न वै मृत्य:

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न वै मृत्य:, मृत्यु है ही नहीं। मृत्यु व्याघ्र के समान प्राणियों का भक्षण नहीं करती है, इसका कोई रूप नहीं देखा जाता है, अतः मृत्यु तो है ही नहीं। वास्तव में प्रमादसंज्ञक अज्ञान ही मृत्यु है, इसी से जीव मोह को प्राप्त होते हैं और इस संसार में पुनः-पुनः शरीर धारण करते हैं। — महाभारत

अपने सम्पूर्ण संकल्पों का रूपांतर में स्थित रहना ही मृत्यु है। — श्रीयोगवासिष्ठ

यह लोक और वेद में प्रसिद्ध है कि मृत प्राणियों के प्राण आकाश में उत्क्रमण करते हैं। शरीर से निकले प्राणवायु बाह्य आकाश में पवनों के साथ ऐसे मिल जाते हैं जैसे नदियों के जल समुद्र में मिल जाते हैं। शरीर में ही आत्मा के उत्क्रमणकाल से ही कृष्णमार्ग या शुक्लमार्ग का आरंभ हो जाता है। यह आत्मा किस मार्ग को चुनेगा यह कर्म, नाड़ी, दिक्, आकाश और काल पर निर्भर करता है।

१. कर्म — “यथाप्रज्ञं हि संभवा:” — जन्म अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार हुआ करते हैं।

प्रत्येक जीव अपने शरीर व इंद्रिय के कारण कुछ न कुछ कर्म अवश्य करता है, और प्रत्येक कर्म का प्रभाव उसकी आत्मा पर पड़ता है, इसी प्रभाव को संस्कार कहते हैं। यदि संस्कार दैव प्राणों का संग्रह करने वाला होता है, तो उस कर्म को पुण्य कर्म कहते हैं। यदि वह संस्कार आसुर प्राण से बना हुआ है, तो उसे पाप कर्म कहते हैं। पुण्य के बल से आत्मा हल्का होता है और वह देवता की ओर ऊपर जाना चाहता है — यही शुक्ल मार्ग है।

पाप कर्म से आत्मा भारी होता है, कृष्ण हो जाता है, वह पृथ्वी की ओर नीचे ही गिरना चाहता है, इसलिए पाप को पातक अर्थात नीचे गिरने वाला कहा जाता है। यही कृष्ण मार्ग है।

२. नाड़ी — “तस्य हृदयस्याग्रं प्रद्योतते तेन प्रद्योतेनैष आत्मा” — उसके हृदय का अग्र भाग प्रकाशित होता है, उससे यह आत्मा (नेत्रों से, सिर से अथवा अन्यान्य शरीर भागों से) निकलता है। — बृहदारण्यक उपनिषद

जिस प्रकार सूर्य के चारों ओर सूक्ष्मातिसूक्ष्म रश्मियां फैली हुई दिखती हैं, उसी प्रकार इस आत्मा के प्रतिष्ठा स्थान हृदय में चारों ओर सूक्ष्मातिसूक्ष्म ‘हिता’ नाम की १०१ नाड़ियाँ चारों ओर शरीर में फैली रहती हैं। वे निरंतर सूर्य से निकली हैं और इन नाड़ियों में व्याप्त हैं, तथा जो इन नाड़ियों से निकलती हैं वे इस सूर्य में व्याप्त हैं (छान्दोग्योपनिषद)। इन नाड़ियों में हृदय से ऊपर मस्तक तक नाड़ी की सब शाखाएं शुक्ल मार्ग हैं और हृदय से नीचे मूलाधार तक सब शाखाएं कृष्ण मार्ग हैं। हृदय से उत्क्रमण करती हुई आत्मा यदि ऊपर की नाड़ियों से गमन करे तो वह शुक्ल मार्ग से जाता है (विद्वानों के लिये), और नीचे की नाड़ी से उत्क्रमण करती हुई आत्मा कृष्ण मार्ग से जाता है (अविद्वानों के लिए)।

