विश्व का वह कौन सा देश है जहाँ असमानता नहीं है। लेकिन भारत में असमानता को दूर करने का सबसे आसान तरीका आरक्षण है। अब यह कितने साल तक ऐसे ही रहेगा? आज इस पर प्रश्न करने का मतलब अपराध करने जैसा है।
लेकिन भारत में जिस तरह से जातियों को एक कंप्लीट पैकेज के तहत लड़ाया गया। देश की प्रगति कैसे हो पायेगी जब एक वर्ग को दूसरे के सामने खड़ा किया गया हो?
जब आरक्षण सभी जगह चाहिए तो 50 फीसदी की योग्यता कैसे निर्धारित हो? और जो 50 फीसदी है भी उनमें छोभ है कि मेरी आने वाली पीढ़ी एक नम्बर कम होने से अयोग्य हो जायेगी।
क्या मैकाले, विलियम जोंस, मैक्समूलर आदि सफल नहीं हो गये? क्या अग्रेजों की प्राण प्रतिष्ठा नहीं कर दी गई? तथाकथित निचले तबके जो अब उच्च हो चुके हैं, उनको लगता है मुसलमान और अंग्रेज भले थे क्योंकि उन्होंने सवर्णों से सत्ता छीनी। यह भारत देश उनका कभी नहीं था। आज जो दारू की एक बोतल और चंद रुपये के लिए वोट बेच दे रहा है वह युद्ध के समय क्या मुखबिर नहीं बना होगा।
कुछ अच्छे कार्य दिखा कर साधारण लोगों को मूर्ख बनाया जा सकता है। उच्च वर्ग वोट देने में विवेक का इस्तेमाल करता है। निम्न वर्ग, समुदाय के नेता के कहने और त्वरित लाभ की जुगत में वोट करता है।
सामान्य वर्ग का व्यक्ति 50 फीसदी नौकरियों में भागीदारी कर सकता है। ग्राम स्तर पर प्रधान में 65 प्रतिशत और राज्य और केंद्र स्तर पर 80 प्रतिशत पर उसे चुनाव लड़ने का अधिकार है। जबकि दलित को पूरे 100 फीसदी का अधिकार मिला है। यहाँ ओबीसी के अधिकारों में भी कटौती की गयी है।
टैक्स कोई भरेगा सब्सिडी कोई और पायेगा। जो लाभ पायेगा वही गाली भी देगा, चिल्लायेगा कि मेरे साथ अन्याय हुआ है। जब आप किसी को कुछ मुफ्त देते हैं तो वह उसका मूल्य नहीं समय पाता।
राजस्थान में पिछले दिनों विश्वविद्यालय में प्रवक्ता का पद माईनस में अंक रहने के बाद भी मिला क्योंकि अभ्यर्थी खास वर्ग से था। यह बच्चों को कौन सी शिक्षा दे पायेगा?
