शास्त्र सम्मत व्याख्या :
एकाक्षरं परं ब्रह्म, प्राणायामाः परं तपः । – मनुस्मृति २.८३
एक अक्षर (ॐ) ही (ब्रह्म प्राप्ति का साधन होने से) सर्वश्रेष्ठ है, तीन प्राणायाम ही (चान्द्रायण आदि व्रतों से भी) श्रेष्ठ तप है।
प्राण + आयाम =
प्राण (प्र + अन् + अच्) = श्वास, जीवनशक्ति, जीवनदायी वायु अर्थात् वायु या प्राणवायु, अन्दर खींचा हुआ साँस, ऊर्जा, बल, शक्ति, सामर्थ्य, परमात्मा, ब्रह्म, ज्ञानेन्द्रिय, जीव या आत्मा आदि।
आयाम (आ+यम्) = प्रसार, विस्तार, फैलाना, विस्तार करना, निग्रह, नियंत्रण, रोकथाम आदि।
अतः प्राणायाम का अर्थ हुआ अन्दर खींचे हुए प्राणवायु को प्रसार या विस्तार देना अर्थात् प्राण (श्वास) का आयाम (नियंत्रण)।
ऐतरेयोपनिषद् १.४ में इंद्रिय और इंद्रिय अधिष्ठाता देवताओं की उत्पत्ति के संदर्भ में आया है : “नासिकाभ्यां प्राणः प्राणाद्वायुरक्षिणी…।” अर्थात् नासिकारंध्र प्रकट हुए, नासिकारंध्रों से ‘प्राण’ हुआ और प्राण से वायु।
तदाहुर्यदयमेक इवैव पवतेऽथ कथमध्यर्ध इति यदस्मिन्निदं सर्वमध्यार्ध्नोत्तेनाध्यर्ध इति कतम एको देव इति प्राण इति स ब्रह्म त्यदित्याचक्षते ॥
– बृहदारण्यक उपनिषद् ३.९.९
शाकल्य ने प्रश्न किया – कहते हैं जो वायु है, एक सा ही बहता है, फिर अध्यर्ध (डेढ़) किस प्रकार है?
याज्ञवल्क्य : क्योंकि इसी में यह सब ऋद्धि (वृद्धि) को प्राप्त होता है।
शाकल्य ने पुनः प्रश्न किया – एक देव कौन है?
याज्ञवल्क्य : प्राण ही एक देवता है, वह ब्रह्म है, उसी को ‘तत्’ (वह) कहते हैं।
प्राणों की इन सभी विशिष्टताओं को ध्यान में रख कर ही ऋषि ने भाव विभोर हो कर यह प्रार्थना की है –
नसोर्मे प्राणोऽस्तु। – पारस्कर गृह्यसूत्र २.३.२५
हे ईश्वर! मेरी नासिका में सदा प्राणों की अवस्थिति रहे।
प्राणायाम के तीन भेद हैं – १. पूरक (श्वास को भीतर ले जाकर फेफड़े को भरना) २. कुम्भक (श्वास को भीतर रोकना) और ३. रेचक (श्वास को बाहर निकालना)।
यथा पर्वतधातुनां दोषान् हरति पावकः ।
एवमन्तर्गतं पापं प्राणायामेन दह्यते ॥
जिस प्रकार पर्वत से निकले धातुओं का मल अग्नि से जल जाता है, उसी प्रकार प्राणायाम से आंतरिक पाप जल जाता है।
आधुनिक विज्ञान के अनुसार इसकी व्याख्या :
आधुनिक विज्ञान के अनुसार विशाल से विशालतम शरीर क्षुद्र से क्षुद्रतम कोशिकाओं से निर्मित है। यह ऐसा ही है जैसे मधुमक्खी का छत्ता। इन कोशिकाओं का आकार अत्यंत सूक्ष्म होता है। जैसे तर्कुरूपी पेशी-कोशिका ६० से १०० माइक्रॉन तक लंबी होती है।
इन कोशिकाओं को ऊर्जा प्राप्ति हेतु ग्लूकोज के विखण्डन के लिये प्रतिक्षण प्राण या प्राणवायु की आवश्यकता होती है। सोते समय स्थिर दिखने वाली पेशी कोशिकाएँ (muscular cells) भी भूख, प्यास से बेहाल होकर ऊष्मा ऊर्जा की प्राप्ति के लिये लगातार खाती, साँस लेती तथा मल उत्सर्जन करती हैं। इस प्रकार विश्व के प्रत्येक प्राणी की प्रत्येक कोशिका को जिस चीज की प्रतिक्षण समान रूप से आवश्यकता है, वह है – प्राण।
