भारतीय संस्कृति और शिक्षा

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ईश्वर ने सृष्टि की उत्पत्ति के बाद मनुष्यों की रचना की, बुद्धि और विवेक की क्षमता प्रदान की, सोचने और समझने की शक्ति प्रदान की। फिर इसे सही प्रकार से समझने और इसका लाभ को लेने के लिए के लिए वेदों की रचना की, बाद में उपवेद, उपनिषद बने। उनको उदाहरण के रूप में समझाने के लिए पुराणों को लिखा गया। रामायण और महाभारत के रूप में दिखाया गया कि अमुक परिस्थिति में निर्णय कैसा होना चाहिए।

राम के रूप में मर्यादा पुरुषोत्तम की व्याख्या की गई, कृष्ण रूप में संसार के छल- प्रपंच से लड़ने की कला सिखाई गई।

सब कुछ सही था, जैसा होना चाहिए वैसा चल रहा था। गुरुकुलों में वेद, उपनिषद आदि की शिक्षाएं दी जाती थी। लेकिन करीब 800 साल की गुलामी ने सारी व्यवस्थाएं ध्वस्त कर दीं। 

भारतीय संस्कृति के महानता के दम पर सारी आक्रामकता को झेलते हुए भी हम सुरक्षित बाहर तो निकल गए लेकिन मानसिक रूप से गुलाम ही रह गये। गुरुकुलों की शिक्षा व्यवस्था जाती रही। वेद, उपनिषद आदि धर्म ग्रंथो को तो योजनाबद्ध तरीके से हमसे पहले ही दूर कर दिया गया था, जिसे हम आज तक न समझ सके।

Max Muller, Leonard Bloomfield, ग्रिफ्फिथ आदि का वेदों का अनुवाद करते समय हर संभव प्रयास था कि किसी भी प्रकार से वेदों को इतना भ्रामक सिद्ध कर दिया जाए कि फिर हिंदुओं का ही वेदों से विश्वास उठ जाए और वे वेदों का विरोध करने लगे और ईसाई मत के प्रचार-प्रसार में कोई कठिनाई न हो।

मैक्स मुलर, मैकाले सरीखे लोगों ने भारत में क्या पढ़ाया जाए, इस तक को निर्धारित किया। मैक्समूलर जैसे संस्कृत के ज्ञाताओं के माध्यम से वेदों का ऐसा अनुवाद कराया गया जिससे वह भ्रामक हो जाएं और लोग उन्हें पढ़ना ही बंद कर दें और हुआ भी बिल्कुल वैसा ही। मैक्स मूलर के अपनी पत्नी को लिखे एक पत्र के अनुसार “ईसाई मिशनरियों व गिरिजाघरों में विशेष रूप से भारतीय वेदों, शास्त्रों को एक विशेष तरीके से अनुवाद करने की ट्रेनिंग दी गयी है जिससे भारतीय वेदों को भ्रष्ट किया गया और इन्ही भ्रष्ट हो चुके वेदों के ज्ञान पर हिंदूओ ने विश्वास करना बंद कर दिया अतः वो अपने कार्य में सफल रहे।”

बाद के समय में भारत में मैक्समूलर का गुणगान भी किया गया और कुछ लोगों ने तो मैक्समूलर द्वारा स्वामी दयानंद के लिए कुछ शब्दों को लेकर उन्हें संत और भारतीय संस्कृति का रक्षक ही बना दिया।

जिन वेदों में ईश्वर, ब्रह्म, ब्रह्मांड, ज्योतिष, गणित, रसायन, औषधि, प्रकृति, खगोल, भूगोल, धार्मिक नियम, इतिहास, रीति-रिवाज समेत सभी विषयों से संबंधित ज्ञान है उन्हें आज आप सामान्य घरों में नहीं देख पाएंगे। भारतीय संस्कृति के जनक वेदों का ज्ञान धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है। हालात यह है कि जिस सामवेद की करीब एक हजार शाखाएं थीं, इसमें से अब केवल 16 शाखाएं ही बची हैं। यही नहीं इन सोलह शाखाओं में भी अब तक केवल तीन शाखाओं को जानने वाले विद्वान ही सामने आ पाए हैं।

