हमें शिक्षा तो आधुनिक चाहिए लेकिन फल प्राचीन चाहिये। घूस चाहिए उसी से जल्दी नौकरी भी चाहिए। पढ़ाई में नकल चाहिए, पीएचडी करने में दूसरे के थीसिस की कापी। ऑफिस में काम न करना पड़े, लेकिन हर साल तनख्वाह जरुर बढ़नी चाहिए। आरक्षण भी लेंगे और योग्यता की दुहाई भी देंगे।
नेता आप के लिए कुछ करता है तो उसका मूल्य जरुर वसूल करता है, उसने सेवा के लिए राजनीति की डोर नहीं पकड़ी थी। अधिकतर पुलिस, प्रधान, अधिकारी और नेता भ्रष्ट हैं, उनके खिलाफ आवाज नहीं, जबकि उन्ही का साथ चाहिए। महिलाओं और बच्चियों के साथ हुये दुर्व्यवहार की खबरें देख के मुँह बनाएंगे फिर वैसे ही हो जायेगे क्योंकि उनके साथ बुरा अभी भी नहीं हुआ। नैतिकता की दुहाई तब, जब अपने पर बात आन पड़ी। जनता जाति के नाम पर वोट देगी और विकास की आशा लगायेगी। कितना कुछ घट जाय, क्या मजाल जो स्वयं का मूल्यांकन कर लें।
दोष किसका जिम्मेवार कौन? हम सभी अधिकार चाहते हैं लेकिन कर्तव्य से भागते हैं। आज जिसकी आलोचना करते नहीं थकते, कल पद मिलने पर वही करेंगे। जिसमें मेरा लाभ हो, ऐसी व्यवस्था और शिक्षा हो उसकी कीमत कौन चुकायेगा, बस ये न पुछिये। आज हम अपनी संस्कृति भूल, काले अंग्रेज बनते जा रहे हैं। सब का मूल्यांकन पैसे में कर रहें हैं। भ्रष्ट्राचार तो जिस दिन आप की मां और पत्नी ठान लेंगी, उसी दिन खत्म। बाकी तो कानून बहुत और भ्रस्टाचार भी बहुत।
समाज में पहले एक दूसरे के सहयोग या परस्पर भाई चारे के लिए दूसरे के यहाँ जाना होता था। अब इस लिए जाते हैं कि हम नहीं जायेंगे तो वह भी नहीं आएंगे। पूर्व में सम्बन्ध का आधार प्रेम था, अब सम्बन्ध जरूरत के आधार पर बनते हैं। याद रखिये बिना सामाजिक सुधार के कोई सुधार संभव नहीं है। आप जिस नियम का दूसरे देश या शहर में पालन करते हैं उसे अपने देश या शहर में तोड़ते नहीं सकुचाते हैं। स्वच्छता के लिए स्वयं से जागरूक हो सकते है। लेकिन:
कातर मन भये आधारा ।
दैव दैव आलसी पुकारा । ।
हम सब करने को तैयार हैं सिवाय गरीब के पीठ से उतरने को। किसी भी सुधार के लिए पार्लियामेंट और नेता की तरफ झांकते हैं। आप स्वयं क्या हैं एक उपभोग करने वाली इकाई या मनुष्य जिसमें आत्मा रहती है? निर्णय करिये फिर मिलते है।