मुख, नेत्र, नासिक, कान, गुदा और मूत्रनली — ये सभी छिद्र अण्डज आदि जीवों के शरीर में विद्यमान रहते हैं, नाभि से मूर्धा पर्यंत शरीर में आठ छिद्र हैं। जो सत्कर्म करने वाले पुण्यात्मा हैं, उनके प्राण शरीर के ऊर्ध्व छिद्रों से निकलकर परलोक जाते हैं। जितनी देर में मन जाता है, उतनी ही देर में यह आदित्य लोक जाता है।

सन्तः सुकृतिनो मर्त्या ऊर्ध्वच्छिद्रेण यान्ति वै। — गरुडपुराण

मृत्यु के समय शरीर में प्रवाहित वायु प्रकुपित होकर तीव्र गति को प्राप्त करता है, उसी की शक्ति से अग्नि तत्त्व भी कुपित हो उठता है। यह ऊष्मा प्राणी के मर्मस्थानों को भेदन करने लगती है, जिसके कारण (पापी व कुकर्मी) लोगों को अत्यंत कष्ट की अनुभूति होती है। परंतु भक्तजनों एवं भोग में अनासक्त जनों की अधोगति का निरोध करने वाला ‘उदान’ नामक वायु ऊर्ध्वगति वाला हो जाता है।

उदाहरण के लिए महाभारत में भीष्म पितामह योगयुक्त होकर अपने प्राण को ऊपर चढ़ाने लगे, उन्होंने अपने शरीर के सभी द्वारों को बंद करके प्राण को सब ओर से रोक लिया। इसलिए उनका प्राण ब्रह्मरंध्र से निकलकर उल्का की भांति आकाश में गया और क्षणभर में अन्तर्धान हो गया।

३. दिक्: आत्मा पृथ्वी से उत्क्रमण होने पर किस ओर गति करते हैं, दो मार्ग हैं- उत्तर और दक्षिण। उष्णकटिबन्ध (equatorial area) अत्यधिक उष्ण रहने से अर्थात सूर्य किरणों के दबाव के कारण अगम्य है। शीतकटिबन्ध (दोनों ध्रुवों के पास) वक्रमार्ग होने के कारण आत्मा अगम्य है। इन दोनों के बीच से होकर ही आत्मा जा सकता है, जिसे मध्यकटिबंध (temperatezone) कहते हैं। ये मध्यकटिबंध दो हैं, उत्तर और दक्षिण। वायु पुराण के अनुसार सप्तर्षि के दक्षिण एवं नागवीथी से उत्तर का मार्ग देवयान मार्ग (शुक्ल) है। अगस्त्य तारे से उत्तर तथा अजवीथी से दक्षिण का मार्ग पितृमार्ग (कृष्ण) है।

४. आकाश: आकाश में सूर्य अपने चारों ओर किरणों को फैलाता है जिससे प्रकाश का एक अतिविशाल मण्डल बनता है, यही ब्रह्माण्ड कहलाता है। जहाँ पर यह प्रकाशलोक समाप्त होता है उसे लोकालोक कहा जाता है। लोकालोक वह सीमा है जिसके भीतर प्रकाश (लोक) है और जिसके आगे अंधकार (अलोक) है। पृथ्वी से सूर्य तक जहाँ प्रकाश है वह इस ब्रह्माण्ड का शिर कहा जाता है (उच्च स्थान), दूसरा पृथ्वी से लोकालोक की ओर जिसे पाँव कहा जाता है (निम्न स्थान)। ऊंचा आकाश जो सूर्य की ओर है वह उत्तर मार्ग है, इसे ही ऊर्ध्वगति कहते हैं। पृथ्वी से लोकालोक की ओर दक्षिण मार्ग है जिसे अधम मार्ग अथवा अधोगति कहते हैं।

नोट-लोकों के क्रम को इस प्रकार समझें :

(ऊपर) ईश्वर — सूर्य — पृथ्वी (चन्द्र) — यम — लोकालोक (नीचे)

५. काल: शुक्ल व कृष्ण मार्ग के ५-५ पर्व नियत हैं, ये कालवाचक होते हैं तथा वास्तव में यह उन कालों में अग्नि व सोम की स्थिति को बताते हैं।

शुक्लमार्ग — अर्चि, दिन, शुक्लपक्ष, उत्तरायण, सूर्य संवत्सर

कृष्णमार्ग — धूम, रात्रि, कृष्णपक्ष, दक्षिणायन, चन्द्र संवत्सर

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