काहे का लोकतंत्र

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Dhananjay Gangey
Dhananjay gangey
Journalist, Thinker, Motivational speaker, Writer, Astrologer🚩🚩

आइये भारतीय सिस्टम को समझा जाय। सबसे पहले न्यायपालिका पर विचार करिये और देखिये कि जो मुकदमा दायर किया गया है (किसी के द्वारा या किसी के ऊपर) उसमें कितनी सच्चाई है? तब पता चलेगा मामले को वकील और पुलिस ने मिल कर क्या से क्या बना दिया है। सब के अपने जज मैनेज हैं। लोगों का कहना है कि शासनवर्ग में सब बिकते हैं। उपहार, पैसे या सेक्स से बस मैनेजमेंट करने वाला चाहिए।

सच्चाई की राह पर सौ कठिनाइयां हैं। यदि ईमानदारी, कर्तव्य और जिम्मेदारी से सरकारी अमले में भी काम करेगें तो कोई करने नहीं देगा। सब दुश्मन बन कर आपको ही भ्रष्ट्राचारी घोषित कर देंगे।
भारत में दिक्कत संविधान से है जिसने इतने लूप छोड़े हैं कि ये बच निकलते हैं। भ्रष्ट्राचारीयों को भी संरक्षण मिल जाता है। जब बना था तब पूरा का पूरा सिस्टम कालोनियन व्यवस्था के तहत बनाया गया था।

भारतीय संविधान कई देशों से लिया है। ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, आयरलैंड, ऑस्ट्रेलिया, द0 अफ्रीका से ज़्यादातर संविधान को कॉपी पेस्ट किया गया। यह सभी पूर्व में ब्रिटिश उपनिवेश रहे थे। धीरूभाई अम्बानी भारतीय व्यवस्था पर कहते थे “मैं कुत्तों के लिए बिस्किट साथ ले कर चलता हूँ जिससें वह रास्ता न रोकें”।

हाल के मामले देखें, ट्रांसपोर्ट सिस्टम को सही करने के लिए जो नया सुधार 2019 लाया गया है, उसके तहत आज ड्राइविंग लाइसेंस बनवाने जाइये तो तीन महीने की वेटिंग मिल रही है। लेकिन वहीं घूस देकर तुरंत काम करवा सकते हैं। समझने वाली बात यह है कि भारतीय व्यवस्था को इतनी बुरी तरह प्रभावित किया गया कि अपने ही अपनों के शोषक बन गये हैं। प्रधान, सचिव, कोटेदार, लेखपाल, ब्लॉक सचिव और थाने की पुलिस सभी भ्रष्ट्राचार में डूबें हैं। सिर्फ अंग्रेज चले गये हैं लेकिन मैकाले के काले अंग्रेज ही व्यवस्था के पोषक हैं।

आज जनता सभी जगह परेशान ही परेशान है। गाड़ियों के जो चालान किये जा रहे हैं यदि शासन चाहे तो जो पैसे लिए गये उसी में से जो कमी है उसे ही बनवा कर दे सकती है। आज तो सब कुछ ऑनलाइन भी हो गया है। लेकिन किसी को जनता की क्या पड़ी है।

पुलिस तंत्र जो 19वीं सदी में जिस अंग्रेजी उद्देश्यपूर्ति के लिए बनाई गई थी वह आज 21वीं सदी में उसी उद्देश्य को पूरा कर रही है। कानून के नाम पर लूट जारी है। थाने जाने का अर्थ है कि दोषी ऊपर से गाली – गलौच थानेदार की अलग से। नेता की बात करें तो पूरे बंदोबस्त को धता बताने वाला नेता चुनाव ही गलत तरीके से जीत कर आता है, चुनाव आयोग ने जो खर्च की राशि निर्धारित की है उससे कई गुना ज्यादा खर्च करके। सेवा ने आज व्यापार का रूप ले लिया है।

जाति, पाति, वर्ग और धर्म सभी सत्ता प्राप्ति के छलावे हैं। सरकार को भी पता है कि कहाँ कितना भ्रष्ट्राचार है लेकिन वह भी हिस्सेदार है। बुनियादी सुविधाओं से लोगों को आज भी दूर रखा गया है। मध्यवर्ग की कीमत भेड़ – बकरी से ज्यादा नहीं है। सरकारी हॉस्पिटल, बस, साधारण डिब्बों की ट्रेन वह हकीकत बया करती है। सभी मूल्यों पर व्यवहारिक बोध हावी है “कितनी घूस कितने बार” सब बिके हैं यह आप पर है कि कुत्ते को कितना बिस्किट दे कर मना लेते हैं।

जातियों में भावनाओं की प्रबलता से नेताओं को अभी तक चुनाव जीतने में बहुत लाभ रहा है। तीन बड़ी जातियों को अपने पाले में डाल कर सत्ता की कुर्सी चमका सकते हैं। यह फार्मूला भी ब्रिटिश उपनिवेश पर आधारित है, बाटो और राज करो। लोग आपस में लड़ के सत्ता फिर आपको देंगे। मुख्य मुद्दें कभी निकल के बाहर नहीं आ पायेगे।

कभी – कभी लगता है कि राजतंत्र ही क्या बुरा था? एक ही राजा, एक ही गुंडा। लोकतंत्र में अनगिनत राजा बन चुके हैं। गुंडों की तो बात ही न करिये। सरकारी बाबू की अभी भी मौज कट रही है।

असंगठित मध्यमवर्ग और किसान भगवान और भाग्य को कोस कर उम्मीदों के सहारे चल रहा है कि एक दिन भगवान न्याय करेगा, बस वह दिन बहुत दूर दिखाई देता है क्योंकि लालच मेरी है, व्यवस्था मेरी है तो सुधार मेरी होनी चाहिए लेकिन मेरा बस नहीं चलता है। हाँ सुनते जरुर हैं कि नकल का भारतीय संविधान बहुत अच्छा है, यह लोकतंत्र सबसे अच्छा सिस्टम है, सेकुलर सबसे बढ़िया चारा है लेकिन बस सुनते हैं …


नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।

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अस्वीकरण: प्रस्तुत लेख, लेखक/लेखिका के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो। उपयोग की गई चित्र/चित्रों की जिम्मेदारी भी लेखक/लेखिका स्वयं वहन करते/करती हैं।
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