मेरी प्रिय सखी जब से तुम बीमार हो तब से ये मन भी मुरझा सा गया है। इसकी ऊर्जा भी कही खो गई। मनुष्य का सामर्थ्य बीमारियों के आगे घुटने टेक देता है। मेरी जो मुस्कान थी वह भी जाती रही है। मन कहता है अब किसके लिए हँसे? एक भूख है जो मानती नहीं है। यह प्रेम का न गुबार है न ही उभार, यह अनुभूति की सीमा है।
ये मन बार – बार प्रेम कर नहीं सकता है। जब एक को अपना मान लिया है, दूजे का रंग भी चढ़ पाता है। जीवन है लोग आते – जाते हैं, तुन्हें और हमें प्रभावित भी करते हैं। लेकिन ये प्रेम की चादरिया सब बुन नहीं सकते है। आज प्रेम एक पतंग जैसे ही हो गया है, जिसको देखो पतंगा बना वही उड़ा रहा है किंतु उस जीवन की पतवार को कौन चलायेगा?
तुम्हारे बिना जीना भी कैसा होगा ? यह आत्मा तो कब से तुम्हारी आत्मा में मिल गई है। शरीर हो सकता इस जन्म में न सही किसी और जन्म में मिलना हो लेकिन यहाँ तो मामला शरीर के ऊपर का है। बात शरीर की होती तो कब की पूरी हो जाती। यह आत्मिक से आध्यात्मिक की ओर उत्तरोत्तर वृध्दि है।
पंचतत्व, ज्ञानेन्द्रिया, कर्मेन्द्रियों, मन, चित, बुद्धि और अहंकार की जो यह सतत प्रक्रिया आत्मा की ओर बढ़ने की है, कुछ इसी तरह का मेरा प्रेम है जहाँ द्वैत नहीं अद्वैत है। हम-तुम, स्त्री-पुरुष का भेद नहीं है। जो तुम हो वही मैं हूँ, जो मैं हूं वही तुम हो।
सखी! तुम्हारे अपने स्वतंत्र विचार हैं जिस पर चलती हो। किन्तु मेरा मन ही ऐसा है “उद्धव ये मन नहीं दो चार एक था जो श्याम संग चलो गयो”। वही गति मेरी है। वही पीर मेरी है। मेरा कोई वश नहीं चलता, नहीं तो अपनी उम्र आप को दे देते। आपके हिस्से का दुःख मैं ले लेता।
तुम्हें बड़े और जनहित के काम भी करने हैं। एक अच्छी सोच को विस्तार भी देना है। एक आशा है जो कि तरंगों को ऊर्जा से भर देती है। कोई धोखा, कोई भ्रम, कोई मोह कहता है फिर भी ऐसा कुछ नहीं है। मैं किन्तु, परन्तु या स्वप्नलोकीय प्राणी नहीं हूं। मनुष्य वही है जो डट कर सामना करें।
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई ।
जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई।।
Hraday ki aavaj jo man ko sarabor kar de
अहो❗ शोभनीय
Very Nice Letter
Gajab ki chitthi hai