“माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः पर्जन्यः पिता स उ नः पिपर्तु॥”
अर्थ है यह भूमि (पृथ्वी) हमारी माता है और हम सब इसके पुत्र हैं। ‘पर्जन्य’ अर्थात मेघ हमारे पिता हैं। और ये दोनों मिल कर हमारा ‘पिपर्तु’ अर्थात पालन करते हैं। यह अथर्ववेद के १२वें कांड, सूक्त १ की १२वीं ऋचा है।
पुनः आगे कहा गया है – “यस्यां वेदिं परिगृह्णन्ति भूम्यां यस्यां यज्ञं तन्वते विश्वकर्माणः।” – अथर्ववेद १२.१.१३
अर्थात इस भूमि पर हम ‘विश्वकर्माण’ अर्थात सृजनशील मनुष्य यज्ञवेदियों का निर्माण करके यज्ञों का विस्तार करने वाले बने।
यज्ञ आहुति द्वारा ही भूमि और मेघ मिल कर हमारा पालन करते हैं, हम सृजनशील मनुष्यों को इसका लोक कल्याण के हेतु विस्तार करना है।
अब प्रश्न है कि यज्ञ किसे कहते हैं?
शतपथब्राह्मण में कहा गया है : “यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म” अर्थात समस्त कर्मों में जो श्रेष्ठ कर्म है वह यज्ञ है। यज्ञ यज् धातु से बना है जिसका अर्थ है – देवपूजा, संगतिकरण और दान।
यथा ‘यजन देवानां पूजनं सत्कार भावनं यज्ञः’ – देवो का पूजा सत्कार भाव यज्ञ है।
‘यजनं यथा शक्ति देश काल पात्रादि विचार पुरस्पर द्रव्यादि त्यागः’ अर्थात देश काल पात्र का विचार करके जो धन दिया जाता है उसे यज्ञ कहते हैं।
छान्दोग्योपनिषद में आरुणि पुत्र श्वेतकेतु और जीवल पुत्र प्रवाहण के बीच के वार्तालाप से यह ज्ञान होता है कि भूमि और ‘पर्जन्य’- मेघ किस प्रकार से हमारे लिए माता-पिता सिद्ध होते हैं।
प्रवाहण द्वारा श्वेतकेतु से पूछे गए पाँच प्रश्नों में पांचवा प्रश्न था कि “पांचवीं आहुति के हवन कर दिए जाने पर ‘जल’ पुरुष संज्ञा को कैसे प्राप्त कर लेता है?”
श्वेतकेतु को पांचों प्रश्नों का उत्तर नहीं ज्ञात होने पर प्रवाहण उत्तर देते हैं। वे सबसे पहले पांचवे प्रश्न का ही उत्तर देते हैं क्योंकि इसे जान लेने से बाकी प्रश्नों का उत्तर समझना सरल हो जाता, इस लेख में हम केवल पांचवे प्रश्न की ही चर्चा करेंगे। राजा प्रवाहण बताते हैं :
द्युलोक अग्नि रूप में देवगण द्वारा श्रद्धारूपी जल की पहली आहुति हैं। उस हवन से राजा सोम की उत्पत्ति होती है। (इस प्रकार किसी भी यज्ञ में श्रद्धा ही जल कही गई है अर्थात श्रद्धा प्रथम हेतु है तथा श्रद्धा से ही लोग सामग्री आदि जुटाकर हवन करते हैं।)
इसके बाद पर्जन्य अर्थात मेघ अग्निरूप में राजा सोमरूपी जल की दूसरी आहुति का हवन करने से वर्षा की उत्पत्ति होती है।
तीसरी आहुति में माता पृथ्वी अग्निरूप होती है, जिसमें वर्षारूपी जल का हवन करने से अन्न की उत्पत्ति होती है। (जिससे पृथ्वी पर समस्त जीवों का भरण-पोषण होता है, इस कारण ही भूमि को माता और मेघ को पिता कहा गया है।)
चौथी आहुति में पुरुष अग्निरूप बनता है और उसमें देवगणों द्वारा अन्नरूपी जल का हवन करने से वीर्य की उत्पत्ति होती है।
अंत में पांचवी आहुति में स्त्री अग्नि बनती है जिसमें वीर्य रूप जल का हवन करने से गर्भ की उत्पत्ति बताकर कहा गया है कि ‘इस तरह यह जल पांचवी आहुति में पुरुष संज्ञक होता है।’
इस प्रकार पांच प्रकार की अग्नि में आहुति से पुरुष का जन्म होता है, आगे वह अनेक यज्ञवेदियों का निर्माण करके लोक कल्याण हेतु ‘यज्ञं तन्वते’ अर्थात यज्ञ का विस्तार देने वाला बनता है। “यस्यां वेदिं परिगृह्णन्ति भूम्यां यस्यां यज्ञं तन्वते विश्वकर्माणः।”
यह जो पृथ्वी माता हैं, यह मात्र मनुष्यों की ही नहीं अपितु समस्त प्राणियों का पालन-पोषण सामान रूप से करती हैं। उसकी दृष्टि में सभी एक समान ही हैं। इस समानता को स्थापित करने के लिए श्रुति मनुष्य तथा पशुओं के लिए ‘द्वीपद’ और ‘चतुष्पद’ शब्द का प्रयोग करती है।
“त्वज्जातास्त्वयि चरन्ति मर्त्यास्त्वं बिभर्षि द्विपदस्त्वं चतुष्पदः।” अथर्ववेद १२.१.१५
अर्थात हे पृथ्वी माता! जो प्राणी (त्वत् जाताः) तुझसे उत्पन्न, और तुझपर ही (चरन्ति) विचरते हैं। उन (द्वीपदः) दो पैर वाले मनुष्यों और (चतुष्पदः) चार पैरो वाले पशुओं का (बिभर्षि) भरण-पोषण करती हो।
मनुष्य को अपने चित्त में सदा इस बात को रखते हुए कर्म करना चाहिए कि इस पृथ्वी पर जितना अधिकार हमारा है; उतना ही अधिकार सभी प्राणियों का है और इस तरह से सामंजस्य बनाकर रहना ही सुरक्षित, सुदृढ़ और विकसित भविष्य की आधारशिला है।
Very nice explanation. Thank you. 🙏