पत्रकार दानिश सिद्दीकी को अफगानिस्तान में तालिबान ने जिस तरह से मारा है उससे स्पष्ट पता चलता है कि इस्लाम में बोलने की आजादी नहीं है। दानिश से गलती यह हुई कि उसने अफगानिस्तान को भारत और तालिबानियों को हिन्दू समझने की भूल कर बैठा। उसे इस्लाम के तंग नजरिये का तनिक भी ख्याल नहीं था।
मुसलमान की कमी यह है कि ग़ैर इस्लामिक देश में वह सेकुलरिज्म और वाक स्वतंत्रता की बात करता है जबकि इस्लामिक देश में गैरमुस्लिमों का धर्मांतरण और शरिया पर जोर देता है। हमें मुस्लिमों के साथ भारत के मुस्लिमों की स्थिति का अवलोकन करना है। पहले इस्लाम एक मजहब के रूप में कसौटी पर लिया जाय।
इस्लाम धर्म में साधारण रियाया का मतलब होता है गौण। इस्लाम किसको महत्व देता है? वह मुल्ला, मौलवी, आलिम, शेख को हक अता करता है। औरत के हक न के बराबर हैं। पुनः प्रश्न उठता है कि यदि इस्लाम में खमिया थीं तब यह विश्व का नम्बर दो मजहब कैसे है? इस्लाम के विस्तार का अध्ययन करने पर जो चीज निकल कर आती है वह है इनके विस्तार में जो तीन चीजें महत्वपूर्ण हैं।
पहला है, जबरदस्त प्रजनन – भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश और अफ्रीकी देश इसके उदाहरण हैं। दूसरा प्रलोभन से धर्मांतरण और आखिर है ताकत के दम पर धर्मांतरण, जैसे पाकिस्तान में ग़ैर मुस्लिमों का किया जा रहा है।
मुसलमान जब किसी ग़ैर मुस्लिम से मिलता है तो उसे लगता है कि जल्द ही यह भी इस्लामी खूबियों को जानकर मुसलमान बन जायेगा। भारत में भी मुस्लिमों की तादाद के पीछे भी यही तीन कारण हैं। यदि इस्लाम के मजहबी पहलू को देखें तब इतना मार-काट कत्लों – गारद क्यों है?
मुस्लिम ही एक मात्र कौम है जहाँ सांप की तरह मुस्लिम ही मुस्लिम को मारता है। पाकिस्तान, अफगानिस्तान, सीरिया, नाइजीरिया, सूडान, ईरान, यमन आदि इसके उदाहरण हैं। दूसरा, इसमें अरबी ही उच्च दर्जे के मुस्लिम हैं तो वहीं भारतीय उपमहाद्वीप और अफ्रीका वाले मुस्लिमों की स्थिति काफ़िर यानी धर्मविरोधी से थोड़ा ऊपर है।
बटवारे में सपनों के देश पाकिस्तान गये भारत के मुस्लिम केवल ‘मुहाजिर’ बन कर रह गये। इराक में ISIS के उत्थान के समय मुहाजिर और अल्लाह की सेवा में गये ग़ैर अरबी मुसलमान पुरुषों को सामान ढ़ोने और टट्टी साफ करने में लगाया गया तो वहीं उनकी ख़ातूनों को एक रात में कई-कई मुजाहिदीन की रात रंगीन करने की चाकरी मिली।
इस्लाम का सबसे झूठा शिगूफा यह है कि कहने को यह समानता वाला मजहब है लेकिन वास्तव में सही मुस्लिम अरबी फिर मध्य एशिया के हैं और बाकी चाकर हैं। इन्हें परीक्षा से तो गुजरना होगा लेकिन यह अरबियों की श्रेणी कभी नहीं पा सकते हैं।
इस्लाम में इसे काटो उसे मारों का चलन क्यों है? धर्म का अर्थ है संयम के साथ स्वयं का उत्थान और साथ ही साथ अन्य का भी। जिसमें मात्र अपने खुद की श्रेष्ठता हो, वह धर्म नहीं होता है। वैसे भी इस्लाम ज़र, जोरू और जमीन के लिए इकट्ठा हुवे लोगों का समूह है जिसका मजहब से कोई लेना देना नहीं। इसकी जांच आप 72 हूरों से कर सकते हैं।
भारत का मुसलमान कभी भय और लालच से अपनी पूजा पद्धति बदल लिया जबकि संस्कृति में वे भारतीय ही हैं। उन्हें चाहिए जलालत को छोड़े और पुनः घर वापसी करें। समय इस्लाम के अनुकूल आने से रहा, वह अपने कोटे के सुख ले चुके हैं, अब भी वह मुसलमान ही रहता है तो रोज अपनों के खून बहायेगा और बहता देखेगा।
विश्व में 56 मुस्लिम देशों में से एक – दो अपवाद हो सकते हैं लेकिन खून सभी ओर बह रहे हैं और मुसलमानों के बस में नहीं है कि इसे रोक सकें इसलिए सीरिया, इराक, नजीरिया, बांग्लादेश, पाकिस्तान, म्यामांर, श्रीलंका के ऐसे हालात आये दिन बनते रहेंगे, मजहबी लोग खून पीते रहेंगे। शांति का ख्वाब पैगंबर से चालू है लेकिन आज भी चालू ही है।
भारत में भी मुसलमानों के मौज के दिन पूरे हो चुके हैं आगे का विपरीत समय है क्योंकि उनकी श्रद्धा अरब में है। भारत काफिरों का मुल्क है जिसमें वे दारुल हर्ब से दारुल इस्लाम का स्वप्न सजाये हुए हैं। आज तक उन्होंने न भारत को स्वीकार किया न ही भारतीयों ने उन्हें। एक बात पता होनी चाहिए तुम कितनी भी नमाज पढ़ लो, कितनी दाढ़ी बढ़ा लो, अरब क्या तुम्हें तो उनका आतंकवादी संगठन भी मुस्लिम मानने को तैयार नहीं है। तुम जुगलबंदी का गीत मरने तक गाते रहना।
नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।
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