बहुत से परिवर्तन समय खुद कर देता है। विकास का भी वही हाल हाल है। कुछ समय बीतने के साथ समय की चाल से होता जाता है और कुछ सिस्टमेटिक होते हैं, जिनकी कार्य योजना बना कर की जाती है।
भारत में सब का पता है, बस सिस्टम गायब है। दूसरे देश में हम जिन नियमों का पालन करते हैं वही नियम अपने देश में तोड़ देते हैं। हर चीज को देखने का नजरिया भी जातिगत और क्षेत्रगत बना लिए हैं। समस्या तक पहुँचने से पहले ही फिसल जा रहे हैं। 135 करोड़ का देश जहाँ अनुशासन बहुत जरूरी है। पुलिस व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन की दरकार है जिससे कानून सही ढंग से काम करे। नेता, नीति और व्यवस्था तक सीमित रहे तो ही बेहतर है। कानून भी लोगों को न्याय जल्दी दे। लोगों के मिलने से ही समाज बनता है और लोगों के सुधरने से ही समाज सुधार और व्यक्ति सुशिक्षित बनता है।
कृषि की तरफ देखें तो वह भारतीय अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार रही है, लेकिन 1992 के उदारीकरण और सेवा क्षेत्र को बढ़ाने से कृषि में न के बराबर निवेश और सरकारी एजेंडे से गायब होना, आज किसान की स्थिति को ख़राब कर रहा है यहाँ तक कि आज हमारा ध्यान भी कृषि, किसान और गांव से हट गया है।
शहरों की बढ़ती कतार और सामाजिक आधुनिकीकरण की वजह से आज की पीढ़ी को गांव तो बिल्कुल रास नहीं आ रहा है, उनको लगता है कि गांव में रहेंगे तो उनका विकास प्रभावित हो जायेगा। उसका एक मुख्य कारण है गांव में मूलभूत सुविधा का आभाव जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार। लेकिन हमें समझना होगा कि ग्रामीण विकास के माध्यम से ही हम गांव बचा सकते हैं। समय रहते इस पर ध्यान नहीं दिया गया और कृषि में पूँजी निवेश, तकनीक निवेश नहीं किया गया, गांव के हिस्से में बड़े उद्योग नहीं स्थापित हुये तो गांव की सांस पहले उखड़ रही है उसे दम तोड़ते देर नहीं लगेगी।
कभी कहा जाता था
उत्तम खेती मध्यम बान, अधम चाकरी भीख निदान।।
2008 की विश्व आर्थिक मंदी पर ध्यान दें, जिस समय अमेरिका और इंग्लैंड में शहरों के बाहरी इलाकों में लोग खुले घूमते जानवरों को भी खाने के लिए पकड़ लेते थे, उस समय भी भारत को मंदी से बचाने का कार्य किया कृषि और भारतीय घरों में नारी की शक्ति द्वारा गृहस्थी से बचा के रखे गये पैसे ने।
इस समय अमेरिका और चीन के बीच हो रहे आर्थिक युद्ध से एक बार फिर आर्थिक मंदी का खतरा मंडरा रहा है। भारत मे भी खाद्यान्न जरूरत की मांग में प्रति वर्ष वृद्धि हो रही है। भारत में बढ़ती जनसंख्या से भी अर्थव्यवस्था पर भारी दबाव है।
खेती न किसान को, वली वनिज को वणिक।
चाकर को न चाकरी, सिद्धमान सोच यही।
कहा जायी क्या करी।।
वैज्ञानिक और तकनीकि विकास जरूरत के अनुसार भारत में नहीं हो पा रहा है। सामाजिक समस्या आर्थिक विकास को प्रभावित कर रही है। देखा जाय तो भारत के पास संसाधनों की कोई कमी नहीं है, बस उसका सही उपयोग और वितरण नहीं हो पा रहा है।
भारत में सभी चीजों में राजनीति इतने अंदर तक घुसी हुई है कि अन्य क्षेत्रों और संस्थाओं को सही ढंग से काम नहीं करने देती। नेता विचार करने लगता है कि इससे मेरा क्या लाभ और जो मुफ्त खा रहा है वह भी सोचता है कि यह सरकार ठीक नहीं पहले वाली तो बिना कुछ किये घर और पेंशन दी थी, ये वाली कुछ नहीं दे पा रही है।
नेता और जनता की इसी सोच कि वजह से विकास के पैसों को मुफ्त बाँटने के कार्यो में लगा दिया जाता है जबकि होना यह चाहिए कि कोई हाथ बिना रोजगार न रह जाय। लोग स्वयं अपना विकास करें, मुफ्त के प्रचलन को बढ़ा कर श्रम और अर्थव्यवस्था दोनों को मंद किया जा रहा है।
सकारात्मक सोच, श्रम, नीति और उद्योग यदि मिल जाय तो भारत जो अभी लगभग 2 प्रतिशत का निर्यात करता है उसमें अप्रतिम वृद्धि की जा सकती है। इतिहास हमें बताता है कि एक ऐसा भी समय था जब भारत 30 प्रतिशत अकेले विश्व को निर्यात करता था, विश्व मैन्युफैक्चरिंग का हब था। आज तो इस बात से भी प्रेरणा ली जा सकती है। श्रम शक्ति को बस दिशा चाहिए जिससे लोगों को भी लगने लगे कि वह देश निर्माण में भागीदारी कर रहे हैं।
Vyapar aur adhunikta ke chakkar me krishi peeche chut ja rhi ha