वैदिक सनातन धर्म के जनक ‘वेद’ हैं अर्थात वेद ही मूल धर्मग्रंथ हैं। वेद चार हैं – १. ऋग्वेद २. यजुर्वेद ३. सामवेद और ४. अथर्ववेद।
वेदों के आधार पर ही, और उन्हें समझाने के उद्देश्य से बाकी के सभी शास्त्रों (श्रुति, स्मृति, इतिहास, पुराण) की रचना हुई है। पुनः इन्हीं ग्रंथों पर अनेक विद्वानों ने चिंतन – मनन करके सरलीकरण हेतु, सामान्य लोगों को समझाने के उद्देश्य से उनपर भाष्य लिखे हैं।
सनातन धर्म में इन सभी ग्रंथों को लिखने-पढने के मुख्यतः दो उद्देश्य हैं :
- पुरुषार्थचतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) की प्राप्ति।
- परमात्मतत्त्व का ज्ञान।
पुरुषार्थचतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) – पुरुषार्थ का अर्थ है (पुरुष+अर्थ) मानव जीवन का लक्ष्य। यह लक्ष्य चार हैं –
- धर्म : ‘धारयति- इति धर्म:’ अर्थात जो धारण करने योग्य है, वही धर्म है। धारण करने योग्य क्या है? महर्षि कणाद के वैशेषिक सूत्र (१.१.२) के अनुसार यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः। अर्थात, जिससे यथार्थ उन्नति (आत्म बल) और परम कल्याण (मोक्ष) की सिद्धि होती है, वह धर्म है।
- अर्थ : अर्थशास्त्र के प्रणेता आचार्य चाणक्य ने ‘चाणक्य-सूत्र’ के पहले सूत्र में लिखा है “सुखस्य मूलं धर्मः” अर्थात धर्म का आश्रय ही सुख का मूल है और इसके ठीक बाद दूसरा सूत्र है “धर्मस्य मूलं अर्थः” अर्थात धर्म का मूल अर्थ है। अर्थ क्या है? इसके उत्तर में चाणक्य अर्थशास्त्र में लिखते हैं “मनुष्याणां वृत्तिः अर्थः” अर्थ है कि जो भी कार्य अथवा विचार हम भौतिक जीवन के निर्वाह के लिए करते हैं, वे सभी अर्थ हैं।
- काम : भोग पदार्थों की कामनापूर्ति ‘काम’ है। “इदं मे स्यादिदं मे स्यादितीच्छा कामशब्दिता” अर्थात यह मुझे मिल जाए, यह मुझे मिल जाए – इस प्रकार की इच्छा ‘काम’ कही जाती है। इच्छा को लेकर किये गए यज्ञादि अनुष्ठान भी काम की श्रेणी में ही आते हैं। कामशास्त्र के प्रणेता महर्षि वात्स्यायन रहे हैं। उन्होंने लिखा है कि विषयों में अर्थात शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गंध में अनुकूल रूप से प्रवृत्ति ‘काम’ है। “विषयेष्जानुकूल्यतः प्रवृतिः कामः”।
धर्म, अर्थ और काम का शास्त्रीय विधि से पालन करने से ही मनुष्य का वास्तविक विकास होता है और एक सुदृढ़ व विकसित समाज का निर्माण होता है। धर्म से ही संस्कृति का निर्माण होता है क्योंकि धर्म में भी प्रायः वे ही संस्कार आते हैं जो संस्कृति में हैं।
- मोक्ष : आत्मा के परमात्मा में विलीन हो जाने को मोक्ष कहा गया है।
परमात्मतत्त्व का ज्ञान : वास्तव में पुरुषार्थचतुष्टय का मोक्ष ही परमात्मतत्त्व का ज्ञान है। अलग रखने का प्रयोजन यह है कि एक समय योगी अपने योग-तप के बल से पुरुषार्थचतुष्टय के धर्म, अर्थ और काम को छोड़कर सीधा परमात्मतत्त्व को भी प्राप्त करने में सक्षम हो जाते थे। हालांकि आज ऐसे योगी सर्वथा दुर्लभ ही हैं।
परमात्मतत्त्व क्या है?
