अमेरिका अफगानिस्तान से तालिबान को लेकर समझौता करके वापस जा रहा है और तालिबान बहुत तेजी से शहरों पर नियंत्रण स्थापित करते जा रहा है। एक बार पुनः अफगानिस्तान को आतंकवादियों के हाथों सौंपा जा रहा है। सवाल यह है कि अमेरिका का इतना लंबा अभियान, जिसे 2001 में शुरू किया गया था, वह अचानक कैसे खत्म हो गया?
2008 में बराक ओबामा के राष्ट्रपति बनते ही उन पर अमेरिकी सैनिकों को अफगानिस्तान से हटाने के दबाव के बावजूद उन्होंने अभियान को जारी रखा था। डोनाल्ड ट्रंप भी अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों को बनाएं रखने के पक्षधर थे। लेकिन वर्तमान राष्ट्रपति वाइडेन का घरेलू दबाव में आकर अफगानिस्तान से सैनिकों की वापसी का कदम बहुत एक बड़ी गलती साबित होने जा रही है।
भारत में अफगानी राजदूत फरीद मंमुडगे ने बड़े विश्वास के साथ कहा है कि भविष्य में भारत को अफगानिस्तान में तालिबान के खिलाफ सैनिक मदद करनी होगी।
अमेरिका को जब अफगानिस्तान नीति में फायदा कम नुकसान ज्यादा नजर आया तो वो गुड टेरिरिज्म और बैड टेरिरिज्म की बात करने लगा। आखिरकार तालिबानियों से समझौता करके बात सैनिक वापसी तक पहुँच गई जबकि वहीं पूर्व राष्ट्रपति जार्ज डब्लू बुश कह रहे हैं कि यह अमेरिका का एक खतरनाक कदम है जो कि अफगानिस्तानियों को क्रूर तालिबानियों के चंगुल में छोड़ने जैसा है।
सबसे ज्यादा चिंताजनक स्थिति भारत के लिए है, अभी तक की अफगान सरकार भारत की मित्र रही है तो वहीं तालिबान का नाम कंधार विमान अपहरण में जुड़ा हुआ है, जिसमें विमान को हाईजैक करके कंधार ले जाया गया था।
भारत की सीमा पर पुनः आतंकवाद की खेती शुरू होगी। पाकिस्तान की ISI और तालिबान का रिश्ता बहुत पुराना है। अफगानिस्तान में चुनी हुई सरकार और आम नागरिकों के लिए यह बहुत कठिन समय है। वहां पुनः शरिया शासन का दौर चलेगा। अफगानिस्तान के विदेश मंत्री ने भारत के विदेशमंत्री एस. जयशंकर से अपनी चिंता व्यक्त की है। आतंकवाद का एक ट्रायंगल बनता नजर आ रहा है ISI, तालिबान और ISIS का। अमेरिका और भारत की अपेक्षा यहाँ चीन जरूर लाभ की स्थिति में रहेगा।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान भी अफगानिस्तान में तालिबान के शासन की वकालत कर रहे हैं। खैबर पख्तून के सांसद का कहना है कि अफगानिस्तान में पाकिस्तान का पूरा इंट्रेस्ट है क्योंकि इमरान खान चाहते हैं कि चुनी हुई सरकार न रहे, आतंक और शरिया लौटे और यह अल्लाह की मर्जी है।
वैश्विक राजनीति में कब परिवर्तन हो जाये यह महाशक्तियों के स्वार्थ तय करते हैं। भारत की स्थिति यह है कि वह चाह कर भी अफगानिस्तान की लोकतांत्रिक सरकार की मदद नहीं कर सकती है। ठीक उसी तरह जैसे म्यामांर में आन शान सूकी की चुनी सरकार को मदद नहीं कर पाए।
यदि महाशक्ति बनना चाहते हैं तो भारत को अपनी विदेश नीति में परिवर्तन लाना होगा। पड़ोसी देश की अस्थिरता से भारत पर प्रभाव पड़ता है जिसका उदाहरण बंगलादेश, नेपाल, अफगानिस्तान और म्यामांर है। जहां से शरणार्थी अच्छी तादाद में भारत का रुख करते रहते हैं। भारत अपने हितों के लिए सक्रिय भूमिका निभाए। अपने मित्र पड़ोसी देश में हर तरह की मदद मुहैया करे।
भारत की स्थिति विश्व अखाड़े में उस पहलवान की तरह है जो लगोंट बार – बार टाइट तो करता है किंतु अखाड़े में नहीं उतरता। चीन जीते या अमेरिका इससे भारत की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं होगा। क्योंकि वह आखड़े में उतरा ही नहीं। भारत ने गुट निरपेक्ष की नीति का कब का त्याग कर दिया है।
भारत को अमेरिका के दबाव में तालिबानी पीस डेलिगेशन से नहीं मिलना चाहिए था। 2001 में अमेरिका भारत से पूछकर अफगानिस्तान नहीं आया था, यह स्मरण रहना चाहिए। अफगानिस्तान में भारत द्वारा किया गया बहुत बड़ा इन्वेस्टमेंट बेकार हो जायेगा। वैसे भी भारत अपने प्रतिनिधियों को वापस बुला रहा है। भारत किंचित भूल गया है कि युद्ध से वीरों के भाग्य बदलते हैं।
कुटिनीति, विदेशनीति अपने देश को लाभ पहुँचाने की होनी चाहिए। कृष्ण और चाणक्य के देश में शांति और युद्ध दोनों का विकल्प सदा खुला रहना चाहिए।
भारत का जोर सक्रिय विरोध का होना चाहिए, जरूरत पड़ने पर सेना का प्रयोग भी होना चाहिए नहीं तो भारत के समुद्री क्षेत्र में चीन जैसे देश मल त्याग तो अमेरिका जैसे देश युद्धाभ्यास करके चले जायेगें और हम दर्शक बने रहेंगे। सिर्फ लंगोट बांधने से पहलवान नहीं बनते, उसके लिए आखड़े में उतरना भी पड़ता है।
नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।
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शत प्रतिशत सत्य कहा आपने.🙏👍
यह समय की मांग हैं, अगर अभी शांत हो जायेंगे तो
आने वाले समय में हमें बहुत से मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता हैं! इसलिए सरकार को अभी से सावधान हो जाना चाहिए!
Bilkul sahi kathan hai aapka. Jab tak akhade me utrenge nahi, pahalwan nahi ban payenge. Soch badalne ki aavshyakta hai. Sainik na bhi bhejne ho par shashtra, dhan aur sansadhano ki sahayta toh deni hi chahiye. Saath hi vishwa patal par anya desho se bhi sahayta ka aawahan karna chahiye.