्कुल व्यवहारिक और वैज्ञानिक है।
वैदिक सनातन धर्म में ईश्वर का स्वरूप निराकार और ओमकार बताया गया है, सदाशिव जिनका नाम है और शिवलिंग जिनका प्रतीक है। आप इसे शिव लिंग से समझिये। शिवलिंग ब्रम्हांड में उपस्थित समस्त ठोस ऊर्जा का प्रतीक है अथवा दूसरे शब्दों में कहा जाये तो शिवलिंग ब्रम्हांड का प्रतीक (आकृति) है। संस्कृत में लिंग का अर्थ प्रतीक भी होता है। अब आइन्स्टीन के सूत्र [e / c = m c (e = mc^2) ] पर ध्यान दीजिये जिसके अनुसार द्रव्यमान को पूर्णतया ऊर्जा में बदला जा सकता है, अर्थात द्रव्यमान और ऊर्जा दो अलग – अलग चीज नहीं बल्कि एक ही चीज है परन्तु वो दो अलग – अलग रूप में ही सृष्टि का निर्माण करते हैं। इस कड़ी में हिग्स बोसान (God Particle) का प्रयोग उल्लेखनीय है। हिग्स बोसॉन की प्रथम परिकल्पना 1964 में दी गई और इसका प्रायोगिक सत्यापन 14 मार्च 2013 को किया गया। हिग्स बोसॉन को कणो के द्रव्यमान या भार के लिये जिम्मेदार माना जाता है। प्रायः इसे अंतिम मूलभूत कण माना जाता है। इस प्रयोग में हिग्स क्षेत्र की पुष्टि तो हुई लेकिन पूर्ण रूप से समझा न जा सका और अभी भी इसपर शोध चल रहा है।
अब आत्मा को वैज्ञानिक दृष्टि से समझते हैं। शरीर की तंत्रिका प्रणाली में व्याप्त क्वांटम जब अपनी जगह छोड़ने लगता है तो मृत्यु जैसा अनुभव होता है। इस सिद्धांत या निष्कर्ष का आधार यह है कि मस्तिष्क में क्वांटम, कंप्यूटर प्रोग्राम के जैसे चेतना एक प्रोग्राम की तरह काम करती है।
यह चेतना मृत्यु के बाद भी ब्रह्मांड में परिव्याप्त रहती है। एरिजोना विश्वविद्यालय में एनेस्थिसियोलॉजी एवं मनोविज्ञान विभाग के प्रोफेसर एमरेटस एवं चेतना अध्ययन केंद्र के निदेशक डॉ स्टुवर्ट हेमेराफ ने इस सिद्धांत को आगे बढ़ाया है।
उनसे पहले ब्रिटिश मनोविज्ञानी सर रोजर पेनरोस इस दिशा में काम कर चुके हैं। प्रयोग और शोध अध्ययनों के अनुसार आत्मा का मूल स्थान मस्तिष्क की कोशिकाओं के अंदर बने ढांचों में होता है जिसे माइक्रोटयूबुल्स कहते हैं।
वैज्ञानिकों ने इस सिद्धांत को आर्वेक्स्ट्रेड ऑब्जेक्टिव रिडक्शन (आर्च-ओर) का नाम दिया है। इस सिद्धांत के अनुसार हमारी आत्मा मस्तिष्क में न्यूरॉन के बीच होने वाले संबंध से कहीं व्यापक है।
दरअसल, इसका निर्माण उन्हीं तंतुओं से हुआ जिससे ब्रह्मांड बना था। यह आत्मा काल के जन्म से ही व्याप्त थी।
शरीर में उसकी एक किरण या स्फुल्लिंग मात्र रहता है। मृत्यु जैसे पट परिवर्तन में माइक्रोटयूबुल्स अपनी क्वांटम अवस्था गंवा देते हैं, लेकिन इसके अंदर के अनुभव नष्ट नहीं होते। आत्मा केवल शरीर छोड़ती है और ब्रह्मांड में विलीन हो जाती है।
हेमराफ का कहना है हृदय काम करना बंद कर देता है, रक्त का प्रवाह रुक जाता है, माइक्रोटयूबुल्स अपनी क्वांटम अवस्था गंवा देते हैं, लेकिन वहां मौजूद क्वांटम सूचनाएं नष्ट नहीं होतीं।
वे व्यापक ब्रह्मांड में वितरित एवं विलीन हो जाती हैं। यदि रोगी ठीक नहीं हो पाता और उसकी मृत्यु हो जाती है तो क्वांटम सूचना शरीर के बाहर व्याप्त है।
धर्म परंपरा इस अनुभव को स्मृति और संस्कार के साथ शरीर के बाहर रहने और उपयुक्त स्थितियों का इंतजार करना बताते हैं। दूसरे शब्दों में आत्मा पुनर्जन्म की तैयारी करने लगती है।
दूसरी ओर देखें तो अध्यात्म में भी आत्मा को ईश्वरीय स्वरूप बताया गया है। कठोपनिषद में आत्मा के स्वरूप के विषय में कहा है-
अंगुष्ठमात्र: पुरुषो, मध्ये आत्मनि तिष्ठति ।
विश्व ईशानो भूतभव्यस्य न तेता विजुगुप्सते ॥
अर्थात अंगुष्ठमात्रा के परिमाण वाली, आत्मा, शरीर के मध्य भाग अर्थात हृदयाकाश में स्थित है, जो भूत, भविष्य और वर्तमान पर शासन करने वाली है। उसे जान लेने के बाद जिज्ञासु-मनुष्य किसी की निन्दा नहीं करता। यही वह परमतत्व है।
