भगवान शिव के शरभावतार की कथा शिव महापुराण, लिंग पुराण, स्कन्द पुराण आदि पुराणों में मिलती है। प्रस्तुत लेख में कथा का आधार लिंग महापुराण है।
हिरण्यकशिपु का वध करने के उपरान्त भगवान विष्णु नृसिंह रूप में क्रोध से गर्जन कर रहे थे। उस समय नृसिंह भगवान को देख कर अपने प्राणों की रक्षा में तत्पर सभी देवता, दानव, नाग, सिद्ध, साध्य आदि भी किसी तरह धैर्य तथा बल धारण कर उस स्थान को छोड़ कर सभी दिशाओं में भाग गए।
उनके जाते ही मायामय भगवान नृसिंह हजाररूप वाले, सभी ओर पैरों वाले, सभी ओर भुजाओं वाले, हजार नेत्रों वाले, चन्द्र-सूर्य-अग्नि रूप नेत्रों वाले होकर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को व्याप्त करके स्थित हो गए।
तब लोकालोक (मर्यादा) पर्वत पर एकत्र हुए देवता, ब्रह्मा, साध्यगण, यम, मरुद् गण आदि उनकी विविध प्रकार से स्तुति करने लेगे। किन्तु विविध भावों से युक्त नाना विध स्तुतियों से प्रार्थना किए जाने पर भी भगवान नृसिंह जब शान्त नहीं हुए तब ब्रह्माजी सहित सभी देवता भगवान शिव का ध्यान करके नृसिंहरूपधारी विष्णु के विषय में सब कुछ बता कर अपनी रक्षा के लिए उनसे प्रार्थना करने लगे।
अत्यन्त आर्त भाव से प्रार्थना किए जाने पर देवाधिदेव महादेव ने उन देवताओं को अभयदान दिया और आश्वस्त किया कि ‘मैं उनका संहार करूँगा’। तदन्तर शरभ का रूप धारण कर महादेव असुरभक्षक नृसिंह भगवान के पास पहुँचे और उन्हें शान्त किया।
भगवान शिव ने पहले वीरभद्र को नृसिंह भगवान को समझने के लिए भेजा किन्तु जब नृसिंह भगवान ने उनकी बात नहीं मानी तब वहाँ भगवान शिव हजार भुजाओं वाले, जटा धारी, सिर पर अर्धचन्द्र धारण किए हुए, पशु के आधा भाग शरीर से, दो पंखों से तथा चोंच युक्त हो कर प्रकट हुए। उनके दाँत विशाल तथा अति तीक्ष्ण थे। वे वज्रतुल्य नख रूपी अस्त्र से सुशोभित हो रहे थे। उनका कण्ठ कृष्णवर्ण का था। वे प्रलय के समय उत्पन्न मेघ के समान भयंकर तथा गम्भीर ध्वनि कर रहे थे। उनके तीनों नेत्र क्रोध से फैले हुए विशाल आग के गोले के समान हो रहे थे।
उन्हें देखते ही भगवान विष्णु का बल तथा पराक्रम नष्ट हो गया। उन्होंने एक सौ आठ नामों से शरभरूप भगवान शिव की स्तुति की और नृसिंह रूप को त्याग दिया। उसी समय से भगवान शंकर नृसिंह के चर्म को वस्त्र के रूप में धारण करने लगे और नृसिंह का मुण्ड उनकी मुण्डमाला में मणि के रूप में शोभा पाने लगा।
नृसिंहकृत्तिवसनस्तदाप्रभृति शङ्करः।
वक्त्रं तन्मुण्डमालायां नायकत्वेन कल्पितम्॥
– लिंगपुराण अध्याय ९६.११५