वस्तुतः जीव परमात्मा का एक अंश है किन्तु अज्ञानता वश वह इस तथ्य को नहीं समझता है, नहीं समझने का अर्थ है कि वह ये नहीं जानता कि वह किस प्रकार से परमात्मा का अंश है। जब इस अज्ञानता का नाश होता है, तो उसे ही मोक्ष कहते हैं।
शिव गीता अध्याय १३.३२ का एक श्लोक है :
मोक्षस्य न हि वासोऽस्ति न ग्रामान्तरमेव वा।
अज्ञानतिमिरग्रन्थिनाशो मोक्ष इति स्मृतः॥
अर्थ है – मोक्ष ऐसी कोई वस्तु नहीं, कि जो किसी एक स्थान पर रखी हो; अथवा यह भी नहीं, कि उसकी प्राप्ति के लिए किसी दूसरे गाँव या प्रदेश में जाना पड़े! वास्तव में हृदय की अज्ञान ग्रंथि का नाश हो जाने को ही मोक्ष कहते हैं।
भगवान ने गीता ५.२६ में कहा है “अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्।” अर्थात जिन्हें पूर्ण आत्मज्ञान हुआ है, उन्हें ब्रह्मनिर्वाणरूपी मोक्ष आप-ही-आप प्राप्त हो जाता है; तथा “यः सदा मुक्त एव सः” (गीता ५.२८) वह सदा मुक्त ही रहता है। और जब एक बार परमात्मतत्त्व का ज्ञान हो गया; तब गीता अध्याय २ के ४६वें श्लोक में भगवान अर्जुन से कहते हैं “जैसे सब तरफ से परिपूर्ण महान जलाशय के होने पर मनुष्य को छोटे गड्ढों में भरे जल का कोई प्रयोजन नहीं रहता, उसी प्रकार ब्रह्मज्ञानी/आत्मज्ञानी का सम्पूर्ण वेदों में (यहां वेद से अर्थ सभी शास्त्रों से है) कोई प्रयोजन नहीं रहता है।”
यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः॥
क्योंकि जब एक बार आत्मज्ञान हो गया तब वेदादि शास्त्रों का प्रयोजन ही सिद्ध हो गया। अर्थ यह हुआ कि सभी वेदादि शास्त्रों को लिखने/पढ़ने का प्रयोजन धर्म, अर्थ, काम का पालन करते हुए अंततः परमात्मतत्व अर्थात मोक्ष की प्राप्ति है।
विशेष बात यह है कि वेदादि शास्त्र इस प्रयोजन को सिद्ध करने का माध्यम हैं, ऐसा नहीं है कि उन्हें पढ़ और समझ लेने मात्र से ही यह प्रयोजन सिद्ध हो जाए। उसके लिए निर्दिष्ट नियमों का पालन करना ही होगा। उदाहरण के लिए श्री गुरु अष्टकम में आद्य शंकर कहते हैं :
षडंगादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या
कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति ।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ॥
अर्थात वेद एवं षटवेदांगादि शास्त्र जिन्हें कंठस्थ हों, जिनमें सुन्दर काव्य-निर्माण की प्रतिभा हो, किंतु उसका मन यदि गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न हो तो इन सदगुणों से क्या लाभ?
ग्रंथों पर सभी शोध परक विचार, भाष्य आदि का एक मात्र प्रयोजन यह है कि किस प्रकार से आप उन वैदिक विचारों को समझें और परम कल्याण को प्राप्त करें।
यहाँ एक प्रश्न उठ सकता है कि क्या सभी तथाकथित धर्मों के धर्म ग्रंथों के साथ ऐसा ही है? वैदिक सनातन धर्म से इतर जितने भी धर्म कहे गए या बने, उन सभी धर्मों के ग्रंथों में नियम ही हैं जिन्हें ‘संस्कार’ कह सकते हैं। हालांकि संस्कार शब्द उचित तो नहीं लगता किन्तु उनकी दृष्टि में भी उन नियमों में परिष्कार की भावना निहित है। उचित इसलिए भी नहीं है क्योंकि संस्कृति, संस्कार और संस्कृत – ये सभी एक ही ‘कृ’ धातु से निर्मित शब्द हैं जिसका अर्थ है ‘करना’; इन सभी में एक ही उपसर्ग है ‘सम्’; अर्थ है संशोधन करना, उत्तम बनाना या परिष्कार करना। भाषा में परिष्कार हुआ तो वह संस्कृत भाषा कही गई अब सभी भाषाएँ संस्कृत तो नहीं कही जा सकतीं। संस्कृति के लिए कल्चर (Culture) शब्द लेना ठीक होगा, जिसका अर्थ है पैदा करना या सुधारना। एग्रीकल्चर में भी यही शब्द है।
खैर, तो सभी तथाकथित धर्मों के धर्म ग्रंथों में भी सुधारने की ही भावना निहित है (यह बात अलग है कि सुधार का अर्थ ही धर्मों में अलग-अलग है) इस सुधार का भी उद्देश्य है, जिस पर चर्चा आगे कभी की जाएगी।