इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान् ।
एकं सद् विप्रा बहुधा वदंत्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहु: ।। – ऋग्वेद (1/164/46)
जिसे लोग इन्द्र, मित्र, वरुण आदि कहते हैं, वह सत्ता केवल एक ही है, ऋषि लोग उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं।
जिसे कोई नेत्रों से भी नहीं देख सकता, परंतु जिसके द्वारा नेत्रों को दर्शन शक्ति प्राप्त होती है, तू उसे ही ईश्वर जान। नेत्रों द्वारा दिखाई देने वाले जिस तत्व की मनुष्य उपासना करते हैं वह ईश्वर नहीं है। जिनके शब्द को कानों के द्वारा कोई सुन नहीं सकता, किंतु जिनसे इन कानों को सुनने की क्षमता प्राप्त होती है उसी को तू ईश्वर समझ। परंतु कानों द्वारा सुने जाने वाले जिस तत्व की उपासना की जाती है, वह ईश्वर नहीं है। जो प्राण के द्वारा प्रेरित नहीं होता किंतु जिससे प्राणशक्ति प्रेरणा प्राप्त करता है उसे तू ईश्वर जान। प्राणशक्ति से चेष्टावान हुए जिन तत्वों की उपासना की जाती है, वह ईश्वर नहीं है। (4,5,6,7,8)- केनोपनिषद
ईश्वर न तो भगवान है, न देवता, न दानव और न ही प्रकृति या उसकी अन्य कोई शक्ति। ईश्वर एक ही है अलग-अलग नहीं। ईश्वर अजन्मा है। जिन्होंने जन्म लिया है और जो मृत्यु को प्राप्त हो गए हैं या फिर अजर-अमर हो गए हैं वे सभी ईश्वर नहीं हैं। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, राम, कृष्ण, बुद्ध भी ईश्वर नहीं है, क्योंकि ये सभी प्रकट और जन्मे हैं।
‘जो सर्वप्रथम ईश्वर को इहलोक और परलोक में अलग-अलग रूपों में देखता है, वह मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है अर्थात उसे बारम्बार जन्म-मरण के चक्र में फंसना पड़ता है।’- कठोपनिषद 10
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना।
कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥
आनन रहित सकल रस भोगी।
बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥ – रामचरितमानस
उस परमेश्वर के हाथ, पाँव, आँखें, सिर , मुंह, तथा कान हर जगह है इस प्रकार परमात्मा सभी वस्तुओ में मौजूद रहकर स्थित है। गीता 13/14
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः ।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ॥
पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ॥
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् ।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ॥ गीता 7/6,7,8,9,10
हे अर्जुन! मैं सम्पूर्ण जगत का निर्माता,पालनकर्ता एवं संहारक हूँ। मुझसे उच्चतर कुछ और नही है। यह सम्पूर्ण मुझमे उसी प्रकार गुथा हुआ है जैसे सूत्र (धागे) में मणियों गुंथी होती हैं।
मैं जल में रस हूँ, चन्द्रमा और सूर्य में तेज (प्रकाश) हूँ, सम्पूर्ण वेदों में ओंकार हूँ, आकाश में ध्वनि और पुरुषों में पुरुषत्व हूँ। मैं पृथ्वी में स्थित सुगंध हूँ ,अग्नि में तेज हूँ तथा सम्पूर्ण जीवों में चेतना और तपस्वियों में तप हूँ। मैं सम्पूर्ण चराचर की उत्पत्ति का बीज हूँ। (मैं) बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वियों का तेज हूँ।
