हिंदी दिवस की शुभकामना देकर सरकारी, गैरसरकारी या व्यक्तिगत तौर पर औपचारिकता पूरी जाती है। हिंदी का विस्तार किस प्रकार हो इनका विजन सरकार के पास नहीं है। हिंदी की स्वीकार्यता उत्तर भारत तक सीमित है।
क्षेत्रीय अस्मिता, भाषाई अस्मिता, जातीय अस्मिता राजनीति से प्रेरित है। भारत की स्वतंत्रता पर राजगोपालाचारी ने नेहरू से कहा था कि मद्रास प्रान्त में तुरंत हिंदी को लागू किया जाय। लेकिन नेहरू ने राष्ट्र भाषा के साथ लोकतांत्रिक फार्मूला लागू करना चाहा। १९५६ में श्रीरामलू द्वारा भाषा के आधार पर अलग आंध्र राज्य की मांग पर आमरण अनशन और उनकी मृत्यु ने क्षेत्रीय अस्मिता के साथ भाषाई भिन्नता को अधिरोपित किया।
१९६६ में लाल बहादुर शास्त्री के समय में एक बार पुनः भाषाई आंदोलन गर्माया किन्तु दक्षिण भारत में NTR, MGR, KGR के उभार ने भारत के अंदर कई भारत का सीमांकन किया, नाम दिया अस्मिता और अखंडता का। भाषाई एकरूपता नहीं होने से तमिलनाडु के सत्तारूढ़ पार्टी के नेता डी राजा अलग देश की मांग कर रहे हैं।
भाषाई संवाद आपस में अपनापन लाता है, भाषा नहीं जानने की वजह से भारत से बाहर रहने वाले भारतीय तमिल, मलयालम की जगह पाकिस्तानियों के ज्यादा नजदीक हैं क्योंकि उनकी भाषा उर्दू को दीगर जुबान हिंदी कहा जाता है।
स्वयं की राजनीति के लिए राष्ट्र भाषा सिर्फ उत्तर भारतीयों की भाषा बन गई है। गौरतलब है कि आगे आने वाले हिंदी बेल्ट को अंग्रेजी की तरफ ले जा रहा है। उत्तर भारत के हिंदी माध्यम के स्कूल की जगह इंग्लिश मीडियम के स्कूल लेते जा रहे हैं।
कोई भी चीज का एक व्यवहारिक पक्ष है उसकी उपादेयता। हिंदी से कोई आर्थिक लाभ नहीं है जबकि अंग्रेजी कामकाज की भाषा है। बड़े शहरों ने हिंदी भाषी को गंवार समझा है। इंग्लिश स्पीकिंग के कोर्स चल रहे हैं, जिससे पर्सनालिटी डेवलपमेंट किया जाता है। हिंदी बोले तो गये काम से।
हिंदी दिवस बिल्कुल मातृ – पितृ दिवस की तरह है। बधाई, शुभकामनाएँ बेचारगी लिए हैं; इसके कोई मायने नहीं हैं। इस दिन माता-पिता और राष्ट्रभाषा को चिढ़ाया जाता है, इसे श्रद्धांजली दिवस के रूप में मनाये जिसमें ईमानदारी का बोध हो सके।