वेद समस्त ज्ञान के मूल थे, उन्हें सबसे पहले पढ़ा जाना चाहिए था और उनके बाद उपनिषद, पुराण, रामायण, महाभारत और गीता का स्थान था। लेकिन ऐसी स्थिति पैदा की गई कि वेदों की तो कोई गिनती ही न रही और गीता प्रमुख ग्रन्थ बनी। जितने भी राजनीतिक पंडित हुए, उन्होंने गीता की व्याख्या की, वेदों की क्यों नहीं की? उसके पीछे कारण था कि गीता विश्व का सबसे महान दर्शन है, 18 अध्याय और 700 श्लोकों की गीता के एक-एक श्लोक से एक-एक पुस्तक लिखी जा सकती है। ऐसा नहीं है कि गीता में कुछ भी गलत है लेकिन ये कुछ इस प्रकार से है जैसे दूसरी कक्षा के बच्चे को दसवीं की पुस्तक पढ़ाई जाय। क्या समझेगा वो? केवल भ्रमित होगा और ठीक ऐसा ही हुआ। लोगों ने गीता पढ़ा लेकिन मूल को न समझ पाए। जिस राम और कृष्ण को जीवन जीने कि कला सीखाने के लिए ईश्वर ने चुना वो उन्ही राम, कृष्ण का पैर पकड़ कर ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं, मोक्ष प्राप्त करना चाहते हैं जब कि राम, कृष्ण को व्यक्ति के खुद के जीवन में धारण करने के लिए दिखाया गया।

अनन्ता वै वेदाः (तैत्तिरीयब्राह्मणम् – 3/10/11 )

तात्पर्य है कि ऋचाओं के रूप में वेदों में ज्ञान के मूल सूत्र दिए गए हैं। इसीलिए उनके अर्थ का अनंत विस्तार किया जा सकता है और मनुष्य किसी भी काल में अपने ज्ञान का विस्तार किसी भी दिशा या क्षेत्र में करेगा, उसका आधार वे ऋचाएं ही होंगी।

आज पश्चिमी सभ्यता का भारत पर ऐसा प्रभाव पड़ा है कि जब पूरा विश्व पूर्व में सूरज तलाश रहा है तब हम पश्चिम में मुँह कर अपना भविष्य तलाश रहे हैं। आज विश्व “अर्थ डे” मना रहा है लेकिन इसके लिए आगे क्या करना है? यह नहीं पता। आज की पीढ़ी कहती है कि हमारे पास विज्ञान की ताकत है, रास्ते जरूर मिलेंगे।

अब उनसे एक बार पूछिये कि जिस धरती से सूर्य की दूरी जानने के लिए NASA जैसी रिसर्च संस्था ने खरबों रुपए खर्च किये वो तो तुलसी दास ने हनुमान चालीसा के “जुग सहस्त्र योजन पर भानू।” में बता दिया था। (एक युग यानी 12000 वर्ष, सहस्त्र यानी 1000 वर्ष, एक योजन यानी आठ मील और एक मील में 1.6 किमी। यदि इन सभी आंकड़ों का गुणा करें, तो कुल नौ करोड़ 60 लाख मील आते हैं। इसे किमी बनाने के लिए 1.6 का गुणा करने पर पंद्रह करोड़ छत्तिस लाख किमी होते हैं। यह उतनी ही दूरी है, जितनी नासा ने 152 मिलियन किमी बताई।)

पंचतंत्र में दो मछलियों और एक मेढ़क की कथा आती है।

एक तालाब में दो बड़ी मछलियां, सहस्त्रबुद्धी और शतबुद्धी रहती थीं। एक बुद्धि नामक मेंढक उन दोनों मछलियों का एक करीबी दोस्त था। वो तालाब के किनारे पर एक दूसरे के साथ बहुत समय बिताया करते थे।

एक शाम जब वे तालाब के किनारे इकट्ठे हुए थे, उन्होंने कुछ मछुआरों को आते देखा। उनके पास जाल और बड़ी टोकरी थी, जिनमें उनके द्वारा पकड़ी गई मछलियां भरी हुयी थी।

तालाब से गुजरते समय, उन्होंने देखा कि तालाब मछलियों से भरा था। उनमें से एक ने दूसरों से कहा, “हम कल सुबह यहाँ आयेंगे, यह तालाब बहुत गहरा नहीं है, और मछलियों से भरा है।”

मछुआरों की बातें सुनकर मेंढक उदास हो गया था और उसने कहा, “हे मित्र, हमें तय करना चाहिए कि क्या करना है, कहाँ जाना है या छिपना है। ये मछुआरों कल सुबह लौट आएंगे!”

मछलियों को ज्यादा परवाह नहीं थी पहली मछली ने कहा, “हे मित्र, यह कुछ मछुआरों की बस वार्ता है, चिंता न करें, क्योंकि वे नहीं आएंगे और अगर वो आये भी, तो मुझे बहुत ही गहरे पानी का सुरक्षित जगह पता है। “मैं आसानी से अपनी और अपने परिवार की रक्षा कर सकती हूँ।

दूसरी मछली ने कहा “मुझे भी गहरे पानी में सुरक्षित स्थान का पता है मैं अपने आप को और अपने परिवार को भी बचा सकूँगी। मैं तुम्हारा समर्थन करती हूं, क्योंकि मैं कुछ मछुआरों की बात पर हमारे पूर्वजों और पूर्वजों के घर को नहीं छोडूंगी।

