वर्ण कर्म से अथवा जन्म से?

spot_img

About Author

एक विचार
एक विचार
विचारक

जब से धर्म का राजनीतिकरण हुआ है तब से यह बड़ा ही ज्वलंत प्रश्न बना हुआ है। आर्यसमाज आदि मत की बात ही क्या करें सनातनी भी इस पर एकमत नहीं होते।

धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी का विचार था कि कर्मणा वर्ण मानने पर दिन भर में ही अनेक बार वर्ण बदलते रहेंगे। फिर व्यवस्था क्या होगी? वे जन्म के आधार पर ही वर्ण को मानने के पक्षधर थे।

दूसरी ओर कुछ विद्वानों के विचारों में वर्ण कर्म के आधार पर हैं। उनके विचारों के आधार भी शास्त्र ही हैं। यथा, वज्रसूचिकोपनिषद के अनुसार देखने पर ब्राह्मण वर्ण ही कर्म के आधार पर प्रतीत होता है।

इस लेख में हम इसी विषय पर विचार करेंगे।

तत्रैतदात्मनो मनोऽवच्छेदेन ज्ञानानामुत्थानप्रतिबन्धका धर्मा उपसन्ना ज्ञानव्याघातः पाप्मा। क्रियोत्थानप्रतिबन्धका धर्माः प्राणावच्छेदेनोपसन्नाः क्रियाव्याघातः पाप्मा। अर्थोपलब्धिप्रतिबन्धका धर्मा वागवच्छेदेनोपासन्ना अर्थव्याघातः पाप्मा। तेषां चायमप्रतिबन्धो वीर्यम्। तत् त्रिविधम्-ब्रह्म, क्षत्रम्, विडिति।

मन सम्पूर्ण ज्ञानों का, प्राण सब क्रियाओं का और वाक् रूप सब पदार्थों का उत्पादक है। बल के अनंत भेद हैं, उनमें कुछ विरोधी बल ऐसे भी होते हैं, जो मन, प्राण, वाक् में उत्पन्न होने वाले ज्ञान आदि का प्रतिबंध करते हैं, अर्थात उत्पन्न नहीं होने देते। उन बलों को पाप्मा अर्थात ‘पाप’ कहते हैं।

मनोमय, प्राणमय और वाङ्मय त्रिरुप आत्मा में, मन भाग में उठने वाले ज्ञान के प्रतिबंधक धर्म ज्ञान-व्याघातक पाप कहे जाते हैं। इसीप्रकार प्राणों में उत्थित होने वाली क्रियाशक्ति को रोकने वाले प्राण में प्राप्त विपरीत धर्म क्रिया-व्याघातक पाप कहलाते हैं और वाक् में उत्पन्न होने वाली अर्थ साधन-रूपता में अवरोध करने वाले, वाक् में प्राप्त विपरीत धर्म अर्थ-व्याघातक पाप कहे जाते हैं।

इन तीनों पाप रूप बलों को हटाकर जो बलरूप धर्म, ज्ञान, क्रिया एवं अर्थों की उत्पत्ति में सहायक होते हैं ― उनको वीर्य कहते हैं। ये वीर्य ही ब्रह्म, क्षत्र, और विड् तीन जाति के हैं।

जिसके द्वारा आत्मा में दिव्य भाव बनता है, आत्मा के मन भाग में होने वाले ज्ञान रूप उदर्क अर्थात परिणाम, के उदय अर्थात विकास का जो अप्रतिबन्धक – प्रतिबंध को हटाने वाला है, वह वीर्य ‘ब्रह्मवीर्य’ कहलाता है। जहाँ यह वीर्य प्रचुर मात्रा में रहता है, वहां इस वीर्य से ‘ब्रह्मवर्चस’ नामक तेज, उसके अनुकूल विलक्षण आकार और तप, विद्या, बुद्धि आदि बल उत्पन्न होते हैं।

जिसके द्वारा आत्मा में वीरभाव बनता है, वह, आत्मा के प्राण भाग में होने वाले क्रिया रूप परिणाम के विकास का अप्रतिबन्धक (प्रतिबंध को हटाने वाला) ‘क्षत्रवीर्य’ है। 

इस वीर्य की प्रधानता से ओज और वाज नामक तेज, इस बल के अनुकूल विलक्षण आकार और ऐश्वर्य, पराक्रम, उत्साह, प्रताप आदि बल उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार जिसके द्वारा आत्मा में विड् भाव बनता है, वह आत्मा के ‘वाक्’ भाग में आत्मा के वाह्य धर्म बनने वाले संपत्ति रूप पदार्थों के विकास का अप्रतिबन्धक वीर्य, ‘विड्वीर्य’ के नाम से जाना जाता है। विड्वीर्य की अधिकता से द्युम्न नामक तेज उसके अनुरूप आकार और वाणिज्य, धन आदि बल उत्पन्न होते हैं।

मध्यप्राण दो प्रकार का होता है ― सवीर्य और निर्वीर्य। सवीर्य के उपरोक्त तीन (ब्रह्म, क्षत्र और विड्) भेद हैं, अब जो निर्वीर्य प्राण होता है उसे ‘शूद्र’ रूप बताया जाता है। यहां निर्वीर्य का अर्थ यह नहीं है कि उनमें कोई वीर्य है ही नहीं बल्कि अभिप्राय यह है कि उनमें कोई भी वीर्य प्रचुर मात्रा में नहीं है। “नात्मबलानामन्यतमसिद्धिः, तव् वीर्य शूद्ररूपम्”