कबीरदास जी कहते हैं:
प्रभुता को सब कोई भजे, प्रभु को भजे न कोय ।
कहे कबीर प्रभु को भजे, प्रभुता चेरी होय।।
इशारा हर एक ग्रन्थ में एक ही है, बस समझ और बुद्धि का फेर।
कुछ बातें हैं जो मन में बैठ जाती हैं, उनको हटाना ज़रूरी है। प्रभु अर्थात वो जो ‘है’, वो जो एकमात्र सत्ता है। ये शाब्दिक अर्थ हुआ प्रभु का। जिस एक की सत्ता है, जो एक सत्ता है, सो प्रभु।
हम समझते हैं कि रचनाकार एक है और उसकी रचना एक जबकि कोई रचनाकार नहीं है। कोई माया भी नहीं है। प्रभु को ब्रह्म कहना और प्रभुता को माया कहना, वो भी भूल है, क्योंकि जहाँ पर सिर्फ़ एक सत्ता है, वहाँ दो कहाँ से आ गए? ये भेद कहाँ से पैदा हो गया कि ‘ब्रह्म है और माया है’, कि ‘सत्य है और सत्य की छाया है’? ये भेद कहाँ से आ गया? गलती उसी पल शुरू हो जाती है जब प्रभु को और प्रभुता को अलग-अलग समझा जाता है।
आप कहते हैं कि “हमें पहाड़ दिखाई पड़ता है, हमें बादल दिखाई पड़ते हैं पर हमें उनको बनानेवाला नहीं दिखाई देता”। नहीं, पहाड़ और बादल किसी ने निर्मित नहीं किये हैं। पहाड़ और बादल, प्रभु की प्रभुता नहीं हैं। पहाड़ और बादल ही प्रभु हैं। उनको प्रभुता कहना ही भूल है।
मनुष्य से मूल भूल उसी दिन प्रारंभ हो गयी थी, जिस दिन उसने ये द्वैत खड़ा करा था कि “कहीं कोई ईश्वर है और बाकी सब कुछ उस ईश्वर की रचना है”। कोई रचना नहीं है, कोई रचनाकार नहीं है। कोई भेद नहीं है, न माया को ठुकराना है, न ब्रह्म को पाना है। माया और ब्रह्म का कोई पृथक अस्तित्व है ही नहीं। जो माया और ब्रह्म को पृथक देख रहा है, वो ब्रह्म को नहीं जानता। जिसने ब्रह्म को जान लिया, उसके लिए माया बचेगी नहीं।
‘ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति’। माया कहाँ है अब? माया है ही तभी तक जब तक उसे ब्रह्म से पृथक जानेंगे। यही माया की परिभाषा है। कुछ भी ईश्वर से अलग समझना ही माया है। जहाँ कहीं आपने उस एक की सत्ता नहीं देखी, वही माया है। माया कहीं है नहीं, आपका अविश्वास कि “यहाँ भी ईश्वर है, वहाँ भी ईश्वर है”, इसमें आपका विश्वास न होना ही माया है | अन्यथा माया का कोई अस्तित्व ही नहीं। इसीलिए माया को जानने वालो ने कहा है कि “वो माया जो न होते हुए भी, होने से भी सत्यतर लगती है। है कहीं नहीं पर लगती है कि ‘है’। माया वो जो है नहीं, वो सिर्फ़ छलती है। वो छलावा है। वो वास्तव में नहीं है।
जिसे हम विस्तृत समझते हैं, वही धोखा है, जो अलग-अलग है वही भ्रम है।
तो माया क्या है? माया का प्रतीत होना ही माया है। माया मात्र एक छल है, जो आपको छल ही तब तक रही है जब तक आपको प्रतीत हो रही है। माया को समझकर माया से मुक्त नहीं होते। माया से मुक्त वो है जिसको अब माया दिखती ही नहीं। हमें अक्सर ये लगा है कि हमने अगर संसार को समझ लिया तो संसार से मुक्त हो जाएंगे और किसको पा जाएंगे? प्रभु को?
