श्री गणपति आदि देव, सर्वजगत के पति अर्थात् पालन करने वाले हैं। अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायक, परात्पर, पूर्णतम, परब्रह्म, परमात्मा ही ‘गणनाथ’ एवं ‘विनायक’ कहे गए हैं।
वाल्मीकिजी ब्रह्मपुराणान्तर्गत ‘श्रीगणेश कविअष्टकम्’ में लिखते हैं –
विद्यात्रे त्रयीमुख्यवेदांश्च योगं, महाविष्णवे चागमाञ् शङ्कराय ।
दिशन्तं च सूर्याय विद्यारहस्यं, कविं बुद्धिनाथं कवीनां नमामि ।।
अर्थात् जो विधाता (ब्रह्माजी) को ‘वेदत्रयी’ के नाम से प्रसिद्ध मुख्य वेदों का, महाविष्णु को योग का, शंकर को आगमों का और सूर्य देव को विद्या के रहस्य का उपदेश देते हैं, उन कवियों के बुद्धिनाथ एवं कवि गणेशजी को मैं नमस्कार करता हूँ।
गोस्वामी तुलसीदास महाराज अपने आराध्य परब्रह्म परमेश्वर भगवान प्रभु श्रीराम के चरित्र श्रीरामचरितमानस के प्रारंभ में गणों के नायक अर्थात् श्री गणपति गणेशजी से प्रार्थना करते हैं –
जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।
करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन।।
गणों के नायक अर्थात गणपति कौन हैं?
गणपति – ‘गणानां पतिः गणपतिः’ – गण अर्थात् समूह का पालन करने वाले (परमात्मा) को गणपति कहते हैं। गण शब्द समूह का वाचक है। ‘गणपत्यथर्वशीर्ष- १’ के अनुसार ‘गणपति’ शब्द से ब्रह्म ही निर्दिष्ट होता है। यथा -“ॐ नमस्ते गणपतये त्वमेव केवलं कर्तासि, त्वमेव केवलं धर्तासि, त्वमेव केवलं हर्तासि, त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मसि।”
पञ्चदेव में गणपति का स्थान –
ब्रह्मा, विष्णु, महेश, शक्ति व गणपति – यह पञ्चदेव एक ही ईश्वर के कार्यानुसार व्यक्त रूप हैं। ईश्वर सृजन का कार्य ब्रह्मा, हिरण्यगर्भ अथवा सूर्य के रूप में करते हैं, पालन का कार्य विष्णु के रूप में, संहार का कार्य महेश के रूप में, निग्रह का कार्य शक्ति के रूप में और अनुग्रह का कार्य गणपति के रूप में करते हैं।
ब्रह्मा के उपासक ‘सौर’ – ‘सूर्य’ को मुख्यअंगी और शेष चारों को उनके अंग मानकर पूजते हैं, इसी प्रकार ‘वैष्णव’ मुख्यअंगी के रूप में विष्णु को, शैव शिव को, शाक्त – शक्ति को और गाणपत्य गणेश जी को मुख्यअंगी मानते हुए शेष चारों को उनके अंग मान कर उपासना करते हैं।
पञ्चतत्वों (आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी) में ‘जल’ तत्व इस भौतिक सृष्टि का मूल तत्व है, और जल तत्व के अधिपति गणपति हैं, अतः प्रथम पूज्य हैं “आदौ पूज्यो विनायकः”।
आदित्यं गणनाथं च देवीं रूद्रं च केशवम् ।
पंचदैवतमित्युक्तं सर्वकर्मसु पूजयेत् ॥
सृष्टि के उत्पादन में आसुरी शक्तियों द्वारा जो विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न की जाती हैं, उनका निवारण करने के लिए सृष्टि के प्रारंभ से ही भगवान गणपति के रूप में प्रकट हो कर ब्रह्माजी के कार्य में सहायक होते आये हैं। इस सृष्टि को शिव-शक्तिमय कहा गया है, परमेश्वर (परब्रह्म) की प्रकृति अर्थात माया को ही ‘शक्ति’ कहते हैं। जिस प्रकार व्यक्ति से व्यक्ति की कार्य करने की शक्ति अलग नहीं हो सकती ठीक उसी प्रकार परमेश्वर से स्वातंत्र्य शक्ति पराशक्ति अलग नहीं हो सकती। सदाशिव (परब्रह्म) शक्ति से युक्त हो कर ही सृष्टि की रचना करते हैं। यथा –
मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं च महेश्वरम् ।
तस्यवयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत् ॥
– श्वेताश्वतरोपनिषत् ४.१०