ध्यान दें, ये वीर्य सृष्टि की आदि में उत्पन्न हुए हैं और इनके आधार पर ही हमारी यह वर्ण व्यवस्था प्रचलित है। ब्रह्म वीर्य जिसमें प्रधान है वह ब्रह्म अथवा ब्राह्मण कहलाता है। क्षत्रवीर्य प्रधान क्षत्रिय और विड्वीर्य प्रधान वैश्य कहलाता है। यद्यपि सोम की सर्वत्र व्यापकता रहने के कारण, सोम के परिमाण रूप ये तीनों ही वीर्य सब जगह रहते हैं किंतु भिन्न-भिन्न वर्ग में किसी एक की अधिकता के कारण वह प्रधान हो जाता है।

यह ‘आत्मा के बल’ हैं जहां आत्मा के इन बलों का अभाव या न्यूनता होती है, केवल शारीरिक बल ही होता है, वह शूद्र कहा जाता है।

यह वर्ण विभाग जगत् में सर्वव्यापक है अर्थात संसार के सभी पदार्थों में, सोमलता आदि लताओं में तथा रत्न, धातु आदि अचल पदार्थों में, पशु-पक्षी, देवता, नक्षत्र आदि सभी में है।

बृहदारण्यक उपनिषद आदि में देवताओं के वर्ण को भी इसी आधार पर बताया गया है।

अतः वर्ण जन्म के आधार पर ही सिद्ध होता है। यह भी ज्ञातव्य है कि कुछ मात्रा में सभी में सब वीर्य रहते हैं, एक प्रधान और अन्य अप्रधान या गौड़ भाव से रहते हैं। कहीं-कहीं किसी विशेष कारण से गौड़वीर्य के प्रधान हो जाने पर भी उपरोक्त नियम के आधार पर चलने वाली हमारी वर्ण व्यवस्था विचलित नहीं होती।

यही कारण है कि भीष्म आदि में प्रबल ज्ञान का विकास होने पर भी ब्राह्मणरूपता का, तथा परशुराम, द्रोणाचार्य आदि में पूर्ण वीरभाव जागृत होने पर भी क्षत्रियरूपता का व्यवहार नहीं हुआ।

विश्वामित्र को जो ब्राह्मणत्व प्राप्त हुआ वह तो तपस्या तथा योग द्वारा स्थापित वीर्य के आधार पर है। वे जिस ‘चरु’ के द्वारा उत्पन्न हुए थे, ऋचीक महर्षि ने तपस्या द्वारा उस ‘चरु’ में आदान किया था, यह आख्यान महाभारत, पुराणों में स्पष्ट है।

वाल्मीकि जन्म से ब्राह्मण थे, भावी के कारण अन्य कर्म से जीवन यापन कर रहे थे किन्तु जैसे ही  ब्रह्मवीर्य के अनुसार कर्म आरंभ किया, आदिकवि कहे गए।

आधुनिक समय में जाति व्यवस्था प्रभावी होने पर ‘आत्मा के बल’ (वीर्य) की सर्वथा उपेक्षा होती है किन्तु हमारे विचार से यह स्थिति भी इतनी बुरी इसलिए नहीं है क्योंकि ब्रह्म, क्षत्र आदि भाव शिक्षण-प्रशिक्षण के द्वारा जागृत की जाती है। हां, यह अवश्य है कि यदि मूल रूप में लिया जाता तो जो आज भी कमियां दिखती हैं, वे भी नहीं रहतीं।

अब ध्यान देने वाली और समझने वाली बात यह है कि वर्ण न ही शरीर का धर्म है और न ही आत्मा का।

जन्म के अनुसार वर्ण होने पर भी ब्राह्मण वर्ण शरीर का नहीं हो सकता, जैसे ब्रह्माणकुल में जन्म लेकर यदि कोई शूद्रवत कर्म करे तो क्या वह ब्राह्मण हो सकता है? अथवा सभी शरीर तो पंचभूतों के बने होते हैं।  वज्रसूचिकोपनिषद के अनुसार मृत पिता की देह जलाने पर पुत्र को भी ब्रह्महत्या लग जायेगी।

आत्मा का माने तो जो आज ब्राह्मण है वह सभी जन्मों में ब्राह्मण ही रहेगा। छान्दोग्य उपनिषद की ‘पञ्चाग्नि विद्या’ में जो कहा गया है कि जो प्राणी यहां उत्तम कर्मो का अनुष्ठान करते हैं वे दूसरे जन्म में ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि उत्तम योनियों में जन्म लेते हैं और जो दुराचारी होते हैं वे मरणान्तर दूसरे जन्म में स्वान, शूकर आदि बुरी योनियों को प्राप्त होते हैं― यह सब निर्मूल सिद्ध होगा। अतः न शरीर ब्राह्मण हो सकता है और न आत्मा। (वज्रसूचिकोपनिषद)

निष्कर्ष यह निकला कि आत्मा का बल (वीर्य) जन्म से ही प्राप्त होता है, अतः वर्ण जन्म से सिद्ध है।

अस्वीकरण: प्रस्तुत लेख, लेखक/लेखिका के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो। उपयोग की गई चित्र/चित्रों की जिम्मेदारी भी लेखक/लेखिका स्वयं वहन करते/करती हैं।
Disclaimer: The opinions expressed in this article are the author’s own and do not reflect the views of the संभाषण Team. The author also bears the responsibility for the image/images used.

About Author

एक विचार
एक विचार
विचारक
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

About Author

एक विचार
एक विचार
विचारक

कुछ लोकप्रिय लेख

कुछ रोचक लेख