उपासना स्थल अधिनियम 1991 और कांग्रेस

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Dhananjay Gangey
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1992 इस्वी में केंद्र में नरसिंहा राव की सरकार ने अयोध्या विवाद के आलोक में उपासना स्थल अधिनियम पास किया। इस अधिनियम के तहत हिंदू धर्म स्थलों पर मुस्लिम कब्जे को संवैधानिक मान्यता दी गयी।

इस अधिनियम के अनुसार 15 अगस्त 1947 को जो धार्मिक स्थल जिस सम्प्रदाय या धर्म का था वह आज और भविष्य में भी उसी का रहेगा। कानून बन जाने से 4000 मंदिरों को तोड़ कर बनाई गयी मस्जिदें और ईदगाह पर मुस्लिमों का संवैधानिक अधिकार हो गया, अब इस पर अदालतें भी बस टुकुर – टुकुर देख सकती हैं लेकिन दखल नहीं दे सकती हैं।

उपासना स्थल अधिनियम के तहत मान लीजिए स्वतंत्रता के दिन किसी जगह मस्जिद है भले ही वह स्वतंत्रता के पूर्व मन्दिर था लेकिन अब उसपर हिंदू दावा नहीं कर सकता है। यह कानून हलांकि अयोध्या विवाद के संदर्भ में आया लेकिन अयोध्या विवाद को इससे बाहर रखा गया। यदि इन धर्मस्थलों पर कोई छेड़खानी करता है तो उसे तीन वर्ष की सजा होगी। इस कानून को 11 जुलाई 1991 से लागू किया गया।

शियाबोर्ड के चेयरमैन वसीम रिजवी के मुताबिक एक स्पेशल कमेटी बनाकर अदालत की निगरानी में विवादित मस्जिदों के बारे में जानकारी इकट्ठा की जाय और यदि यह सिद्ध हो जाता है कि वे हिंदुओं के धर्मस्थल तोड़कर बनाये गए हैं तो उन्हें वापस हिंदुओं को दे दिया जाय।

भारत के सेक्युलर बन जाने से उसके मूल धर्म और धरोहर की सुरक्षा नहीं की जा सकती है। अब प्रश्न यह है कि सत्ता हिंदू नेताओं को मिलने के बाद भी उन्हें हिंदू धर्म से इतनी नफरत क्यों थी?

हिंदू धर्म, नीति – नैतिकता का धर्म है जिसमें व्यक्तिगत अनुशासन और चारित्रिक शुचिता सम्मिलित रहती है। तत्कालीन सत्ता प्राप्त नेताओं में चारित्रिक पतन हो चूका था, उन्हें वाचालता, लंपटता और स्त्री संग की उत्कृष्ट भोगवती इच्छा के अनुकूल व्यवस्था बनाना था जिससे अंग्रेजों के सपने भारत में पीढ़ियों तक पूरे होते रहें। कांग्रेस ने बड़ी शिद्दत से भारत के चरित्र को बदलने का भरसक प्रयास किया।

भारत में कई तरह के विचारों की फसलें रोपी गईं जिसका कारण था भारत की उदार संस्कृति और उदार लोग। भारत के अलावा किसी देश के लिए आप ऐसा सोच नहीं सकते हैं कि 80 फीसदी हिंदू होने के बावजूद राममंदिर का अधिकार वह कोर्ट से चाहता है। यही भावना मथुरा, काशी आदि मंदिरों के लिए भी है। नेहरू – गांधी परिवार को हिंदुओं से चिढ़ रही है जिसका उल्लेख पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने अपनी किताब “प्रेसिडिंसियल यर्स” में भी किया है।

भारत में बर्बर मुस्लिम आक्रमण, मंदिरों का विध्वंश, मस्जिदों का निर्माण, स्त्रियों का बलात्कार, पुरुषों का कत्लेआम, देश का बटवारा फिर तराना गवाया जाता है ‘ईश्वर – अल्लाह तेरो नाम’, अल्लाह वालों से पूछे हैं कि वह ईश्वर के विषय में क्या विचार रखता है?

भारत को पूरी तरह से प्रयोगशाला बना दिया गया है। हिंदुओं को साम्प्रदायिक और आतंकवादी तक कांग्रेस पार्टी ने सिद्ध करने का भरपूर प्रयास किया है। वह मुस्लिमों को मुस्लिम ही बने रहने में हित देखती रही है, उन्हें भारतीय नहीं बनने दिया गया।

शाहबानो मामले में एक कांग्रेसी नेता कहते हैं कि यदि मुस्लिम यदि गंदगी में रहना चाहते हैं तो हमें उन्हें गंदगी से निकालने की क्या जरूरत है? उनसे हमें वोट चाहिए और वह मिल रहा है। वोट बैंक आधारित सोच एक पूरी संस्कृति को धुंधला कर रही है।

इसके लिए उसके पास इतिहासकार, पत्रकार, बुद्धिजीवी, लेखक, फ़िल्म निर्माण कर्ता आदि की पूरी टीम है जो हिंदू – मुस्लिम को भाई – भाई के तौर पर दिखा कर अपने एजेंडे को पूरा करती है।

एक चीज जो सबसे बढ़कर है वह हैं भारतीय मुसलमान जिनमें अधिकतर की सोच मुल्ला – मौलवियों के इर्द – गिर्द ही सीमित है। विवादित धर्म स्थल से कोई इबादत अल्लाह द्वारा स्वीकार नहीं की जाती है फिर विवाद क्यों जिंदा रखना चाहते हैं?

मुसलमानों को मौलवी मध्यकाल की क़िस्सागोई से बाहर आने ही नहीं देता है, कांग्रेस उसे उतना ही मुसलमान बने देना रहना चाहती है जितना की मौलवी। पूरी दुनिया में आज मुसलमान आतंकी बनता जा रहा है, मुसलमानियत को रोज – बरोज आतंकवादी हाईजैक करता जा रहा है लेकिन कुछ लोगों को अपने व्यापार से ही मतलब है।

तुम्हारा सेक्युलरिज्म, वामपंथ, समानता और उदारता की कीमत हमेशा से हिंदू ही रहा है। देश को धर्म के नाम पर बाँटा गया, उस समय भारत में 33 फीसदी मुसलमान थे जो बटवारे के बाद 4.7 फीसदी बचे थे आज वह फिर से 20 फीसदी हो गए हैं। जिनकी तादाद पाकिस्तान के मुसलमानों से ज्यादा हो गयी है।

भारत उदारवादी और सेक्युलर क्यों बना? क्योंकि यहाँ उदार हिंदू हैं जो आज अपनी धरोहरों के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं, उनके आदर्श राम और कृष्ण की जगह गांधी, नेहरू और अम्बेडकर को बनाया जा रहा है जिससें नई पीढ़ी भ्रमित पैदा हो सके।


नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।

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