भारतीय विचार धारा चाहे आस्तिक हो या नास्तिक, उसकी उत्पत्ति दुःखानुभूति या आध्यात्मिक असंतोष से हुई है।
भारतीय दार्शनिकों ने अपने तात्विक विवेचन में जीवन को दुःखमय माना है। विश्व की घटनाओं एवं वस्तुओं और जीवन को स्वभावतः दुखात्मक पाया है। पुनर्जन्म, रोग, बुढ़ापा, मृत्यु, प्रिय से वियोग, अप्रिय से संयोग आदि भी दुःख है।
गौतमबुद्ध के चार आर्यसत्यों में प्रथम दुःख है। महावीर स्वामी के वैराग्य का मुख्य उद्देश्य जीवों को जन्म-मरण एवं दुःखों से छुटकारा दिलाना है।
न्याय दर्शन की उत्पत्ति आत्यंतिक दुःखनिवृत्ति हेतु हुई। इसमें यह बताया गया है कि प्रमाण, प्रमेय आदि सोलह पदार्थों का ज्ञान हो जाने पर दुःख एवं उनके कारणों की परम्परा का सम्पूर्ण नाश हो जाता है।
वैशेषिक दर्शन की मान्यता है कि धर्म का यथार्थ ज्ञान होने से सर्व-दुःखनिवृत्ति होती है।
सांख्य दर्शन में भी त्रिविध दुखों – आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक की सर्वथा निवृत्ति के लिए ज्ञानमार्ग का प्रतिपादन होता है।
योग दर्शन की मान्यता है कि ईश्वर प्राणिधाम से जीवों के सभी दुःख समाप्त होते हैं।
मीमांसा दर्शन में कर्म द्वारा और
अद्वैत वेदांत में ज्ञानोदय द्वारा दुःख के विनाश का विधान है।
दुःखों में गहन अनुभूति के कारण पाश्चात्य दार्शनिकों ने निराशावादी एवं दुःखवादी होने का अनुचित आरोप लगाया। भारतीय दर्शन में धर्म और नैतिकता में समन्वय दिखाई देता है। यह आघ्यात्मिता और भौतिकता का समन्वय है।
भारतीय दर्शन का लक्ष्य केवल ज्ञानप्राप्ति ही नहीं है; अपितु धर्ममीमांसा, आचारमीमांसा भी है। दर्शन की सहायता के बिना उचित-अनुचित, शुभ-अशुभ, अच्छा-बुरा, कर्तव्य-अकर्त्तव्य, श्रेय-अश्रेय का निर्णय नहीं हो सकता।
भारतीय दर्शन में मनुष्य के वैचारिक चिंतन को गत्यात्मक तरीके से दर्शाया गया है। दर्शन और जीवन में अविनाभाव सम्बन्ध है।