रामेश्वरम और दक्षिण भारत की यात्रा – भाग १ से आगे …
कांचीपुरम और रामेश्वरम दर्शन :
कांचीपुरम को दक्षिण का काशी कहा जाता है। यहां शंकराचार्य जी का गुरु पीठ है, यहां की साड़ियां विश्व प्रसिद्ध हैं जिन्हें “कांजीवरम” कहा जाता है। यह विद्या और ज्ञान की नगरी है जो प्राचीन काल में शिक्षा के लिए प्रसिद्ध रही है।
यह दक्षिण के प्रसिद्ध राजवंशों चोल, चेर, पांड्य और पल्लव में पल्लव राजाओं की राजधानी रही है। यहां स्थित कैलाश मंदिर एकम्बरम शिवलिंग द्रविण शैली का उत्कृष्ट मंदिर है, भगवान की पूजा सातवीं सदी से निर्बाध और निरंतर जारी है।
वरदराज पेरुमल अर्थात “विष्णु” मंदिर भी बहुत प्रसिद्ध है। माता की शक्तिपीठ “कांची कामाक्षी” एक और महत्वपूर्ण मंदिर है। कांचीपुरम शैव, वैष्णव और शाक्त तीनों की भक्ति का प्राचीन समय से केंद्रीय स्थल रहा है। महान वैष्णव आचार्य रामानुजाचार्य की शिक्षा यहीं हुई थी।
समय कम था और यात्रा अधिक इसलिए सोने का काम ट्रेन, बस आदि में करने का निर्णय लिया गया जिससे अधिक दर्शन मिल सके। शरीर को कष्ट अवश्य था फिर भी मन में ईश्वर की अभिलाषा उसे दूर कर दे रही थी।
कांची के बाद अगला पड़ाव था “महाबलीपुरम” यह स्थल भी पल्लव कला से जुड़ा है, यहां का रथ मंदिर प्रसिद्ध है, इसकी शैली को मामल्लपुरम, नरसिंह वर्मन शैली भी कहते हैं।
यहां समुद्र तटीय “शोर मंदिर” और शैल काट कर गुहा चित्रकारी प्रसिद्ध है। शोर मंदिर समुद्र से लगा हुआ शिवमंदिर है। पांडव रथ मंदिर, द्रौपदी रथ मंदिर, महिषासुरमर्दिनी गुहा मंदिर, भगवान कृष्ण का लड्डू और यहीं पर अर्जुन ने तपस्या की थी। पृथ्वी का समुद्र से उद्धार करते हुए शूकर अवतार, नरसिंह अवतार आदि अद्वितीय शैल चित्रकला हैं।
मंदिर अपने बेजोड़ कारीगरी के लिए अद्वितीय है। यहीं पर भारत का शास्त्रीय नृत्य भारत नाट्यम का मंचन तमिलनाडु सरकार से प्रोत्साहित सांस्कृतिक कार्यक्रम में पहली बार देखने को मिला।
महाबलीपुरम के साथ तमिलनाडु के गांव, हाट और स्थानीय संस्कृति को निकट से जानने का अवसर मिला। खाने में अभी तक दक्षिण के शाकाहारी भोजन ही चल रहा था। यहां मिठाई के नाम पर सिर्फ बेसन के लड्डू खाते हैं। जलेबी, रसगुल्ला, रसभरी, पेड़ा आदि की बहुत याद आती रही लेकिन यहां “पायसम” (मीठा तरल पेय) से ही काम चलाना पड़ रहा था।
अगला पड़ाव था त्रिचनापल्ली (त्रिची)। ट्रेन का रिजर्वेशन टिकट कंफर्म नहीं हुआ इस कारण 320 किमी की यात्रा साधारण बस के माध्यम से थी। सुबह त्रिची आया, पहुंचते ही बस स्टेशन पर बहुत चहल- पहल दिखी। पूछने पर पता चला कि आज ‘पोंगल’ का त्योहार है, पोंगल तमिलनाडु में बहुत धूमधाम से मनाया जाता है। दक्षिण भारत में त्यौहारों में मंदिर सम्मिलित रहते हैं। बाजार केला के पत्ते, केला और गन्ने से भरे पड़े थे। पुरुष परम्परागत पहनावे धोती में थे तो महिलाओं के बालों में गजरे चमक रहे थे।