प्रकृति को माया समझना चाहिए और महेश्वर को मायापति समझें, उन्हीं के अंगभूत कारण-कार्य-समुदाय से सम्पूर्ण जगत व्याप्त है।
जिस प्रकार प्रकृति – पुरुष के संयोग से सृष्टि होती है, वैसे ही भगवान शिव तथा भगवती उमा से विघ्न – बाधाओं के निवारण के लिए श्रीगणेशजी का आविर्भाव होता है। शिव पुराण के अनुसार “एक समय शंकरजी से वर प्राप्त करके असुर अजेय हो गए, तब देवों की प्रार्थना पर शंकर – पार्वती के पुत्र के रूप में ‘विघ्नेश्वर’ का प्रादुर्भाव हुआ।“ जिन्हें गजानन, एकदन्त, वक्रतुण्ड, लम्बोदर आदि नामों से हम जानते हैं।
गजानन – धर्म सम्राट करपात्रीजी महाराज के अनुसार – शास्त्रों में नर-पद से प्रणवात्मक सोपाधिक ब्रह्म कहा गया है। ‘नराज्जातानि तत्वानि नाराणीति बिदुबुर्धा’। (गज + आनन) गज = ग = समाधिना योगिनो यत्र गच्छन्ति इति ‘गः’। ज = यस्माद् बिम्बप्रतिबिम्बतया प्रणवात्मकंजगज्जायते इति ‘जः’।
अर्थात् समाधि से योगीजन जिस परमतत्व को प्राप्त करते हैं, वह ‘ग’ है और जैसे बिम्ब से प्रतिबिम्ब उत्पन्न होता है, उसे ‘ज’ कहते हैं। सोपाधिक ‘त्वं’ पदार्थात्मक नर गणेश का पदादिकंठपर्यन्त देह है। यह सोपाधिक होने से निरुपाधिकापेक्षया निकृष्ट है, अतएव अधोभूतांग है। निरुपाधिक सर्वोत्कृष्ट ‘तत’-पदार्थमय गणेशजी का कंठादिमस्तकपर्यन्त गज-स्वरुप है; क्योंकि वह निरुपाधिक होने से सर्वोत्कृष्ट है। सम्पूर्ण पदादि-मस्तक-पर्यन्त देह ‘असि-पदार्थ’ अखण्डैकरस है।
एकदन्त – ‘एक’ शब्द ‘माया’ का बोधक है और ‘दन्त’ शब्द ‘मायिक’ का बोधक है। मुद्गलपुराण के अनुसार :
एकशब्दात्मिकता माया तस्याः सर्वं समुद्भवम् ।
दन्तः सत्ताधरस्तत्र मायाचालक उच्यते ॥
अर्थात् गणेशजी में माया और मायिक का योग होने से वे ‘एकदन्त’ कहलाते हैं।
वक्रतुण्ड – ‘वक्रम् आत्मरूपं मुखं यस्य’ – वक्र का अर्थ है टेढ़ा, आत्मस्वरूप टेढ़ा है; क्योंकि यह सम्पूर्ण जगत् तो मनोवचनों का गोचर है, किन्तु आत्मतत्व उनका मन-वाणी का अविषय है। यथा –
कण्ठाधो मायायायुक्तं मस्तकं ब्रह्मवाचकम् ।
वक्राख्यं येन विघ्नेशस्तेनायं वक्रतुण्डकः ॥
लम्बोदर – भगवान गणेश लम्बोदर हैं क्योंकि उनके उदर में ही समस्त प्रपंच प्रतिष्ठित हैं और वे स्वयं किसी के उदर में नहीं हैं। यथा – ‘तस्योदरात् समुत्पन्नं नाना विश्वं न संशयः’।
मूषक वाहन –
भगवान गणपति का वाहन ‘मूषक’ सर्व अंतर्यामी, सर्व प्राणियों के हृदय रूपी बिल में रहने वाला, सर्व जंतुओं के भोगों को भोगने वाला ही है। वह चोर भी है; क्योंकि जंतुओं के अज्ञात सर्वस्व को हरने वाला है। उसको कोई जानता नहीं है; क्योंकि माया से गूढ़ रूप अंतर्यामी ही समस्त भोगों को भोगता है। इसीलिए वह ‘भोक्तारं सर्वतपसाम्’ कहा गया है। ‘मूष स्तेये’ – धातु से मूषक शब्द निष्पन्न होता है। जैसे मूषक अन्य प्राणियों की सर्वभोग्य वस्तुओं को चुराकर भी पुण्य-पापों से विवर्जित रहता है, वैसे ही मायागूढ़ सर्वअंतर्यामी भी सब भोगों को भोगता हुआ पुण्य-पापों से विवर्जित है। वह सर्वान्तर्यामी गणपति की सेवा की लिए मूषक-रूप धारण कर उनका वाहन बना है।
कुछ लोग शंका करते हैं कि जब गणेशजी शिवजी के पुत्र हैं तब प्रथम पूज्य और आदि देव कैसे हुए?
वास्तव में गणेशजी किसी के पुत्र नहीं हैं। वे अज, अनादि एवं अनन्त हैं। ये जो शिवजी के पुत्र गणेशजी हैं – वे विघ्नहर्ता गणपति के अवतार हैं। जैसे विष्णु अनादि हैं और वे वाराह, वामन, मत्स्य, राम, कृष्ण आदि के रूप में अवतरित हुए, ठीक उसी प्रकार! मूल रूप से पञ्चदेव एक ही ईश्वर के कार्यानुसार व्यक्त रूप हैं।