स्त्री विमर्श का अर्थ विक्टिम कार्ड खेलना नहीं है। नारी का शोषण यदि कहीं है तब इसका जिम्मेदार कौन है, पुरुषवादी सोच या कुछ और?
स्त्री पुरुष की जननी है और माता के रूप में संतान की प्रथम गुरु भी है। संस्कार निर्माण के समय पुत्र सबसे अधिक माता के पास ही रहता है। जीवन में उसके माता के स्थान को सिर्फ उसकी पत्नी ही भर पाती है जो एक स्त्री ही है।
“नास्ति मात्र समो गुरु” अर्थात माता के समान कोई गुरु नहीं ऐसा वाचन उपनिषद करते हैं। माता को प्रथम गुरु कहा जाता है। वही पुरुष फिर लिखता है कि अपने पुत्र के लिए माँ भगवान की तरह होती है। “मातृ देवो भव:“
कुछ बंधन जो आज हमें प्रतीत होते हैं, वास्तव में नहीं हैं, वह बंधन भी समाज को बांधे रखने का कारण हैं। वास्तविकता यही है कि हमारी संस्कृति माँ के इर्द – गिर्द घूमती है।
अब वही नारी फेमिनिस्ट और फैशन के नाम पर माँ होने का विक्टिम कार्ड चला रही है। मानव एक सामाजिक प्राणी है, एकांतिक जीवन की जगह परस्पर सहयोग पर आधारित जीवन जीने में विश्वास करता है। स्त्री – पुरुष समाज के लिए दो इकाई अवश्य हैं किन्तु मानसिक व धार्मिक स्तर पर भी दो न होकर वह एक ही हैं। उदाहरणार्थ अर्धनारीश्वर की कल्पना, पुरुष के शरीर में “आत्मा” को स्त्रीलिंग नाम देना आदि।
निश्चित रूप से घृणा से यह मानवता विकसित नहीं हुई है, उसका कारण दो लोगों का सौहार्द पूर्ण परस्पर मिलन ही रहा है संघर्ष नहीं। सृष्टि और सृजन हेतु कुछ हवन करने पड़ते हैं लेकिन आज तो इसकी बात ही क्या? फिगर के चक्कर में मातृत्व भी उधार लेना पड़ रहा है। पैसे से किसी अन्य स्त्री की भावना को खरीद लिया जा रहा है। यह व्यवस्था समाज को चैतन्य न रख कर जड़ता व हीनता को रोपित करती है।
आज पशुवृत्ति में जिसको चाहा शरीर सौप कर फिर “एबॉर्शन” करा स्वतंत्रता की उच्चतम मानकता को स्थापित कर लिया गया है। यह सोच अंत में समाज को ही पागल कर देती है, वासना का संसार नहीं होता है अपितु संसार में कुछ वासनाएं होती हैं। वासना के दर्शन के अनुकूल स्वतंत्रता को गढ़ा जाना विकृति है। यदि पुरुष में ही सब कमियां हैं तो पुरुष का ही परित्याग करो, एक अलग दुनिया नारी की ही बना लो जहाँ पुरुष जात दूर – दूर न हो किंचित समस्या का हल निकल आये। लेकिन निरंतर अपने दु:ख का रोपण करके किसी के जीवन को नष्टमय नहीं किया जाना चाहिए।
स्त्री स्वतंत्र रूप से “स्त्री” ही है उसे पुरुष न बनाइये। यहाँ मुंशी प्रेमचंद ने बहुत सुंदर शब्दों को पंक्तिबध्य किया है कि “जब पुरुष में स्त्री के गुण आ जाते हैं तब वह ‘देवत्व’ को प्राप्त कर लेता है लेकिन वहीं स्त्री में जब पुरुष के गुण आ जाते हैं तो वह ‘कुल्टा’ हो जाती है।
राम के लिए सीता का क्या महत्व है यह राम ही बेहतर जान सकते हैं जिन्होंने रावण द्वारा सीता हरण होने पर उनकी खोज के समय कहा कि “हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम्ह देखी सीता मृगनैनी।।” वही राम सीता के सम्मान के लिए रावण जैसे प्रतापी का वंश ही समाप्त कर देते हैं।
आज कुछ ऐसी फेमिनिस्ट भी हैं जिन्हें स्त्री क्या होती है यह तक नहीं पता, वह राम पर ही प्रश्न करती हैं।
आज का फेमिनिस्ट विचार स्त्री की उन्नति के लिए नहीं बल्कि अवनति के लिए बनाया गया है, जिसमें स्वछंद रूप, सेक्स और नशा करने की आजादी निहित है। परिवार नामक भारतीय संस्कृति को सदा के लिए दफ़न करना निहित है। विवाह और मातृत्व को संस्कार की श्रेणी से निकाल कर जरूरत रूप में बाजार में खड़ा कर देना निहित है।
अब कहीं आप मेरे पुरुष होने को नारी विरोध में मत ले लेना क्योंकि मेरी “जननी” एक स्त्री है, जिनके लिए मेरा पूरा जीवन समर्पित है।
हे नारी तुम ही माँ हो, अनुजा, तनुजा और सहधर्मिणी हो। तुम बेजान दीवारों की घेरा बंदी को घर बना देती हो। तुम्हारा प्रताप जंगली पुरुष को भी पिता बना देता है।
अब स्त्री को ही विचार करना है कि सच्चाई कहाँ तक है? अपराध से विचार धाराएं, संस्कार नहीं बदले जाते हैं। जो कमियां, रूढ़ियां हैं उन्हें दुरुस्त किया जाता है। आदि काल से ही भारतीय संस्कृति में नारी का भान और अभिमान दोनों रहे हैं, नारी को भोग्या और भौतिक वस्तु न बनाइये। आज तो बहुत कुछ हास्यास्पद है जैसे नारी के आदर्श को आज बालीबुड – हॉलीबुड की नर्तकियों ने ले लिया है।
नोट: प्रस्तुत लेख, लेखक के निजी विचार हैं, यह आवश्यक नहीं कि संभाषण टीम इससे सहमत हो।
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