मानवता मनुष्य का जन्मजात गुण है जो मनुष्य में सोचने और समझने की शक्ति के साथ ही विकसित होने लगती है। दया, करुणा, सहानुभूति – यह सभी मानवता के आयाम है, लेकिन केवल आयाम। मानवता का अर्थ इनसे कहीं अधिक व्यापक है। मनुष्य से इतर अन्य जीव जंतुओं में किंचित दया, करुणा की भावना देखने को मिल जाती है लेकिन मानवता का गुण केवल मनुष्य में ही होता है।
मानवता का अर्थ ‘मनुष्यपन’ है। वास्तव में मानवता का अर्थ ‘मनु के कुल में उत्पन्न’ है। अर्थात ‘मानवता का अर्थ ‘मनु के कुल की शोभा बढ़ाने वाला आचरण करने वाले मनुष्य का मनुष्यपन’ है। हमें आज ‘मानवता’ का अर्थ ‘मनुष्यपन’ ही ध्यान में रखना है और यह मनुष्यपन मनुष्य में किस रीति से विकसित होता है, इसपर विचार करना है।
मनुष्य के नाम जन, लोक, मनुष्य, नर इत्यादि वेदों में आये हैं। ये नाम मनुष्य की श्रेणी बताते हैं। कैसे?
१. ‘जन’ का अर्थ ‘प्रजनन करने वाला’ है। यह अपने सदृश्य द्विपाद मानव उत्पन्न कर सकता है। इससे अधिक इसकी योग्यता नहीं है। वेदों में ‘आत्महनो जनाः’ (यजु० अ० ४०/३) – आत्मघाती जन होते हैं ऐसी बात जनों के विषय में कही गई है।
२. ‘लोक’ (लोकृ दर्शने) – ये लोग केवल देखते हैं, आत्मोद्धार के मार्ग पर उन्नति नहीं करते।
३. ‘मनुष्य’ (मननान्मनुष्यः । निरुक्त) – मनन करने वाला होने से वह मनुष्य है। यह मनन करके सत्य बात जान सकता है।
४. ‘नर’ (न रमते । नरति इति नरः) – जो भोगों में रमता नहीं तथा अनेक अनुयायियों को शुभमार्ग से संचालित करता है, वह ‘नर’ है। वेद में कहा गया है – ‘न कर्म लिप्यते नरे’ (यजु० ४०/२) नर को कर्म का लेप (विकार) नहीं होता, वह निर्लेप रहता है।
वेद यूं नहीं कहता – ‘न कर्म लिप्यते जने’ परंतु यही कहता है – ‘न कर्म लिप्यते नरे’। इससे नर की श्रेणी श्रेष्ठ है, यह स्पष्ट होता है। मानवता का विकास किस तरह होता है यह ‘जन’, ‘लोक’, ‘मनुष्य’, ‘नर’ – इन पदों को देखने से स्पष्ट हो जाता है।
पृथ्वी पर के लोग ‘जनश्रेणी’ में हैं, उन्हें ‘नरश्रेणी’ में लाना चाहिए। जनश्रेणी के लोगों में मानवता का ह्रास होता है और नरश्रेणी के लोगों में मानवता की उन्नति होती है। इसलिए जो ऐसी इच्छा करते हैं कि मानवता उन्नत हो, उनको ऐसा यत्न करना चाहिए कि जनश्रेणी के लोगों का बहुमत न रहे, नरश्रेणी के लोगों का बहुमत हो। यह कैसे किया जाए, इसपर विचार करना चाहिए।
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जगत में तीन प्रकार के लोग हैं –
१. परमेश्वर को न मानने वाले
२. परमेश्वर को सातवें आसमान में मानने वाले और
३. परमेश्वर को सर्वत्र उपस्थित मानने वाले।
परमेश्वर की न मानने वाले सर्व तंत्र स्वतंत्र रह सकते हैं। उनके लिए कोई नियामक नहीं है। वे स्वेच्छाचारी रहते हैं। दूसरी श्रेणी के अर्थात सातवें आसमान में ईश्वर को मानने वाले लोगों के लिए भी यहां कोई देखने वाला न रहने के कारण वे स्वेच्छाचारी हो सकते हैं। इन दो प्रकार के लोगों की इस जगत में बहुसंख्या है और ऐसे लोग ही इस समय महाशक्तिशाली हैं। इसीकारण मानवता का ह्रास हो रहा है और सभी लोग संत्रस्त हो रहे हैं।
परमेश्वर को सर्वव्यापक – अपने सभी ओर उपस्थित मानने वाले परमेश्वर को सदा सर्वत्र अपने समीप मानते हैं। इसकारण वे बुरा कार्य नहीं कर सकते।
ईशा वास्यमिदंसर्व यत्किं च जगत्यां जगत्। (यजु० ४०/१ । ईशो प० १)
‘जो कुछ यहां है, उसमें परमेश्वर पूर्णरूप से ओत प्रोत – भरा है।’ जो मनुष्य इसको ठीक तरह समझेगा, उसमें मानवता विकसित हो सकेगी। जो मनुष्य अपने अंदर और बाहर सर्वत्र सर्वज्ञ सर्वेश्वर को उपस्थित जानेगा, वह जानबूझ कर बुरा कार्य कर ही नहीं सकेगा और उसके अंदर मानवता विकसित होगी।
