प्रत्येक प्राणी के हृदय में जन्म से ही असंख्य वृत्तियाँ विद्यमान रहती हैं किन्तु उनमें ‘जिज्ञासा’ नामक वृत्ति को बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इस वृत्ति के बिना प्राणी का जीवन निरर्थक ही रहता है। इसी वृत्ति के कारण प्राणी ‘सर्वज्ञ’ बनना चाहता है। वह संसार के सभी पदार्थों के ज्ञान के लिए सदैव प्रयत्नशील बना रहता है। वस्तुतः वह स्वाभाविक वैज्ञानिक ही है। जिज्ञासा के अनुसार ही उसे ज्ञान की उपलब्धि होती है।
ज्ञान तीन प्रकार के हैं- १. भौतिक २. दैविक ३. आध्यात्मिक।
भौतिक ज्ञान से स्थूल रूप, दैविक ज्ञान से सूक्ष्म रूप तथा आध्यात्मिक ज्ञान से कारण रूप का बोध होता है।
भारतीय दर्शनों के आर्ष-सूत्र-वाङ्मय पर दृष्टि डाली जाए तो हमें उनमें तीन प्रकार की जिज्ञासाएँ दृष्टिगोचर होती हैं –
- ‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा’ (वेदान्त सूत्र) : वेद व्यास (बादरायण)।
- ‘अथातो धर्मजिज्ञासा’ (मीमांसा सूत्र) : ऋषि जैमिनी।
- ‘अथातो शक्तिजिज्ञासा’ (शक्ति सूत्र) : ऋषि हयग्रीव एवं ऋषि अगस्त्य।
ध्यान देने से स्पष्ट होता है कि एक ओर जहाँ वेद व्यास की जिज्ञासा का केंद्र ‘ब्रह्म’ था तो दूसरी ओर ऋषि जैमिनी की जिज्ञासा का केंद्र ब्रह्म न होकर ‘धर्म’ था। एक के ध्यान एवं उपासना का विषय निर्गुण, निराकार, निरंजन परात्पर सत्ता थी तो दूसरे के ध्यान एवं उपासना का विषय वेद एवं यज्ञ था। व्यास का ‘वेदान्त दर्शन’ यद्यपि निर्गुण परमात्मा की सत्ता को स्वीकार करके उसके स्वरूप की मीमांसा करता रहा; किन्तु जैमिनी का ‘मीमांसा दर्शन’ परमात्मा की सत्ता को अस्वीकार करते हुए स्वर्ग के साधनभूत वेद, धर्म, यज्ञ एवं यज्ञीय कर्म आदि की मीमांसा में रत रहा।
इन दोनों ही दर्शनों की जिज्ञासाओं में किसी परात्पर, निरपेक्ष, सार्वभौम, नित्य एवं सर्वादिकारणभूता परा शक्ति के चिंतन की कथमपि आवश्यकता नहीं थी। फलस्वरूप तांत्रिकों ने वही कार्य किया, जिसे ब्रह्म-जिज्ञासुओं व धर्म-जिज्ञासुओं ने नहीं किया और इसीलिए उन तांत्रिकों की जिज्ञासा का विषय परात्परा स्वातंत्र्य शक्ति-समन्विता, अद्वितिया, सर्वादिकारणभूता, अजा, एका, ब्रह्मस्वरूपा एवं अवांगमनसगोचरा, अद्वैत महाशक्ति का अनुसंधान बना; जिसके परिणाम स्वरूप उनकी जिज्ञासा ने ‘अथातो शक्ति जिज्ञासा’ के रूप में आकार ग्रहण किया।
इसी शक्ति को ‘बह्वृचोपनिषद’ में कामकला, शृंगारकला, एका, सर्वाकारा महात्रिपुरसुंदरी, परंब्रह्म, आत्मा, ब्रह्मसंवित्ति, सच्चिदानंदलहरी, चिन्मात्र, षोडसी, श्रीविद्या, सुंदरी, बाला, अम्बिका, चामुण्डा, चण्डा, वाराही, सावित्री, सरस्वती, गायत्री और ब्रह्मानंदकला कहा गया। ‘भावनोपनिषद’ में इन्हें कामेश्वरी सदानंदघना पूर्णा स्वात्मैक्यरूपा देवता एवं ‘त्रिपुरातापिन्युपनिषद’ में भगवती त्रिपुरा, परमा विद्या, त्रिपुरा परमेश्वरी, त्रिपुरा शक्ति, महाकुण्डलिनी, कामख्या, तुरीयरूपा, तुरियातीता, सर्वोत्कटा, सर्वमंत्रासनगता, पीठोपदेवतापरिवृता, सकलकलाव्यापिनी, त्रिकुटा, त्रिपुरा, परमा माया, श्रेष्ठा, परा भगवती लक्ष्मी, परा वैष्णवी आदि कहा गया। ‘सौभाग्यलक्ष्म्युपनिषद’ में इन्हें ही तुरीयरूपा, सर्वोत्कटा, पीठोपपीठ-देवतापरिवृता, चतुर्भुजा, श्रियं, हिरण्यवर्णा आदि कहा गया।