इस दिन भोजन को आग वाले चूल्हे पर बनाया जाता है, आज खाने को बहुत ही तीखा रखते हैं और चीनी की जगह गुड़ का प्रयोग किया जाता। पायसम दूध और गुड़ की सहायता से बना और देखने में उत्तर भारत की खीर की तरह एक प्रचलित पारम्परिक पेय है जिसे खाने के तीखा लगने पर बीच – बीच में पीते हैं।
जगह – जगह जल्लीकट्टू के पोस्टर लगे थे। पूछने पर पता चला इस क्षेत्र में जल्लीकट्टू का प्रचलन है। रंगे – चुंगे बैल यत्र – तत्र दिखाई दे रहे थे।
एक और चीज जो देखने को मिली लोग कि अभिनेता और नेता के पोस्टर में फोटो डाल कर बाटते हैं ऐसे पूरा गांव ही फोटो डाल लेता नाम बधाई का और उसके पीछे अपना प्रचार। तमिलनाडु में प्रवेश के साथ तमिल भाषा के गाने बस में लगातार बजते जा रहे थे जो भाषा न समझ पाने के कारण हमारे लिए अब असहनीय हो चुका था।
सरकारी बस के प्रयोग से तमिल लोगों के साथ जुड़ने का अवसर मिला। उन्हें भले हमारी भाषा न आये लेकिन जहां आपको उतरना है, लोग स्थान आते ही चिल्ला कर इशारा कर देते हैं कि आप वाली जगह आ गयी है उतर जाइये।
राजनीति और फिल्मों से यहां के लोग बड़े गहरे स्तर पर जुड़े हैं। एक सबसे बड़ी बात यह है कि यहां के लोग बहुत अच्छे हैं लेकिन बहुत सुस्त भी हैं, कपड़े का प्रचलन परम्परागत पहनावा है।
त्रिची को कल्चरल तमिलनाडू कहा जाता है। यहीं से कुछ दूर तंजौर जिला था जहां 1000 वर्ष पुराना चोल महाराज राजराजेश्व द्वारा बनवाया वृहदेश्वर मंदिर है। हमने त्रिची में न रुक कर सुबह ही तंजौर के लिए बस ले लिया। सुबह 5 बजे पहुंच गये। होटल में कमरा लेने के बाद, नहा धो कर पेट पूजा होते ही मन, मंदिर देखने के लिए कुलांचे मारना शुरू कर दिया। होटल से मंदिर कोई 2 किलोमीटर पड़ता है, विनय और मैंने सुदूर भारत में एक महान साम्राज्य, चोल की प्राचीन राजधानी देखने पैदल ही जाने का फैसला किया।
जैसा कि ज्ञात है कि मंदिर भारत के प्रसिद्ध मंदिरों में से एक और यूनेस्को की धरोहर में भी शामिल है। यह अपनी तरह का अकल्पनीय मंदिर है, शिल्पकला देख कर मुझे प्राचीन भारत के शिल्पियों पर बड़ा दुलार आया । मन गौरवान्वित हो गया कि हे धनंजय, तुम उस देश के वासी हो जिसकी विरासत यह पूरा विश्व है। दुनिया को विज्ञान, कृषि, गणित, ज्योतिष, बीजगणित, शिल्पकारी, बुनकरी, स्थापत्य सिखाने वाला महान देश भारत है जिसकी वर्ण व्यवस्था ने आर्थिक क्षेत्र में विश्व में क्रांति कर दी। भारत के विश्व गुरु बनने का कारण यहां आप को मिल सकता है।
जिसे वर्ण व्यवस्था में शूद्र की श्रेणी में रखा गया वह प्राचीन विश्व का सबसे बड़ा इंजीनियर था। यह अलग बात है कि मुस्लिम और इसाई शासन ने हमारे पूरे सामाजिक ताने-बाने को विकृत कर दिया जिसमें पेरियार और अम्बेडर आदि ने अंग्रेजों से संधि कर शूद्र को दलित के रूप में प्रचारित किया। एक ही ईश्वर से उत्पन्न चारों वर्ण को आपस में लड़ा दिया। दक्षिण में यह कुछ और ज्यादा था क्योंकि यूरोपीय यहां 16वीं सदी में ही आ गये थे।