कुछ ऐसी ही बात होती है कि “फ़िर सब व्यर्थ लगने लगता है और मात्र प्रभु ही आकर्षक लगता है”। और बहुत समय से सन्यासियों ने और योगियों ने कुछ ऐसी ही बात की है कि “संसार को समझो, संसार की निःसारता को जानो ताकि संसार को त्याग सको और उस एक परम की शरण में जा सको”।
गलती है यहाँ पर, चूक हो रही है। जिसको अभी संसार दिखाई दे रहा है, वो संसार को त्याग नहीं सकता वह तो सिर्फ़ भेद करेगा कि “यहाँ तक संसार है और उसके बाद सृष्टा है। यहाँ तक सृष्टि है और उसके बाद सृष्टा है”। वो निरंतर भेद की भाषा में, द्वैत की भाषा में बात करेगा। वो फँसेगा। वो अंतर कर रहा है। भेद ही तो संसार है और संसार, माया की गहरी से गहरी चाल ये है कि आप माया और ब्रह्म में भेद कर दो। जब भेदपूर्ण दृष्टि ही सांसारिक दृष्टि है, तो संसार में और सत्य में भेद करना क्या हुआ? ये सत्य की दृष्टि हुई या सांसारिक दृष्टि हुई? जो दृष्टि संसार में और सत्य में भेद करती हो, वो सत्य की दृष्टि है या संसार की दृष्टि है?
यह संसार की दृष्टि है और आप तब तक फँसे रहेंगे जब तक इस भाषा में बात करेंगे कि सत्य और संसार अलग-अलग हैं, रचना और रचयिता अलग-अलग हैं, माया और ब्रह्म अलग-अलग हैं। जब तक इस भाषा में बात करेंगे, फँसे रहेंगे। क्योंकि ये भेद करना ही मूल गलती है।
धार्मिक आदमी वो नहीं है जो मंदिर जाता है, धार्मिक आदमी वो है जिसे मंदिर जाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती क्योंकि उसके लिए हर दिशा मंदिर है। वो जिस जगह खड़ा है वो जगह मंदिर है। वो मंदिर को अपने साथ लेकर चलता है। वो है, धार्मिक आदमी। वो विभाजन कर ही नहीं सकता।
वो रेत पर खड़ा है तो रेत मंदिर है, पत्थर पर खड़ा है तो पत्थर मंदिर है, इमारत पर खड़ा है तो इमारत मंदिर है। उसको किसी मूर्ति की आवश्यकता नहीं है, उसको किसी विशेष कक्ष की आवश्यकता नहीं है कि “यहाँ पर ही मेरी पूजा होगी”। जितनी भी मूर्तियाँ हैं, जो भी कुछ मूर्त रूप में है, वही पूजनीय है। अमूर्त को आप पूज कैसे सकते हैं? आपने तो अमूर्त को ही पूजने के लिए मूर्त बनाया तो यदि मूर्त को ही पूजना है तो जो कुछ भी मूर्त है, पुजिये ना उसको। मूर्त यानी जिसका आकार है, जिसका रूप है। वो धार्मिक आदमी है जिसके लिए सब कुछ पूजनीय है। और जब सब कुछ पूजनीय होता है तब पूजा कोई विशेष कर्म नहीं रह जाती। जब चौबीस घंटे आराधना ही कर रहे हो तो क्या हाथ जोड़कर खड़े रहेंगे? न सर नवाँएंगे, ना हाथ जोड़ेंगे चौबीस घंटे हम और कुछ करते ही नहीं हैं पूजा के अलावा”। तो हमारी पूजा किसी को दिखाई नहीं देगी, जो पल दो पल को पूजा करते हों वो बड़े पुजारी लगेंगे। उन्हें बड़ा कर्म-कांड करना पड़ेगा। “भाई हफ़्ते में एक बार आये हैं पूजा करने तो ज़ोर-शोर से उनकी पूजा होगी, घोषणाओं के साथ और जो चौबीस घंटे पूजता हो उसकी पूजा तो नज़र भी नहीं आएगी, वो पूजा के अलावा कुछ और करता ही नहीं वो प्रभु में ही रमता है। यही सत्य है।
इनके अलावे वो सभी बातें सत्य की श्रेणी में ही आती हैं जैसे आकाश नीला है, चीनी गुड़ या मिठाई मीठी है, आदि, लेकिन मनुष्य के जीवन का पहला सत्य उसका जन्म है और आखिरी सत्य है मृत्यु।
Satya hi jivan ko agrasar hone me sahayak h.
Saya ko apnakr hi ye jivan saphal rahega.