लेकिन मेंढक को यकीन नहीं था, उसने कहा, “मेरे दोस्त, मेरी एक बुद्धि है, मेरी एकमात्र प्रतिभा यह है कि मैं खतरे का आभास कर सकता हूं। आप रह सकते हैं, लेकिन मैं अपने परिवार के साथ सुबह से पहले किसी दूसरे तलाब को चला जाऊँगा।

अगली सुबह, मछुआरे आये और तालाब में सभी जाल डाल दिए। सहस्त्रबुद्धि और शतबुद्दी ने बचने के लिए कड़ी मेहनत की, लेकिन अंत में पकड़ी गई।

जब मछुवारे उनको ले जाने लगे तब मेढ़क दूसरे तालाब से उनको दिखाते हुए अपनी पत्नी से बोला:

शतबुद्धि सिरस्थोयं, लंबते च सहस्त्रधि:।
एक बुद्धि अहम भद्रे, क्रीड़ायाम विमले जले।।

अर्थात, देखो शतबुद्धि को उन्होंने सिर पर उठा रखा है, सहस्त्र बुद्धि को डंडे में बांध कर कंधे पर और इधर एक बुद्धि का मैं जिसके पास केवल इतनी ही प्रतिभा थी कि खतरे का आभास कर सकता था, इस सुंदर जल में विचर रहा हूँ।

इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि खतरे के पहले संकेत पर या समय पर कार्य शुरू कर देना सही मायनों में बुद्धिमता कही जाती है।

अतः अब भारतीय संस्कृति को दुबारा से पढने और समझने का समय आ गया है, अब वो समय है जब वेदों, उपनिषदों को घर-घर में पढ़ा जाये। राम और कृष्ण को अपने जीवन चरित्र में उतारा जाये।

प्राचीनकाल में धौम्य, च्यवन, द्रोणाचार्य, सांदीपनि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, वाल्मीकि, गौतम, भारद्वाज आदि ऋषियों के आश्रम प्रसिद्ध रहे। बौद्धकाल में बुद्ध, महावीर और शंकराचार्य की परंपरा से जुड़े गुरुकुल जगप्रसिद्ध थे, जहां विश्वभर से विद्यार्थी ज्ञान प्राप्त करने आते थे और गणित, ज्योतिष, खगोल, विज्ञान, भौतिक आदि सभी तरह की शिक्षा दी जाती थी। आज विद्यालय अर्थोपार्जन का माध्यम ही बन कर रह गए हैं लेकिन गुरुकुल व्यवस्था की परंपरा हमें बताती है कि देश में शिक्षा प्रणाली की व्यवस्था श्रेष्ठ थी, जिसमें कि शिक्षा के स्तर पर अमीर-गरीब का कोई भेद नहीं था। श्री कृष्ण और बलराम गुरुकुल में उस ब्राह्मण बालक सुदामा के साथ शिक्षा ग्रहण करते थे, जिसके पास कोई पारिवारिक संपत्ति नहीं थी। ऐसे एक नहीं, अनेक उदाहरण गुरुकुल शिक्षा पद्धति के दिखाई देते हैं।

स्त्री और पुरुषों की समान शिक्षा को लेकर यह गुरुकुल कितने अधिक सक्रिय थे, इसके भी कई उदाहरण हैं। उत्तररामचरितमानस में वाल्मीकि के आश्रम में लव-कुश के साथ पढ़ने वाली आत्रेयी नामक स्त्री का उल्लेख हुआ है। जो इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि सह-शिक्षा का प्रचार भारत में प्राचीनकाल से ही रहा है।

गुरुकुलों के वैदिक युगीन शिक्षा व्यवस्था को अब फिर से समाज को अपनाना होगा, केवल तभी आप अपनी आने वाली पढ़ी को एक सुरक्षित, सुदृढ़ और बेहतर भविष्य दे सकेंगे।

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Jhoola Sharma
Jhoola Sharma
4 years ago

बहुत सुन्दर बात कही है 🙏

Usha
Usha
4 years ago

Sabhi logo ko yah gyanvardhak vishay padne ke liye samay avshya hi nikalna chahiye qki eska gyan n hona sare manav jati ko pataan ki rah par lekr jayega.

Dhananjay Gangey
Dhananjay Mishra
5 years ago

भारतीय ज्ञान परम्परा को आपने सुंदर शब्दो में चित्रित किया है किंतु लोगों का कहना है उनके पास समय नहीं है
बच्चों को पेट और ऐंठ की दौड़ में ऐसा दौड़ाते है कि बच्चे बहुत आगे निकल जाते है बुजुर्ग रोते रह जाते है।भारतीय अंग्रेजो को पिता मान लिया है पहले शारीरिक गुलामी की अब मानसिक करने लगा है।

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