आते हैं बृहदीश्वर मंदिर की शिल्पकला पर, यह द्रविड़ शैली का बना चमत्कृत मंदिर है, इसकी बनावट किसी चमत्कार से कम नहीं है। मंदिर की ऊँचाई 216 मीटर है, 13 टन ग्रेनाइट पत्थर को लाने के लिए 3000 हाथियों का प्रयोग हुआ है। मंदिर का शिखर 80 टन का एकाश्म पत्थर है। उस जमाने में जब लिफ्ट नहीं थी तब कहते हैं कि मंदिर को बालू से ढककर 1 किमी तक रेत के ढलान देकर उस पर हाथियों की सहायता से चढ़ाया गया था। इसकी सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है कि ऊँचाई 216 मीटर होने के बाद भी इसकी छाया धरती पर नहीं बनती।
मंदिर प्रांगण में नंदीश्वर का विग्रह भारत भर में सबसे बड़ा विग्रह है। मंदिर में रामायण का रंगीन चित्रांकन प्राकृतिक तरीके से किया है। 108 शिवलिंग एक कतार में स्थित हैं।
मंदिर आपका ध्यान बरबस ही आकर्षित करता है। मुझे तो ऐसा लग रहा था जैसे मैं शिल्पियों के पुरम में आ गया हूं। राजेन्द्र चोल के समुद्री अभियान सुदूर एशिया जो हुए थे, उन्हें मैं हकीकत में दिखने लगा था। कभी समुद्री सिपाही तो कभी चोल सेनापति बन जाता, कभी इंडोनेशिया, कभी वियतनाम तो कभी मलेशिया सेना लेकर निकलने को तैयार रहता। ऐसा लगता है कि मैं मंदिर की चित्रकारी तो न कर पाता पर सहयोगी जरूर रहता हूँ।
तंजौर से 45 किमी दूर कुम्भकोणम है जिसे चोल काल के मंदिरों का नगर कहते हैं, यहां लगभग 100 मंदिर हैं लेकिन विनय ने कहा कि आज बहुत थक गए हैं इसलिए आज सोया जाये। समय कम था और सुबह ही त्रिची के श्रीरंगम मंदिर जाना था इस कारण मन मारकर विनय से सहमत होना पड़ा।
सुबह तंजौर से त्रिचनापल्ली श्रीरंगम के श्रीरंगनाथ मंदिर आ गये। इस मंदिर की मान्यता है कि जब रामजी रावण का वध करके लंका से लौटने लगे तब विभीषण के अनुरोध पर यहां विराजे। मंदिर कावेरी नदी पर श्रीरंगम टापू पर है।
मंदिर का गोपुरम भारत में सबसे बड़ा है, 1008 खम्भे के आधार पर यह मंदिर टिका है। यह वैष्णव वेदांती रामानुजाचार्य की कर्मभूमि भी है। उनकी देह 900 वर्षों से योग मुंद्रा में मंदिर में सुरक्षित रखी है।
“रूपं स्वयं स्वरूपं रामानुजं”
यहां से आज ही मदुरै मीनाक्षी माता पहुंचना था, बस के माध्यम से हम आगे की यात्रा में चले, रास्ते में मृत्यु यात्रा देखने को मिली, गांव वाले घंट, घड़ियाल बजाते ले जा रहे थे।
दक्षिण भारत की चाय का स्वाद बहुत अच्छा है, अधिकतर जगहों पर चाय बनाने के पात्र पीतल के होते हैं, चाय भी स्थानीय रहती है अतः दोनों के मिलन से स्वाद बढ़ जाता है।
हम दोपहर 3 बजे मदुरै मीनाक्षी माता पहुँच गये। दक्षिण भारत के कई मंदिरों में स्पेशल टिकट के माध्यम से दर्शन जल्दी हो जाता है। मंदिर भारत का सबसे भव्य और अब तक का सबसे खूबसूरत मंदिर था। मूर्तियां इतनी सजीव हैं कि जैसे पत्थर मालूम पड़ता है बोल पड़ेंगे।
मंदिर का इतिहास दो हजार वर्ष पूर्व संगम काल का है। 1310 इस्वी में अलाउद्दीन खिलजी का सेना पति मालिक काफूर जो कि एक हिजड़ा था, ने मंदिर नष्ट करके लूट लिया था। मंदिर का पुनर्निर्माण 15वीं सदी में हुआ है।
