द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे श्रृणु।। – श्रीमद्भगवद्गीता १६/६
मनुष्य दो प्रकार के हैं– देवता और असुर। जिसके हृदय में दैवी सम्पत्ति कार्य करती है वह देवता है तथा जिसके हृदय में आसुरी सम्पत्ति कार्य करती है वह असुर है। मनुष्य की तीसरी कोई जाति सृष्टि में नहीं है।
“द्वौ भूतसर्गौ” में भूत शब्द से मनुष्य, देवता, असुर, राक्षस, भूत, प्रेत, पिशाच, पशु, पक्षी, कीट, पतंग, वृक्ष, लता आदि सम्पूर्ण स्थावरजंगम प्राणी लिये जा सकते हैं। परन्तु आसुर स्वभाव का त्याग करने की विवेक शक्ति मुख्य रूप से मनुष्य शरीर में ही है।
८४ लाख योनियों में मनुष्य शरीर ही ‘मोक्ष’ दायक है क्योंकि विवेक शक्ति मनुष्य में ही है। शेर शिकार कर, अन्य प्राणियों को मार कर खाता है, यही उसकी प्रकृति है, यही उसका भोजन है क्योंकि उसमें विवेक की शक्ति नहीं है, वह खेती नहीं कर सकता। लेकिन यही कार्य यदि मनुष्य भी करे तो? यह पाप है।
क्यों? क्योंकि यहां मनुष्य जानबूझ कर जिह्वा के स्वाद के लिए बुरे आचरण में प्रवृत्त होते हैं। मनुष्य के पास सोचने और समझने की शक्ति है, वह खेती करे और खाये।
“गोमेध” का अर्थ है गो = पृथ्वी, मेध = उन्नत करना।
मनुष्य पृथ्वी को खेती के लिए उन्नत करे और अपने भोजन का प्रबंध करे। लेकिन इसी सोचने और समझने की शक्ति से मनुष्य ने ‘गोमेध’ का अर्थ किया गो = गाय, मेध = वध।
अब इसका दोष किसपर होगा? भगवान ने मनुष्य शरीर दिया क्योंकि मनुष्य अपने जीवन मृत्यु के चक्र को मोक्ष के द्वारा समाप्त कर सके, आत्मा अपने मूल अर्थात परमात्मा में विलीन हो सके। इसी आशा से भगवान मानव को मनुष्य शरीर देते हैं। भगवान ने विशेष कृपा करके मनुष्य को अपनी प्राप्ति की सामग्री और योग्यता और विवेक भी दे रखा है।
ईश्वर ने सृष्टि की उत्पत्ति के बाद मनुष्यों की रचना की, बुद्धि और विवेक की क्षमता प्रदान की, सोचने और समझने की शक्ति प्रदान की। फिर इसे सही प्रकार से समझने और इसका लाभ लेने के लिए वेदों की रचना की।
अर्थववेद में कहा गया है ‘धेनुः सदनम् रयीणम’ अर्थात् गाय संपदाओें का भंडार है। एक जगह आता है ‘गावो विश्वस्य मातरः’ अर्थात् गाय संसार की माता है। गाय को टेढ़ी आंख से देखना तथा लात मारने को भी बड़ा अपराध माना गया है।
यश्च गां पदा स्फुरति प्रत्यड़् सूर्यं च मेहति।
तस्य वृश्चामि तेमूलं च्छायां करवोपरम्।। – अर्थववेद १३/१/५६
अर्थात, जो गाय को पैर से ठुकराता है और जो सूर्य की ओर मुँह करके मूत्रोत्सर्ग करता है मैं उस पुरुष का समूल नाश करता हूँ संसार में फिर उसे छाया (कृपा) मिलनी कठिन है। लेकिन इसके बाद भी गोवध होते हैं, लोगों ने इन्ही ग्रंथों के आधार पर अपने तर्क भी बना रखे हैं, तर्क वितर्क का कोई अंत या निष्कर्ष नहीं निकलता। यही विवेक शक्ति का दुरुपयोग है।
आज का विज्ञान भी कहता है कि मानव शरीर मांसभक्षण के लिए नहीं बना लेकिन जिसे तर्क ही करना हो, उसे कौन समझाए?
याद रखिये:
एहि तन कर फल बिषय न भाई।
स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई॥
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं।
पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं॥
फिरत सदा माया कर प्रेरा।
काल कर्म सुभाव गुन घेरा॥
कबहुँक करि करुना नर देही।
देत ईस बिनु हेतु सनेही॥
जिन प्राणियों को भगवान मनुष्य बनाते हैं, उनपर भगवान विश्वास करते हैं कि ये अपना कल्याण (उद्धार) करेंगे।
Prabhupāda: It is said in the śāstra, striyaḥ sūnā pānaṁ dyūtaṁ yatrādharmaś catur-vidhāḥ: “Four kinds of sinful activities: illicit sex life, striyaḥ; sūnā, the animal slaughter; pānam, intoxication; dyūtam, gambling.” These are the four pillars of sinful life. So you have to break these pillars of sinful life. Then you can understand Kṛṣṇa.
Thank you for writing in Hindi Bhasha.
मनुष्यजन्म में कम से कम व्यभिचार,मांसाहार और सभी प्रकार के नशा से मुक्त तो हो ही जाना चाहिये। यदि इन तीनों दोषों मेंसे एक भी दोष रहता है तो मनुष्य पशुओं से भी अधिक पराधीन होगा और दुर्गति से छुटकारा सम्भव नहीं है।
Very well said. Great message for HUMANITY.