पूरे विश्व में लोकतंत्र एक नई अंगड़ाई ले रहा है। शायद अब समय आ गया है नई तरह की राजनीति का। लोग लोकतंत्र से आजिज आ गये हैं, जो वादे तो करता है लेकिन पूरा नहीं। न्याय शांति, सहयोग, विकास और समानता के साथ भी कुछ ऐसा ही है।
सत्ता पक्ष और विपक्ष में तल्खियां दिनों – दिन बढ़ती ही जा रही हैं, कमोबेस पूरे विश्व भर का हाल एक सा ही है। सहनशीलता घटती जा रही है। ‘आगे क्या होगा’ कि स्थिति मुँह बाये हर वक्त खड़ी है।
पिछले पांच – सात वर्षों में दुनियाभर में जैसे सीरिया, इराक, सोमालिया, यमन, मिश्र, तुर्की, बेनेज़ुअला, चिली, चीन, यूरोपीय देश और भारत के पड़ोसी देशों में जो राजनैतिक परिदृश्य बना है उससे यह स्पष्ट है।
अर्थव्यवस्था अभी एक आर्थिक मंदी की चोट से उभरी जरूर है लेकिन फिर एक नई मंदी विश्व को अपने चपेट में ले रही है। विश्व में बेरोजगारी की दर में बेतहासा वृद्धि हो रही है। विश्व के एक बार पुनः आर्थिक स्तर पर असफल होने से यह पूरी पुरानी व्यवस्था को ध्वस्त कर देगा। लोकतंत्र को भी यह उड़ा देगा।
धार्मिक कट्टरता और आतंकवाद के थपेड़े आज सभी महसूस करने लगे हैं। कई देशों में गृहयुद्ध से सीमाओं पर शरणार्थियों की बढ़ती संख्या ने हालात को और खराब किया है। शरणार्थीयों की समस्या विश्व को हलकान कर रही है। उनके साथ भी आये दिन हिंसा की खबरे आ रही हैं।
यदि समुद्री क्षेत्र की बात की जाय तो दक्षिणी चीन सागर से हिन्द महासागर तक वही तनावपूर्ण स्थिति जारी है। भारत, चीन, अमेरिका, जापान, इंडोनेशिया अदि देश आमने – सामने डटे हुए हैं।
हेट स्पीच का प्रचलन भी बड़ी तेजी से फ़ैल रहा है जो लोगों में नफरत फैला रहा है। यही हाल पाकिस्तान में, अमेरिका में कैफोर्निया को लेकर रिपब्लिकन एवमं डेमोक्रेटस, इंग्लैंड में ब्रेक्झिट, फ्रांस, स्पेन, यूक्रेन, रूस, बंलादेश, मैक्सिको, ब्राजील आदि देशों में एक सा ही है। उधर गल्फ और चीन में तो विपक्ष नहीं है लेकिन दूसरे मुस्लिम आत्मप्रवंचना का शिकार हो कर इकट्ठा हो रहे हैं।
इतिहांस पर गौर करें तो संधियों, प्रतिसन्धियों और उपनिवेशवाद ने अभी तक दो विश्व युद्ध को जन्म दिया है। इस समय की पेट्रो राजनीति, आतंकवाद की सियासत और बढ़ती धार्मिक वैमनस्यता के बीच लगता है कि मानवीय गरिमा बचाने में लोकतंत्र और उदारवाद तो बिलकुल ही पर्याप्त नहीं हैं।
युद्ध से देश के भाग्य तय होते हैं। विश्व सत्ता की कुंजी बड़े युद्ध तय करते हैं। गीता में श्री कृष्ण कहते हैं ‘धनंजय! युद्ध सदा विनाश ही नहीं लाते, सृजन को भी बढ़ावा देते हैं, गलत परम्पराओं को खत्म करते हैं। विकृत मनोभाव का इलाज करते हैं। स्थायी शांति तो नहीं लेकिन एक लंबी शांति को जरूर प्रतिस्थापित करते हैं।’
आज के जो हालात बन रहे हैं, कमोबेस यही हालत 1930 के दशक में बने थे। उस समय भी प्रत्येक देश, प्रत्येक राजनैतिक पार्टी अपने को ज्यादा राष्ट्रवादी दिखा रही थी। आज बढ़ती जनसंख्या से भौतिक संसाधनों पर भी दबाव बढ़ रहा है। धरती के समक्ष भी प्रश्न है क्या इतने लोगों के भोजन का प्रबंध कर पायेगी?
वैश्विक तापमान में वृद्धि हिमालय के ग्लेशियर को पिघला रही है जिससे समुद्र स्तर में वृद्धि हो रही है। रहने के आवास के साथ कृषि उत्पादकता भी प्रभावित हो रही है। जो मनुष्य में विद्वेष भर रही है। अंतर्देशीय नदियों के विवाद को भी इसी संदर्भ में देखा और समझा जा सकता है।
उदारवाद, मानवतावाद, वैश्वीकरण तो लगता है कल की बातें हो गई है। संयुक्त राष्ट्र संघ भी आने वाले कल की चिंता नहीं कर रहा है वह आज में ही उलझ गया है।
ईसाई और मुसलमानों में बढ़ती दूरी तथा मुस्लिम को लेकर अन्य धर्म के लोगों में अविश्वास का जन्म होना, यह एक नई जंग का संकेत है जो विश्व के सर्वथा अनुपयुक्त है।
दो विश्व युद्धों का तो अखाड़ा यूरोप बना था लेकिन इस बार कई महाद्वीपों पर यह लड़ा जायेगा। विश्व अभी से खेमेबंदी में लग गया है। नफरत इतनी बढ़ गई है कि लोग, दूसरे लोगों और उनके विचारों तक को सुनने तैयार नहीं हैं। सहनशीलता इस समय निचले पायदान पर जा बैठी है। विश्व अशांत होगा तो आप के घर भी ज्यादा दिन तक शांति नहीं रह सकती है। कल तक उदारता की बात करने वाले भी आज कट्टर बन गए हैं तो तैयार रहिये महायुद्ध देखने के लिए। जैसी स्थिति चल रही है उस हिसाब से समय में भी लगता है कि वो शक्ति नहीं है जो इस शंखनाद को टाल सके।
Apka kathan bilkul sahi
Thanks ji 🙏🙏