‘त्रिपुरोपनिषद’ की उस ‘एका स आसीत् प्रथमा सा’, ‘त्रिपुरातापिन्युपनिषद’ की ‘सैवेयं भगवती त्रिपुरेति’, ‘बह्वृचोपनिषद’ की ‘महात्रिपुरसुन्दरी, परब्रह्म, पञ्चदशाक्षरी महात्रिपुरसुन्दरी’ एवं ‘इच्छाशक्तिर्महात्रिपुरसुन्दरी’ देवी एवं उनकी स्वात्मभूता ‘श्रीविद्या’ एवं ‘श्रीचक्र’ के स्वरुप की विवेचना ही शाक्तदर्शन का मुख्य प्रतिपाद्य विषय बना।
शाक्तदर्शन एवं शाक्तोपासना का आर्ष सूत्र है – ‘अथातः शक्तिजिज्ञासा।’
शाक्त ही क्यों, आद्य शङ्कराचार्य के चारों पीठों में प्रारम्भ से आज तक शक्ति के रूप श्रीयंत्र एवं श्रीविद्या की अनवरत उपासना चली आ रही है; क्योंकि आद्य शङ्कराचार्य शैव होते हुए भी भगवती महात्रिपुरसुंदरी के परमोपासक थे।
हयग्रीव, अगस्त्य, दत्तात्रेय, दुर्वासा, परशुराम, गौड़पाद, शङ्कराचार्य, भास्कराचार्य, आदि आचार्यों ने श्रीविद्या के प्रतिपादक ग्रन्थों का प्रणयन तो किया ही; पराभट्टारिका राजराजेश्वरी भगवती महात्रिपुरसुंदरी या भगवती ललिता की उपासना भी की।
वेदान्त दर्शन के ब्रह्म का ‘स्वभाव’ ही ‘प्रकृति’ शब्द के रूप में व्यवहृत होता है और यह ‘प्रकृति’ शब्द स्त्री वाचक है। वास्तव में उस परमेश्वर (ब्रह्म) की प्रकृति को ही ‘शक्ति’ कहते हैं। परमेश्वर वस्तुतः अकर्ता हैं। अनंत ब्रह्माण्डो का उत्पादकत्व, पालकत्व आदि अनंतानंत ऐश्वर्यों की अधिष्ठात्री महालक्ष्मी के संबंध से ही परमेश्वर में होता है। आध्यात्म रामायण में सीता ने हनुमान को बताया है कि रावण वध आदि सभी कार्य मैंने ही (मूलप्रकृति ने) किये हैं।
परमेश्वर से इस परमेश्वरी परा शक्ति को कभी भी अलग नहीं किया जा सकता है। स्वतंत्र से स्वातंत्र्य की सत्ता भिन्न नहीं हो सकती। जिस प्रकार व्यक्ति से व्यक्ति की कार्य करने की शक्ति अलग नहीं हो सकती ठीक उसी प्रकार परमेश्वर से स्वातंत्र्य शक्ति परा शक्ति अलग नहीं हो सकती। यह परा शक्ति परमशिवाश्रया है। इसे दर्शन शास्त्रों में ‘ब्रह्मश्रया माया’ भी कहा गया है। यही परा शक्ति जिज्ञासा, इच्छा-ज्ञान-क्रियात्मक होने के कारण श्रीविद्या, त्रिपुरा, परमा विद्या, त्रिपुरा परमेश्वरी, त्रिपुरा शक्ति, महाकुण्डलिनी, कामख्या आदि उपरोक्त नाम से जानी जाती है।
लेख के आधारभूत ग्रन्थ : १. श्रीभैरवी महाविद्या (चौखम्बा प्रकाशन), २. श्रीविद्या साधना (चौखम्बा प्रकाशन) ३. रामायण मीमांसा
सुंदर,अतिसुन्दर आत्मपरक और शक्ति जिज्ञासु🙏
धन्यवाद धनञ्जय जी। जय माता दी 🙏🙏