मण्डपम में 1000 खम्भे लगे हैं जिसमें प्राचीन मंदिर का अवशेष भी रखा गया है लेकिन उन्हें देखने के लिए कम से कम 4 घण्टे चाहिए। इस मंदिर को देखने के बाद मन में प्रश्न उठा कि किस कारण से भारत सरकार दक्षिण के मंदिर को प्रमोट नहीं कर रही है? पूरा कोस्टल एरिया (समुद्री किनारा) इसाई बना दिया गया है, गरीब क्षेत्र में मिशनरियां धर्मान्तरण के लिए सक्रिय रहती हैं।
भारत के नेता ही विदेशी संस्कृति के एजेंडे के लंबरदार रहे हैं, इससे उन्हें अच्छा माल मिलता रहा है और बच्चों के लिए राजनीति का ग्राउंड बन जाता है। हिंदू मुस्लिम इसाई सिर्फ भारत भूमि में भाई रूपी राजनीतिक नारा दिया गया।
मकसद चुनाव था, थोड़ा इतिहास गड़बड़ होने से क्या होता है? सांस्कृतिक सामाज्यवाद के अंधड़ भारत को नुकसान पहुंचाये भी तो क्या? नेता की कुर्सी बची रहनी चाहिए।
मदुरई से रामेश्वरम के लिए शाम को निकलना हुआ और रात 12 बजे पहुंच गये। वहीं मंदिर के बगल ही होटल मिल गया जहां रात में आराम कर शरीर को पुनः कल के लिए तैयार करना था लेकिन पहुँचने के चक्कर में भोजन दिन का हो नहीं पाया और रात्रि में 12 बजे मंदिर पहुंचे तो दो समस्या हुई एक राक्षसी बेला दूसरा कुछ मिला नहीं तो जल पीकर ही सोना पड़ा और सुबह भी जब तक कि दर्शन न हो जाये कुछ खा नहीं सकते थे।
सुबह मंदिर का वाह्य दर्शन और समुद्र स्नान करने के बाद 24 कुंड (कूप) स्नान हुआ, इनके जल में शारीरिक व्याधियां दूर करने की अद्भुत शक्ति है। इसी जल से श्री राम ने रामेश्वरम में रावण के वध के बाद जो ब्रह्म हत्या का पाप लगा था, उसके निवारण हेतु यज्ञ किया था। यही एक मात्र सनातन धर्म है जिसके युद्ध में भी धर्म है। यह जल अलग – अलग तीर्थों से लाये गये थे। स्नान के बाद सबसे पहले अग्नि तीर्थ जहां सीता माता ने अग्नि परीक्षा दी थी, उसके दर्शन हुए फिर रामनाथ (रामेश्वर) भगवान के दर्शन की पंक्ति में लग गये, कुछ घण्टे बाद मुख्य विग्रह तक पहुंच गये और मंत्रोच्चार के बीच दर्शन हो गया।
मंदिर का गलियारा भारत के मंदिरों में सबसे बड़ा गलियारा है। यहां का शिवलिंग त्रेतायुग में भगवान राम द्वारा स्थापित है। कहा जाता है जो भगवान द्वारा स्थापित होता है वह सबसे अधिक शक्तिशाली होता है। रामेश्वरम स्वामी की महिमा अपार है। पूजा हजारों वर्षों से निरन्तर चल रही है। इस मंदिर का निर्माण 1163 इस्वी में श्रीलंका के राजा पराक्रम बाहु ने करवाया था जिसका उल्लेख यहां रखे शिला पट में भी मिलता है। 15वीं सदी में मंदिर का जीर्णोद्धार उडैयान सेतुपति ने करवाया था।
स्कंद पुराण के अनुसार यहां कुल 64 तीर्थ हैं। विल्लुरी तीर्थ समुद्र के किनारे मीठे जल का कूप है। जब सीता माता को प्यास लगी तो प्रभु श्रीराम ने वाण की नोक से जल निकाला था यह मीठे जल का स्रोत आज भी यहां मौजूद है।
