जिस मृतक का पिण्डदान नहीं हुआ है वह सूक्ष्म शरीर के निर्माण होने तक आकाश में भटकता ही रहता है, वह क्रमशः तीन दिन जल में, तीन दिन अग्नि में, तीन दिन आकाश में और एक दिन अपने घर में निवास करता है। जब तक मृतक के सूक्ष्म शरीर का निर्माण नहीं होता है, वह भूख प्यास से व्यथित होकर वायुमंडल में इधर-उधर चक्कर काटता रहता है। जिस प्रकार गर्भ में स्थित प्राणी के शरीर का पूर्ण विकास दस माह में होता है, उसी प्रकार दस दिन तक दिए गए पिण्डदान से जीव के उस शरीर की संरचना होती है जिस शरीर से उसे यमलोक आदि की यात्रा करनी है। (गरुड़ पुराण)
श्रीयोगवासिष्ठ के अनुसार पिण्डदान मीमांसा :
भगवान श्रीरामचन्द्र – गुरुवर, जिसे पिण्ड नहीं दिया जाता है, उसमें पिण्डदान आदि वासना का हेतु नहीं है, अतएव पिण्डदानादि वासना से रहित आकृति वाला वह जीव कैसे सशरीर होता है?
श्रीवसिष्ठजी – बंधुओं द्वारा पिण्ड चाहे दिया जाए अथवा न दिया जाए, परन्तु यदि प्रेत में ‘मुझे पिण्ड दिया गया’ ऐसी वासना उदित हो जाए, तो उक्त वासना से ही पुरुष को पिण्डदान का फल शरीर लाभ हो जाता है। शास्त्र में पिण्डप्रदान की विधि पिण्डप्रदान को बंधुओं का कर्तव्य कहती है यानी मृतक के बंधुओं को अवश्य पिण्डदान करना चाहिए। वस्तुतः वह विधि बंधुओं को फल देती है, पर मृतक को वासनारूप फल मिलता है, इस शास्त्र संवाद से दोनों को फल मिलता है यह प्रसिद्ध है। जैसा चित्त होता है, वैसा ही जन्तु होता है, “यच्चित्तस्तन्मयो भवति गुह्यमेतत् सनातनम्” (अर्थात् जैसा चित्त होता है, तद्अनुरूप ही चित्तमय पुरुष होता है यह सनातन रहस्य है) इत्यादि श्रुतियों तथा विद्वानों के अनुभव का प्रमाण है, जो विदेह सदेह योगियों में प्रसिद्ध है, अथवा जीवित मृत जीवों में कहीं पर भी इस नियम में उलट-फेर नहीं होता। इसलिए चित्त ही संसार है, उसकी प्रयत्नपूर्वक शुद्धि करनी चाहिए।
मुझे मेरे बन्धुबान्धवों ने पिण्ड दिया, इस बुद्धि से जिसे पिण्ड नहीं दिया गया वह भी पिण्डप्रदान के फल का भागी होता है।
मुझे बन्धुबान्धवों ने पिण्ड नहीं दिया, इस बुद्धि से पिण्डप्रदान करने पर भी पिण्डप्रदान का फल नहीं मिलता है।
इन पदार्थों की सत्यता भावना के अनुसार होती है और भावना भी अपने कारणभूत पदार्थों से उत्पन्न होती है। अर्थात् बंधुओं द्वारा पिण्डप्रदान करने पर अवश्य ही मृत पुरुष में पिण्ड प्रदान किया गया, ऐसी भावना उदित होती है, ऐसा शास्त्र बतलाते हैं।
कारणभूत भावना के बिना कभी भी किसी पदार्थ की प्रतीति नहीं होती, जिसको जब जिस पदार्थ की प्रतीति होगी, वह किसी न किसी भावना से होगी। कारण यदि सत्य हो तो कार्य की सत्यता हो सकती है पर भावना तो सत्य नहीं है, सत्य कारण के बिना उत्पन्न हुआ कार्य भी नहीं है।
अर्थात् बन्धु जब पिण्ड प्रदान करेंगे तभी प्रेत में यह भावना उदित होगी कि उसे पिण्डप्रदान किया गया (सपिण्डोऽस्मीति संवित्या) तथा उसके शरीर का निर्माण होगा और उसकी गति होगी।
भगवान श्रीरामचन्द्र – भगवन, जो मैंने पुण्यकर्म नहीं किए, अतः मेरे पास धर्म नहीं है, इस भावना से युक्त होकर मरा। उसके बन्धुओं ने प्रचुर कर्म करके उसे अर्पण कर दिया, तो वह धर्म, प्रेतवासना (अधर्मयुक्त) से विरोध होने के कारण निष्फल हो जाएगा? अथवा बन्धुओं की वासना प्रबल होने से (धर्म के प्रबल होने से) निष्फल नहीं होगा। भोक्ता (प्रेत) में स्थित वासना प्रबल है अथवा सत्य वासना बलवती है? यदि बन्धुओं की वासना प्रबल है तो अर्थ की सत्यता हुई और वासना कोई वस्तु न रही। तो जो पूर्व में कहा गया कि वासना से ही सब कुछ होता है, उसका व्याघात (बाधा) होगा।
श्रीवसिष्ठजी द्वारा समाधान – देश, काल, कर्म और द्रव्य की संपत्ति से भावना उत्पन्न होती है, वह जिस फलरूप विषय में उत्पन्न होती है, दोनों में से वही विषय विजयी होता है। जिस समय धर्म-दान होता है उसी समय प्रेत के अन्तःकरण में “मैं अमुक धर्मवान हूँ” ऐसी वासना उत्पन्न होती है।
दान देने वाले की भावना हुई हो तो उस भावना से क्रमशः प्रेत की मति पूर्ण होती है यानी उसी के अनुसार दाता की भावना के अनुसार प्रेत को फल अवश्य मिलता है।
शंका – प्रेत यदि पाखंडी हो और वेद के ऊपर द्वेष, नास्तिकता आदि अशुभवासना से उसका अन्तःकरण दूषित हो, तो बन्धु बान्धवों द्वारा दान देने पर उसे फल मिलेगा या नहीं?
समाधान – नहीं मिल सकता, यदि प्रेत की बुद्धि शुद्ध हो, तो तभी उसे बंधुओं द्वारा समर्पित धर्म-दान आदि का फल मिल सकता है। इसीलिए पुरुषप्रयत्न की प्रबलता को सिद्ध कर शुभ कर्मों का अभ्यास सदैव करना चाहिए।
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