यदि भारतीय सिनेमा जगत की बात की जाय तो विवेक अग्निहोत्री ने “द कश्मीर फाइल्स” से जिस प्रकार भुला दी गयी कश्मीरी पंडितों की पीड़ा और मुस्लिम कट्टरपंथियों की हकीकत को दिखाया है उससे यह निकल कर आता है कि क्यों अब तक कश्मीरी पंडितों के दुखों को बांटती कोई फ़िल्म नहीं बनी?
जबकि सेकुलर और लुटियंस के जुबान पर गुजरात दंगा सदा रहता है और इस विषय पर कई फिल्में भी बनी हैं। इन्ही फिल्मों को दिखा-दिखा कर हाफिज सईद, अजहर मसूद जैसे आतंकी नये मुजाहिदीन तैयार करते हैं। वहीं ‘द कश्मीर फाइल्स’ को रियल न कह कर प्रोपेगैंडा कह कर दुष्प्रचार किया जा रहा है। कई नेता ऐसे हैं जिनका मोटो दलित राजनीति और आरक्षण है। कश्मीर पर वह क्यों आज तक मौन हैं। सेकुलिरिज्म को बचाने की कवायद क्यू रोज होती है? क्योंकि सेकुलिरिज्म के ढहने से कई राजनीतिक पार्टियां विलुप्त हो जाएँगी।
किस तरह कश्मीरी पंडित अपने घरों से भगा दिए गये जो आज वह दिल्ली में व अन्य राज्यों में शरणार्थी बन कर रहने को विवश हैं लेकिन क्या मजाल कि 1989-90 के घाटी के मंजर पर बात हो। एक बात जो स्पष्ट है कि जिस तरह हिंदुत्व के लिए रामानंद सागर के “रामायण” ने भूमिका निभाई थी; कुछ वैसे ही हिंदुओं को एकजुट और धार्मिक एकता को मजबूत करने में “द कश्मीर फाइल्स” की भूमिका होने वाली है।
हिन्दू जातीय खाँचे में ढल गया; जब तक उसकी जाति वाला न मारा जाएगा, वह तमाशा ज्यादा देखता है।
एक वर्ग ऐसा है जो कह रहा है कि घाटी में पंडितों ने संघर्ष नहीं किया। यह वही हाल है जैसे कहा जाए कि हिंदुओं ने गजनवी, गोरी और बाबर जैसे बर्बरों से संघर्ष नहीं किया। संघर्ष का एक इतिहास है जिससे आज हिन्दू बचा है। वास्तव में हम भीतरघातियों और नेताओं के कारण पराजित हुये हैं। उदाहरण स्वरूप घाटी में घटित बर्बरता से ज्यादातर हिन्दू अंजान हैं। किस तरह पंडितों की औरतों का बलात्कार किया गया और उन्हें आरे से काट दिया गया।
जिन हिंदुओं को गुलामी काल में कश्मीर के बर्बर शासकों द्वारा अनेकों प्रयास के बाद भी मातृभूमि से दूर न कर पाया गया उन्हें स्वतंत्रत भारत में अपनी मातृभूमि से भगा दिया गया।
अग्निहोत्री साहब गांधी वध के बाद महाराष्ट्र में नेहरू के समय चितपावन ब्राह्मणों के सरकारी और कैडर आधारित किये गये नरसंघार पर एक फ़िल्म बनायें, जिससे एक और दबा हुआ सच बाहर निकल सके।
भारत के शांति और सुरक्षा के लिए ‘मजहबी’ हमेशा से एक चुनौती रहे हैं किंतु इन ‘मजहबियों’ को बल कौन देता है? राजनीति! इसी बल के कारण पंडितों को जिंदा रहने के लिए घाटी छोड़ना पड़ा। उन्हें कोई सरकारी सहायता नहीं मिली।
‘मजहबियों’ को राजनीति क्यों शरण देती है इसको दो उदाहरण से समझ सकते हैं एक बंगाल और केरल का चुनाव और दूसरा उत्तर प्रदेश के चुनाव से। विपक्षी पार्टी के एक तिहाई विधायक मुस्लिम हैं। अब ऐसे में ये पार्टियां सत्ता के लिए मौलवियों से ज्यादा मुखर रहती हैं।
यदि पैदाइश और राजनीतिक संरक्षण ‘मजहब’ को मिलता रहा तो यकीन मानिये भारत के कई क्षेत्रों में घाटी से बदतर हालात बनेंगे। नेता मजहब की ढाल बन जायेगा। हिंदुओं के पास कुछ विकल्प ही रह जायेगा जैसे वह धर्मांतरित हो जाएँ, देश छोड़ शरणार्थी बन जाएं या फिर युद्ध करें। क्योंकि मजहबी देश का मतलब है अशांति, मारकाट, बम विस्फोट, मुजहदीनो के लिए लड़कियों का अपहरण। यही सब तो आज मजहबी देशों में आए दिन होता है, वहां कौन सा हिंदू बैर के लिए बैठा है?