शास्त्रों के अध्ययन से यह बात सामने आती है कि आत्मा का स्वरूप तेजोमय (अग्नि) है। श्री रामशर्मा आचार्य ने अपनी पुस्तक ‘मरने के बाद हमारा क्या होता है’ में लिखा है कि “आत्मा के रंग को लेकर भारतीय और पाश्चात्य योगियों का मत अलग-अलग है। भारतीय योगियों का मत है कि आत्मा का रंग शुभ्र यानी पूर्ण सफेद होता है जबकि पाश्चात्य योगियों के अनुसार आत्मा बैंगनी रंग की होती है। कुछ ज्ञानीजन मानते हैं कि नीला रंग आज्ञा चक्र का एवं आत्मा का रंग है। नीले रंग के प्रकाश के रूप में आत्मा ही दिखाई पड़ती है और पीले रंग का प्रकाश आत्मा की उपस्थिति को सूचित करता है।”
श्रीमद्भागवद् गीता के एक श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत: ॥
अर्थात इस आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न अग्नि जला सकती है, न इसे जल गिला कर सकता है और न ही वायु इसे सुखा सकती है।
हिन्दू धर्म शास्त्रों में सामान्य मृत्यु और अकाल मृत्यु का वर्णन मिलता है। अकाल मृत्यु किसी दुर्घटना आदि के कारण वह मृत्यु मानी जाती है जिसमें आत्मा अपनी आयु पूरी नहीं कर पाती। अकाल मृत्यु ईश्वर का दंड माना गया है जिसमें व्यक्ति का शरीर तो छिन जाता है लेकिन उसकी आत्मा को परलोक में प्रवेश की इजाजत नहीं दी जाती है और जब तक उसकी वास्तविक मृत्यु का समय नहीं आता वह बिना शरीर के भटकता रहता है। शिव पुराण में कामदेव की कथा का जिक्र है जिसमें शिव जी द्वारा भष्म किए जाने के बाद कामदेव अशरीर होकर भटकते रहते हैं।
लेकिन वहीं कुछ ग्रंथों के अनुसार जब भी किसी की मृत्यु होती है, चाहे अकाल-मृत्यु हो या काल-मृत्यु हो, उसका जन्म तुरंत होता है। उसके कर्मानुसार जहाँ उसके कर्म का फल बनता है। प्रश्न यह है कि अगला जन्म किस योनि में होता है? उत्तर यह है कि जैसे उसके कर्म, वैसा जन्म होता है।
एक ओर जहां अकाल मृत्यु की मान्यता है वहीं दूसरी ओर एक पक्ष यह भी मानता है कि अकाल मृत्यु जैसी कोई चीज नहीं होती। व्यक्ति तभी मरता है जब उसका उसके संचित कर्म अथवा भाग्य अथवा प्रारब्ध द्वारा काल आता है।
बहुत गहराई से न जाते हुए आइए इसके वैज्ञानिक पक्ष को देखते हैं –
शास्त्रों के अनुसार जब यमदूत किसी के पास आते हैं तो उसे बहुत ही ठंड लगने लगती है और इंसान के गले से आवाज नहीं निकलती, शरीर का तापमान बहुत ही तेजी से गिरने लगता है। लंदन के सेंट जेम्स हॉस्पिटल के डॉक्टरों की टीम ने डॉक्टर डब्ल्यू जे किल्नर (Walter John Kilner St. Thomas Hospital, London) के शोध को उनकी किताब The Human Atmosphere के सहारे आगे बढ़ाते हुए खुलासा किया है कि जब भी किसी की मृत्यु हुई उससे कुछ क्षण पहले कमरे का तापमान कुछ डिग्री तक कम हो गया। शोध में यह बात भी सामने आई कि मृत्यु से पहले तथा बाद में शरीर का 20 से 30 ग्राम वजन कम हो जाता है।
कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के डॉक्टर लैरी ने तो पंचतत्वों को आधार बना कर अकाल मृत्यु, भूत/प्रेत आदि के सिद्धांत को प्रतिपादित किया जो काफी हद तक तर्कसंगत लगता है जिसके अनुसार – कभी – कभी अकाल मृत्यु में आत्मा पूर्ण रूप से पंचतत्वों से अलग नहीं हो पाती और किसी एक अथवा दो तत्वों के साथ ही उन तत्वों की प्रकृति के अनुसार ही बाकी की आयु पूर्ण करती है। अध्यात्म में भी आत्मा के तीन स्वरूप बताए गए हैं – जीवात्मा, प्रेतात्मा और सूक्ष्मात्मा। जो भौतिक शरीर में वास करती है उसे जीवात्मा कहते हैं। जब इस जीवात्मा का वासना और कामनामय शरीर में निवास होता है तब उसे प्रेतात्मा कहते हैं। यह आत्मा जब सूक्ष्मतम शरीर में प्रवेश करता है, उस उसे सूक्ष्मात्मा कहते हैं। आत्मा किसी भी प्रकार का शरीर धारण करने के बाद वह वैसी ही कहलाती है और उसकी प्रकृति के अनुसार ही कार्य करती है।
बहुत सुन्दर जानकारी दी है आपने
धन्यवाद ! 🙏🙏
बहुत अच्छे से आप ने धर्म अध्यात्म और विज्ञान का समागम किया। सभी पहलू पर पैनी दृष्टि डाली
धन्यवाद 🙏🙏