परमेश्वर दूसरे कमरे में या तीसरे मंजिल पर है, ऐसा मानना और बात है और परमेश्वर अपने अंदर और बाहर सदा उपस्थित है, यह मानना और बात है।
मानवता का विकास हो, इसके लिए ‘परमेश्वर की सर्व व्यापकता’ को निश्चय रूप से मानने की आवश्यकता है। भारतीय ऋषियों ने परमेश्वर की सर्वव्यापकता मान कर मानवता के विकास की उत्कृष्ट भूमिका रची थी पर इसका विश्व भर में संचार करने के लिए इस ज्ञान के प्रचारक जितने होने चाहिए, उतने इस समय नहीं हैं। इसी कारण विश्व भर में मानवता का ह्रास हो रहा है। अर्थात इसका उत्तरदायित्व ऋषि-संतानों पर है।
वसुधैव कुटुम्बकम :
वसुधा को कुटुम्ब मानना भी मानवता के विकास में सहायक है। पर एक कुटुम्ब के लोग आपस में लड़ते हैं, यह हम देखते हैं। कौरव-पाण्डव भाई थे, पर वे लड़े और साथ ही उन्होंने भारत के वीर तरुणों का भी संहार किया। इसलिए ‘पृथ्वी पर के सब मानव एक कुटुम्ब के कुटुम्बी हैं’ यूं मानने से कार्य नहीं चलेगा। इतिहास भाई – भाई के बैर से भरा है। वेद ने एक और बड़ा सिद्धांत मानवता के विकास के लिए कहा है, वह है –
विश्व मानव एक पुरुष :
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्।
स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशांगुलमं॥ – ऋग्वेद १०/९०/१
‘जिसके हजारों सिर, आंख और पांव हैं, ऐसा पुरुष पृथ्वी के चारों ओर है।’ जितने मनुष्य हैं, उतने सिर, बाहु, उदर, पांव इस पुरुष के हैं। यह पुरुष पृथ्वी के चारों ओर है।
यह ‘एक पुरुष’ है, जिसमें सम्पूर्ण मानव जाति सम्मिलित है। सारी मानव जाति मिलकर एक विराट् देह है। प्रत्येक मनुष्य समझे कि मैं इस देह का एक अवयव या भाग हूँ। अर्थात सम्पूर्ण मानवजाति रूप एक पुरुष है, सब मानव उसके सिर, हाथ, पेट, पांव हैं। कोई भी मनुष्य इस पुरुष के शरीर से बाहर नहीं है। यह ज्ञान विश्वशांति फैलाने वाला और मानवता का विकास करने वाला है। पर इस वैदिक ज्ञान के प्रचारक आज नहीं हैं।
जिस प्रकार एक शरीर में सिर, हाथ, पेट, पांव – ये अवयव हैं अर्थात ये सम्पूर्ण शरीर की स्वस्थता के लिए यत्न करते हैं, उसी तरह विश्व मानव रूपी एक विराट् पुरुष है; ज्ञानी, शूर, व्यापारी, कर्मचारी – ये सब इस विराट् मानव के अवयव हैं। इसलिए इनको ‘अखिल-मानव-पुरुष की स्वस्थ अवस्था’ टिकाने के लिए आत्मसमर्पण करना चाहिए।
आज देश – देश में युद्ध है। यह न होकर ‘सभी देश मिलकर एक मानव समष्टि देह है’ ऐसा ज्ञान सबको होना चाहिए। तब मानवता का विकास होगा और हर ओर पृथ्वी पर स्वर्ग का अनुभव होगा।
पर इस वैदिक ज्ञान का प्रचार करने वाले कहाँ हैं? प्रचारकों के बिना यह दिव्य सिद्धांत चारों दिशाओं में रहने वाले जान भी कैसे सकते हैं।
आपके पोस्ट देखकर हम सद्विचारों में खो जाते है, इसलिये गीता महात्म्य का वर्णन करने लग जाते है, जबकी कमेन्ट पोस्ट पर ही करना चाहिये। लेकिन अच्छे विचारों से हृदय भर जाने से, गीता के महात्म्य ही वर्णन करने लग जाते है। सत्संगति,सद्विचार से कल्याण स्वतःसिद्ध,कल्याण सहज लगता है। मनुष्यजन्म सफल हो।
परमकल्याणकारी ज्ञानवर्धक पोस्ट नित्यवृद्धि को प्राप्त हो। मानवता का प्रसार हो, दया और न्यायप्रियता का सामंजस्य से कल्याण सहज है। कल्याण स्वतःसिद्ध है।
गीता 06.22 वाला उपलब्धि अथवा गीता 18.73 वाला उपलब्धि के बाद व्यक्ति सदा के लिये तुच्छता,एकदेशियता से बचकर सर्वथा बुराईरहित होकर मानवता,परहित में एकतरफा लग सकता है। लेकिन हमारी स्थिति अभी गीता 02.09 में अटकी है। इससे अभी उम्मीद अनुसार ध्येय सिद्ध नहीं हो रहा है। 🙏आप सदा ब्रह्मविचार, मानवता, कर्मवाद,परहित आदि में लगे रहते है, आपके कल्याणकारी पोस्ट नित्यवृद्धि को प्राप्त हो। #ब्रह्मविचार प्रचारा 🙏🙏