श्रावण मास शिव जी को समर्पित महीना है। इस माह शिवजी का जलाभिषेक किया जाता है। प्रकृति पूरी तरह हरी – भरी दिखती है। सावन के महीने में पुत्रियाँ ससुराल से अपने मायके आती हैं। गुड्डे – गुड़ियों के खेल होते हैं, पेडों पर झूले पड़ते हैं और साथ ही सावन के गीत बड़े झूम के गाये जाते हैं। पूरा वातावरण गीतों से गुंजायमान रहता है।
झुलना पड़ा यार तेरी बगिया हम सब झूलन अइबे न।
ऐसा एक सखी कजरी (गीत) के माध्यम से दूसरे सखी को बताती है। बेटियों के पिता के घर आने से, वहाँ की रौनक बढ़ जाती है तरह – तरह के पकवान बनते हैं। नागपंचमी पर गुझियों का स्वाद होली से ज्यादा मीठा रहता है। नागपंचमी से हिंदुओं के त्यौहारों की शुरुआत होती है जो होली पर जा कर समाप्त होती है। पुनः नये वर्ष में यही चक्र चलता है।
श्रावण माष में नागदेवता की पूजा बड़े विधि – विधान के साथ की जाती है। बहनें भाइयों के लिए गुड़िया गांव के मैदान में फेंकने जाती हैं। भाई गुड़िया की पिटाई डंडे से करते हैं। फिर पिट चुकी गुड़ियों को जल में प्रवाहित कर दिया जाता था। गांवों के मैदानों में मेले जैसा उत्सव रहता है। पुरुष आखड़े और कुश्ती में जोर आजमाइश करते हैं। कुश्ती और गुड़िया के कार्यक्रम के बाद बहनें अपने भाइयों को पान (ताम्बूल) खिलाती हैं। हर्षोल्लास के बीच सभी अपने परिजन के साथ घर लौट आते हैं। बहनें झूले झूलना शुरू करती हैं, एक बार फिर सावन के गीतों से गांव झूम उठते हैं।
राधे चली दुहावन गैय्या दुह दो कृष्ण कन्हैया न।
नागपंचमी के दूसरे दिन बहनें गाजे – बाजे के साथ गांव के बाहर मिट्टी लेने जाती हैं, उसी मिट्टी में जौ उगाया जाता है जिसे हर तालिका तीज पर प्रवाहित किया जाता है।
लेकिन अब हमारे यह स्थानीय पर्व धीरे – धीरे टीवी, सोशल मीडिया और आधुनिकता की चकाचौंध में गायब होते जा रहे हैं। पहले छोटे उत्सवों जिन पर पूरा गांव इकट्ठा हो जाता था अब नये ज़माने में ऐसा कोई त्यौहार नहीं जिस पर पूरा गांव इकट्ठा हो सके। हमारी प्राचीन परंपरा विलुप्त होती जा रही है। उसका एक कारण है कि पहले त्योहार कृषि को प्रोत्साहित करते थे, उनसे गहरा जुड़ाव था। हमारे त्योहार में जानवरों को भी महत्व दिया जाता था। लेकिन अब न किसानों का किसी को ध्यान है और न जानवरों की सुधि। सबकी दौड़ चाकर बनने और शहरों में बसने की हो गयी है।
शिक्षा, सोच, सुख, समाज, संस्कार और सम्बन्ध सब बदल गये हैं। शहरी सोच और सब नसैइया शराब सब पर हावी है। सामुदायिकता का क्षरण और अधिकेंद्रण देहात्म में हो चुका है। उत्सव, त्यौहार के मायने हमारे लिए बदल गये हैं। श्रावण, कार्तिक, मार्गशीर्ष भले नहीं पता हों पब, सिनेमा, बार, न्यूक्लियर परिवार क्रिसमस और ईद का त्यौहार हमें अलबत्ता अच्छे से याद है।
नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।
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