एक कोशकीय अमीबा (amoeba) जैसे प्राणी को इसे ग्रहण करने में बड़ी सुविधा है। वह अपने चारों ओर से कहीं से भी इसे परासरण (osmosis) क्रिया द्वारा इसे प्राप्त कर सकता है तथा विसरण (diffusion) द्वारा अपशिष्ट पदार्थ बाहर निकल सकता है। किन्तु हमारे शरीर में कोशिकाओं का समूह किसी विशाल बस्ती के सदृश है जहां स्वच्छ वायु तथा जल के लिए अलग और अपशिष्ट पदार्थों के लिए अलग व्यवस्था होती है। जहां पोषक आहार ग्लूकोज आदि को ‘रक्तरस’ (plasma) के रूप में नालियों द्वारा भेजा जाता है। किन्तु प्राण वायु का इस रक्तरस में विलयन बहुत कम हो पता है। अतः इसके लिए उभयावतल डिस्क जैसी या चकती जैसी रक्त-कणिकाएँ (red blood corpuscles) रूपी छोटे-छोटे डिब्बों में बंद करके इसी रक्त में तैराकर धमनी (artery) धमनिका (arteriole) तथा केशिकाओं (capillary) रूपी बंद नालियों के द्वारा तैराकर अंतिम छोर की कोशिकाओं तक पहुँचाया जाता है। इन नलिकाओं तथा कणिकाओं की लघुता अत्यंत विस्मयजनक है। धमनिका का व्यास लगभग ०.०१ मिलीमीटर या १० माइक्रॉन (एक मिलीमीटर का सौवाँ भाग) तक होता है। इसके अंदर लगभग ०.००७ मिलीमीटर या ७-८ माइक्रॉन व्यास की रक्त-कणिकाएँ अपने डिब्बे में प्राणवायु को लेकर तैरती हैं। इनकी लघुता का अनुमान आप ऐसे लगा सकते हैं कि एक घन मिलीमीटर रक्त में इन कोशिकाओं की संख्या लगभग ५० लाख होती है। अर्थात् यदि शरीर में ३ लीटर रक्त है तो इसमें १५ खरब कणिकाएँ समाती हैं जिन्हें प्राण फफड़ो से मिलता है और इन्हें पूरे शरीर में पहुँचाने के लिए हृदय को जीवन भर निरन्तर प्रति मिनट औसतन ७० बार आकुंचन करते हुए प्रति आकुंचनों के बीच ०.४ सेकेण्ड का समय विश्राम के नाम पर मिलता है।
फेफड़े में सामान्यतः ३०० से ४०० करोड़ वायुकोष्ठक (alveoli) होते हैं। इनके चारों ओर रक्तकोशिकाओं का अत्यंत घना जाल बिछा रहता है। इन वायुकोष्ठकों से ऑक्सीजन का रुधिर में तथा रुधिर की कार्बन डाइ ऑक्साइड का वायुकोष्ठकों में विसरण होता रहता है। सामान्य श्वास-प्रश्वास के समय बहुत कम वायुकोष्ठक ही वायु से भरते हैं जो सामान्य चर्या के लिए तो ठीक है किन्तु प्राणायाम के उपाय से रुधिर को अधिकतम ऑक्सीजन उपलब्ध होती है तथा इसकी अधिकतम मलिनता दूर होती है। इससे रुधिर का रंग अतिस्वच्छ लाल हो जाता है तथा यह शरीर की प्रत्येक कोशिका को अधिकतम ऊर्जा प्रदान करने में सक्षम हो जाता है।
निष्कर्ष :
शास्त्रों के अनुसार विचार करें अथवा आधुनिक विज्ञान के अनुसार, उपरोक्त तथ्यों से इस बात की पुष्टि होती है कि प्राणायाम करने से शरीर को ‘प्राण’ के रूप में अतिरिक्त ऊर्जा का लाभ मिलता है जिससे लंबी आयु भी मिलती है। शास्त्रों में तो यहाँ तक कहा गया है कि प्राणायाम करने से पाप-ताप तो जल ही जाते हैं, शारीरिक उन्नति भी अद्भुत ढंग से होती है। हजारों वर्ष की लंबी आयु भी इससे मिल सकती है। सुन्दरता और स्वास्थ्य के लिए तो यह मानो वरदान ही है।
गच्छंस्तिष्ठन् सदा कालं वायुस्वीकरणं परम् ।
सर्वकालप्रयोगेण सहस्रायुर्भवेन्नरः ॥
अति सुंदर वर्णन 🙏