ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, इटली, पुर्तगाल और स्पेन ने मिलकर एशिया, अफ्रीका, अमेरिका, आस्ट्रेलिया या यूँ कहें कि लगभग पूरे विश्व पर शासन किया। विश्व के विभिन्न देशों को कालोनी बनाने के लिए किसी देश ने UNO में माफी प्रस्ताव अब तक नहीं रखा है।
20वीं सदी के शुरुआत में एक नया देश अमेरिका सैनिक और आर्थिक रूप से उभरा, उसे अपने लिए विश्व में बाजार चाहिए था। विश्व का पवार हाउस अभी तक यूरोप रहा था। जिसमें ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी अग्रणी रहे थे। नियम है कि वर्चस्व की होड़ युद्ध को जन्म देती है।
उपनिवेशों की बढ़ती होड़ ने यूरोप को संधि और प्रतिसन्धियों में बांध दिया था। बिट्रेन, फ्रांस और जर्मनी एक दूसरे पर बढ़त चाहते थे। 1913 में ऑस्ट्रिया के राजकुमार की हत्या ने यूरोप को महायुद्ध में झोंक दिया जिसका परिणाम था जर्मनी के साथ ‘वर्साय की संधि’।
वर्साय की संधि और राष्ट्रसंघ के निर्माण से महायुद्ध को रोकने की बात की गई। लेकिन बड़े देशों के मामले में राष्ट्रसंघ प्रभावशाली नहीं था क्योंकि इसमें अमेरिका जैसा शक्तिशाली देश शामिल नहीं था इसलिए ब्रिटेन – फ्रांस ने जैसे चाहा इसका प्रयोग किया।
वर्साय की संधि द्वितीय महायुद्ध की गाथा लिख चुकी थी, बस उसे हिटलर की जरूरत थी। फ्रांस और ब्रिटेन के तुष्टिकरण ने जर्मनी को बढ़ने का मौका दिया। 1939 में हिटलर के पोलैंड पर आक्रमण करने से द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हुआ। वैसे देखा जाय तो दोनों युद्ध यूरोप के इर्दगिर्द ही थे बस जापान की महत्वाकांक्षा को छोड़ कर जिसे अमेरिका ने अणुबम और परमाणुबम ( लिटिल बॉय और फैंटम) छोड़कर खत्म किया।
अब आते हैं आज के तृतीय विश्वयुद्ध की बिछती विसात पर, यूरोप और एशिया में विवाद लगातार गहरा रहे हैं। गुट बनाने की लगातार कोशिशें हो रही हैं। चीन की अपनी महत्वाकांक्षा है तो वहीं इस्लाम की अलग कहानी है। इस समय जब कि विश्व यूक्रेन विवाद पर नजर गड़ाये है, उसी समय पाकिस्तान की मस्जिद में बम फूट रहे हैं। सुन्नी शिया को नहीं रहने देगा “नारे तक़बीर अल्लाह हू अकबर”। खैर छोड़िए इस नालायक को, मुद्दे पर आते हैं।
अमेरिका इस नई सदी में ईरान, अफगानिस्तान और सीरिया में घुसा, कोई निंदा प्रस्ताव सयुक्त राष्ट्र संघ में आया? क्यों नहीं आया, क्या आपने विचार किया?
समझिए, विश्व राजनीतिक का नेता अमेरिका आज सयुक्त राष्ट्र संघ, विश्व बैंक, IMF, WTO और नाटो के माध्यम अपने दुश्मन को घेरता है। जिस प्रकार से वह नोबल पुरस्कार अपने लोगों को या अपने समान विचारधारा के लोगों को देता है, उसी प्रकार वह अपने शत्रु को विश्व का दुश्मन घोषित करा देता है।
सुरक्षा परिषद की स्थाई सीट से विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश भारत बाहर है, यह लोकतंत्र का सबसे बड़ा मजाक बनाना है। शक्ति का केन्द्रण कुछ हाथों तक रहे जिससे दुनिया को कठपुतली की भाँति नचाया जा सके।
अफगानिस्तान पर नियंत्रण के समय तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश का बयान था कि ‘जो अमेरिका की तरफ नहीं है, वह आतंकवाद के साथ है’। जिस चेचन आतंकवाद की पाठशाला रूस के लिए अमेरिका ने लगाई, उसी ने वर्ल्ड ट्रेड सेंटर उड़ा दी। तब जाकर अमेरिका का छींका टूटा, अब यह आतंकवाद है। याद रहे कि भारत में सिलसिलेवार हुये आतंकी कार्यवाही में उसे आतंकवाद नजर नहीं आया था।
क्यूबा से कोरिया तक, अरब से यूक्रेन तक, ईरान से साउथ अफ्रीका तक, हिंदमहासागर से प्रशान्त तक केवल अमेरिका अपनी बादशाहत चाहता है।
कोई भी दो देश युद्ध करें, अमेरिका के हथियारों की बिक्री तो बढ़ेगी। भारत पर दबाव बनाता है कि ईरान, उत्तर कोरिया, रूस आदि से सम्बन्ध न रखे।
भारत की भूमिका को लेकर विश्व में इतनी चर्चा क्यों हैं जबकि पूरा विश्व जानता है कि रूस भारत का मित्र देश है।
अमेरिका की बादशाहत भी बस एक महायुद्ध तक ही बची है, उसके बाद कोई नया देश विश्व का नेतृत्व करेगा।
यूक्रेन यूरोप और अमेरिका के झांसे में युद्ध कर बैठा है जिसका खामियाजा भी भुगत रहा है। बड़े वृक्ष के नीचे छोटे पौधे, घास तो पनप सकते हैं, वृक्ष नहीं।
जैसे किराना वाला सोचता है कि आपके घर में रोज उत्सव हो, डॉक्टर सोचता है कि बीमारी हो, वकील दो पक्षों के मध्य विवाद ढूढता है उसी प्रकार मौत के सौदागर हथियार का व्यापर चाहता है। सभी अपनी दुकान ही चलाना चाहते हैं। आप नाहक ही अपनी राजनीति घुसेड़ रहे हैं।
सब खेल व्यापार और बादशाहत का है। यदि आप सोच रहे हैं कि कोई देश किसी अन्य देश का लाभ कराना चाहता है तो यह कदापि सत्य नहीं है। वास्तविकता यह है कि विश्व के प्राचीनतम पेशे जैसे वेश्यावृत्ति, राजनीति या हथियारों का व्यापार आज भी लाभदायक बने हुए हैं।