यहां गंधमादन नामक पर्वत की छोटी पहाड़ी है, यहीं से हनुमान जी ने समुद्र लांघा था। त्रेतायुग में राम जी यहां पैदल ही आये थे। यह शंख के आकार का रामेश्वर द्वीप पहले मुख्य जमीन से जुड़ा था बाद में 1480 इस्वी के चक्रवात में यह भूमि से अलग होकर टापू बन गया जिसे मुख्य भूमि से पाम्बन पुल से जोड़ा गया है।
1964 इस्वी के चक्रवात में जब पूरे रामेश्वरम के समुद्र में उथल – पुथल मची थी तब द्वीप पर रामेश्वर स्वामी का प्रांगण ही ऐसा था जहां सब सुरक्षित रहा।
हनुमान शिला, पाद चिन्ह, लक्ष्मण तालाब आदि के दर्शन हुए जो रामनाथन पुरम जिले में पड़ते हैं और जिसे पाम्बन पुल रामेश्वर द्वीप से जोड़ता है।
यहीं पर भारत रत्न अब्दुल कलाम का घर और समाधि स्थल है। उनके घर को देख कर स्पष्ट होता है कि यदि कोई देश के लिए कुछ करना चाहे, सपने बुने और संकल्प ले कर उस पर कार्य करे तो वह अवश्य पूरा होता है। उनकी समाधि भी हिंदुओं के लिए एक तीर्थ की तरह हो गयी है। वैसे भी कलाम साहब वास्तव में एक संत थे जिनका पूरा जीवन राष्ट्र की सेवा में गुजरा है।
रामेश्वर से 15 किमी दूरी पर धनुष्कोटि है, यहीं से प्रभु राम लंका के लिए समुद्र पर पुल बांध कर गये थे। लंका यहां से 30 मील दूर है, रात में वहां की लाइट दिखाई देती है। 1964 इस्वी के सुनामी के पूर्व यह आज की तरह भुतहा न होकर यात्रियों के लिए मुख्य स्थल या कहें मुख्य नगर यही था।
सुनामी से ध्वंसित पूरा नगर अभी भी दिखता है। कई मंदिर, रेलवे स्टेशन, पोस्ट आफिस, फायर ब्रिगेड, पुलिस थाना और सामान्य लोगों के उजड़े घर सभी के अवशेष हैं। इस आपदा में 5000 लोगों के साथ पूरा पाम्बन पुल और उसपर पैसेंजर ट्रेन जिसमें 100 यात्री थे, सब समुद्र में समा गया था।
यहीं पर हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी का मिलन होता है। प्राकृतिक नजारा बहुत सुंदर रहता है। प्रभु राम के पुरुषार्थ का गवाह वह समुद्र है। यहीं भगवान राम ने समुद्र की तीन दिन अर्चना करके रास्ता मांगा था लेकिन जब जड़ समुद्र के समझ में नहीं आया तब राम जी ने कहा :
बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥
रास्ते में “कोदण्ड” नामक स्थान है जहां राम, लक्ष्मण, सीता जी के साथ विभीषण जी का भी मंदिर है, यहीं पर श्रीराम से पहली बार विभीषण की भेंट हुई थी। रामेश्वर से प्रभु के यादें लेकर रात्रि में ही हम कन्याकुमारी के लिए चल दिये।
नोट : ‘रामेश्वरम और दक्षिण भारत की यात्रा’ तीन भागों में है, पिछला अंक : ‘रामेश्वरम और दक्षिण भारत की यात्रा – भाग १’ और अगला अंक है : ‘कन्याकुमारी दर्शन और वापसी’
नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हैं।
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Bahut hi sundar yatra ka vardan h etna achha laga ki jaise hamne sari yatra khud hi kar li h uchhakoti ka lekhan 👍👍👌👌
Bahut badhiyaa Dhananjay bhai … Atisunder rachana ..