अब यह आप पर है कि जातीय सोच से आगे निकल कर हिंदू बनते हैं कि सेकुलर बनकर अपने ही भाइयों की हत्या करवाते हैं। सेकुलरों के लिए मजेदार बात यह है कि सेकुलिरिज्म ने एक विचार से बढ़कर आज एक धर्म का रूप ले लिया है और इस स्वयं के गढ़े धर्म के बचाव के लिए ‘सेकुलिरिस्ट टेररिस्ट’ को संरक्षण देने से भी नहीं चूकता है।
कश्मीर घाटी में जब बात कश्मीरी पंडितों की होती है तब मुस्लिम कहता है कि हमें भी कम प्रताड़ना नहीं मिली थी। सवाल उठता है यह प्रताड़ना मस्जिदों से कैसे लाउडस्पीकर लगा कर बकायदा तकरीर की जाती थी कि हमें क्या चाहिए आजादी, कश्मीर को आजाद मुल्क बनाना है, कश्मीरी पंडितों के बैगेर, पंडितों के औरतों के साथ..।
कैसे इसकी गूंज भारत भर में पहुँचती? क्योंकि उस समय का मीडिया एक खास नैरेटिव के साथ था, इसे दिखाने से एक पारिवारिक पार्टी का वोटबैंक जो खराब हो जाता।
गजनवी, गोरी, बाबर, अकबर, औरंगजेब, टीपू सुल्तान पर वास्तविक चित्रण के साथ फिल्में मुम्बई सिनेमा नहीं बनाता। कभी अकबर और टीपू सुल्तान पर फिल्में बनी भी तो उन्हें एक नायक और प्रेमी की तरह दिखाया जाता है।
विदेशी मुसलमानों की बर्बरता को फिल्मों के माध्यम से ही सही किंतु सही चित्रांकन तो किया जाय। मुहम्मद बिन कासिम, गजनवी, गोरी, तैमूर लगड़ा, बाबर, अकबर, शाहजहां, टीपू, मोपला दंगे, भारत बटवारे, नोवाखाली, विवादित ढांचे के गिराने पर प्रतिक्रिया आदि पर फ़िल्म बना कर सत्य उजागर किया जा सकता है। तभी सेकुलिरिज्म रूपी मानसिक आतंकवाद भारतभूमि से विस्थापित हो सकेगा क्योंकि सेकुलिरिज्म तो एक राजनीतिक ढ़ाल है।
मोहम्मद के कार्टून पर कोहराम हो सकता है किंतु इतनी बड़ी जघन्य नृशंसता पर आपका मौन कहता है कि आप उसी के खून हो जिसने मुसलमानों को भारत में सफल होने दिया, जिसने हिंदू राजाओं के साथ गद्दारी की आखिर मौन रहना भी तो अपराध को बढ़ावा देना ही है।