समानता के लिए न्याय भी खो जा रही है। सामाजिक न्याय के लिए समानता विखरती जा रही है। राजनीति की बिसात पर सब मोहरें सत्ता की ओर ही ले जाती हैं।
यदि गुलामी से पहले स्वतंत्र भारत की स्थिति देखें तो भारत में अंतिम स्वतंत्र राजा पृथ्वीराज चौहान हुए उनके बाद के बने हिंदु राजा अपनी स्वतंत्र नीति को लागू नहीं कर पाये।
मुस्लिम और अंग्रेजों ने हिंदु राजाओं को कठपुतली इसलिए बनाये रखा ताकि सत्ता की स्वीकृति तथा दूरस्थ क्षेत्रों में विद्रोह की स्थिति में पहला शिकार स्थानीय राजा ही हो। राजनीति कभी नहीं चाहती कि जातीय साम्यता हो। यदि किसी भी पक्ष को सत्ता द्वारा दुष्प्रचारित किया जायेगा तो उसका व्यवसायिक पक्ष, अच्छी बातें स्वत: समाप्त हो जाएँगी।
वर्णव्यवस्था से कार्यो का बटवारा, सुरक्षा की भावना और गतिशीलता की वजह ने प्राचीन भारत को ‘सोने की चिड़िया’ और ‘विश्वगुरु’ बनाया। पूरे विश्व के लोग भारत में शिक्षा और व्यापार के लिये लालायित रहते थे।
प्राचीन हिंदु शासन में बहुत से राजा शुद्र थे। नंद वंश या सुहलदेव अथवा कर्ण को ही देखें उनकी योग्यता के कारण ही दुर्योधन ने उसे अंग देश का राजा बना दिया। जिसका कोई विरोध महाभारत में कही नहीं है।
संजय एक शुद्र थे जिन्हें कृष्ण द्वारा धृतराष्ट्र का संवाददाता नियुक्त किया गया। संम्बुक कि कथा बाल्मीकि रामायण से ली जाती है जबकि बाल्मीकि जी ने सात कांड की रचना की थी लवकुश कांड बाद में जोड़ा गया जिसमें यह कथा आती है।
विदेशी शासनतंत्र को भारत से क्या मतलब था? उन्हें तो अपनी सुरक्षा और धन चाहिये था। उसके लिए जरूरी था कि भारत मे आंतरिक कलह चलती रहे, सभी अपने स्वार्थों के लिए लड़ने को तैयार रहें।
अधिकार की शिक्षा खूब बाटी गई, कर्तव्य नहीं सिखाया गया। इसे जागीरदारी और जमींदारी प्रथा से समझ सकते हैं, विद्रोह होने पर इन्हें बदल दिया जाता था।
रोम को जब दासों ने पराजित किया तो उस पूरे इतिहास को हटा कर कह दिया गया कि एक जलजला आया जिसमें सेना छिन्न भिन्न हो गई। चीन ने अंग्रेजों की बनाई इमारतों को गिरवा दिया। जिससे आगे आने वाली पीढ़ी विदेशियों को ही पिता न मान बैठे।
लेकिन भारत में हम अपने बच्चों को जो इतिहास पढ़ाते हैं उसमें विदेशी शासकों की कीर्ति का वर्णन है। उसे पढ़ के लगेगा कि भारतीय ही दोषी थे। इन्होंने कुप्रथाओं और जातिपाति को बढ़ाया और उसे मुस्लिम और खास कर अंग्रेजो ने दूर किया।
इसके अंतःकरण में सरकारी स्तर पर जो इतिहास सम्प्रेषित किया गया वह मुस्लिम और इंग्लिश इतिहासकार द्वारा लिखा गया था। उसे भारतीय इतिहासकारों ने उदारता पूर्वक उतार लिया।
अब यहाँ एक विचारणीय प्रश्न है कि विदेशी जो आप पर शासन करेगा, वह आप की सभ्यता/ संस्कृति को कभी सही ठहरा सकता है?
महान इतिहासकार अर्नाल्ड जे टायनबी (Arnold J. Toynbee) ने कहा था कि “विश्व के इतिहास में अगर किसी देश के इतिहास के साथ सबसे ज्यादा छेड़छाड़ की गई है तो वह भारत का इतिहास है।”
आज भी आप भारत में देख सकते हैं कि अंग्रेज बनने में लोग कितना फक्र महसूस करते हैं। मैकाले ने 1835 में कहा था कि अंग्रेजों के पुस्तकालय की एक आलमारी भारत और अरब के समस्त ज्ञान से ज्यादा है। जबकि विश्व को दशमलव से लेकर नौ तक कि संख्या भारत की देन है। आज ‘वेद’ भारत में वर्जित है लेकिन अंग्रेज इसपर रिसर्च कर रहे हैं।
विसेंट आर्थर स्मिथ (Vincent Arthur Smith) ने अपनी पुस्तक “अर्ली हिस्ट्री आफ इंडिया” में सिद्ध किया कि भारत हमेशा विदेशों से शासित किया जाता रहा है। वह तो जब ‘सम्राट अशोक के शिलालेख’ खुदाई में मिले तो हकीकत ही बदल गयी।
स्मिथ जैसे उपनिवेशिक इतिहासकार भारत को कमजोर करने के लिये उस सिकन्दर को विश्व विजेता बनाए जो एक सीमान्त राजा पोरस से हार कर जब भाग रहा था, रास्ते में मालव जाति की महिलाओं से बदसलूकी करने पर एक मालव ने कुदाल से प्रहार किया जो उसके मृत्यु का कारण बना।
भारतीय इतिहासकारो जैसे रोमिला थापर आदि ने तो स्मिथ को ही अभिलेखीय साक्ष्य बना दिया।
समाज की किसी नेता को कोई चिंता नहीं रही है, सत्ता की जुगत में ही लगा रहा है। सत्ता के खेल को बचाने के लिए 1901 में आरक्षण का कुचक्र अंग्रेजों ने रचा। आरक्षण के रूप में एक ऐसा हथियार मिल गया था अंग्रेजों को जिसने पूरी राजनीति को संरक्षण के नाम पर पेण्डुलम बना दिया। सब आपस में ही लड़ गये।
जब अंग्रेजों को लगा गांधी नियंत्रण में नहीं आ रहे हैं तब एक हाथ से जिन्ना को बढ़ाया दूसरे हाथ से अंबेडकर को। यदि आप विदेशी भाषा पढ़े हैं और विदेश में रहे हैं तब यह कैसे हो सकता है कि आप उसके लिए साफ्ट कार्नर न रखें, उससे प्रभावित न हो।
अंबेडकर जो स्वयं बड़े चतुर थे, भारत की आजादी के समय कह रहे थे कि हमें सवर्णों से आजादी देने के बाद अंग्रेज भारत छोड़े, भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध भी किया। उन्हें आजादी के आंदोलन से कोई मतलब नहीं था। अंग्रेजों को पढ़ कर वेदों की आलोचना की, वैसे भी उन्हें संस्कृत भाषा आती नहीं थी। वह अंग्रेज नीतियों पर चल कर भारतीय समाज को कमजोर ही कर रहे थे।भारत के खिलाफ सिर्फ रोते रहे अंततः कायरता का आलम्बन लेकर हिन्दु धर्म छोड़ अपनी जाती को सूर्य वंशी कहने लगे।
भारत में तो विदेश से पढ़ के आने वाला वैसे भी काला अंग्रेज बन जाता है जो अपने लोगों को ही काट खाने दौड़ता है।
विदेशी शासक यही के राजाओं को अपने ही लोगों का दुश्मन बना रही थी।
अब सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है कि 72 साल तक जो आरक्षण दिया गया, उससे कितनों को लाभ हुआ और राजनीतिक हथकंडा अभी कितने वर्षों तक चलेगा? जिनका प्रतिनिधित्व पूरा हो गया वो बाहर क्यों नहीं गये? जबकि अंबेडकर को ही माने तो उन्हीने स्वयं कहा था कि यदि आरक्षण दस साल से अधिक रहा तो इस पर नेता राजनीति की रोटी सकेंगे।
सामाजिक चिंतक नानकी पालखीवाला ने वी पी सिंह के उस वक्तव्य पर टिप्पणी की जब 1992 में अन्य पिछडा वर्ग को आरक्षण दिया गया कि अब मैं चैन से मर सकता हूँ, तब उन्होंने कहा आप चैन से मर सकते हो लेकिन आने वाली पीढियां चैन से जियेगी नहीं।
जिस तरह से अब नये – नये वर्ग द्वारा नई – नई आरक्षण की मांग की जा रही है और अपने को पिछड़ा दिखाने की होड़ लगी हुई है। ट्रेन रोकना, सड़क जाम और तोड़फोड़ आये दिन होती है, वह आसार तो बना ही देता है कि अब इसे खत्म करने के लिए सिविल वार की ही जरूरत पड़ेगी।
Bahut sunadar bataya,bahut sare fact diye aapne.sach me yhi samsya hai
Bahut jabarjast👌👌👌👌
Thx 💐💐