भारतीय दर्शन की परम्परा में ६ प्रमुख दर्शन (षड्दर्शन) जो वेदों को प्रमाण मानते हैं और इसलिए इन्हें आस्तिक दर्शन कहा जाता है, निम्नलिखित हैं :
१. सांख्य दर्शन
• प्रणेता : महर्षि कपिल।
• मुख्य सिद्धांत : यह प्रकृति और पुरुष (चेतना) के द्वैतवाद पर आधारित है। सांख्य का अर्थ है – विवेक अथवा ज्ञान। प्रकृति तथा पुरुष के विषय में अज्ञान होने से यह संसार है और जब हम इन दोनों के ‘विवेक’ को जान लेते हैं कि पुरुष प्रकृति से भिन्न है तथा स्वतन्त्र है, तब हमें मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसी विवेक-ज्ञान की प्रधानता होने से इस दर्शन का नाम सांख्य पड़ा। सांख्य दर्शन में २५ तत्त्वों का वर्णन है, जिनमें प्रकृति और पुरुष के अतिरिक्त महतत्व, अहंकार, पंच महाभूत, पंच तन्मात्रा, मन, और इंद्रियाँ सम्मिलित हैं।
२. योग दर्शन
• प्रणेता : महर्षि पतंजलि।
• मुख्य सिद्धांत : योग दर्शन आत्मसंयम, साधना और ध्यान पर विशेष बल देता है। पतंजलि के अष्टांग योग (आठ अंगों वाले योग) में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि लिए जाते हैं।
३. न्याय दर्शन :
• प्रणेता : महर्षि गौतम।
• मुख्य सिद्धांत : यह दर्शन तर्कशास्त्र और प्रमाण (ज्ञान के साधन) पर आधारित है। न्याय का अर्थ है – विभिन्न प्रमाणों की सहायता से वस्तु-तत्व की परीक्षा (प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्यायः – वात्स्यायन न्यायभाष्य)।न्याय दर्शन में चार प्रमाणों का वर्णन है: प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द। यह दर्शन सत्य ज्ञान के प्राप्ति के लिए तर्क और विश्लेषण पर बल देता है।
४. वैशेषिक दर्शन
• प्रणेता : महर्षि कणाद।
• मुख्य सिद्धांत : यह पदार्थ और उसके गुणों पर आधारित है। वैशेषिक दर्शन में नौ द्रव्यों का वर्णन है: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन, इनकी अपनी विशेषता है। विद्वानों के अनुसार ‘विशेष’ नामक पदार्थ की कल्पना करने के कारण कणाद दर्शन को वैशेषिक की संज्ञा प्राप्त हुई। यह दर्शन तत्त्वों और उनके गुणों का विश्लेषण करता है।
५. पूर्व मीमांसा (मीमांसा) दर्शन
• प्रणेता : महर्षि जैमिनि।
• मुख्य सिद्धांत : मीमांसा शब्द का अर्थ किसी वस्तु के स्वरूप का यथार्थ वर्णन है। वेद के दो भाग हैं – कर्मकांड और ज्ञानकांड। मीमांसा दर्शन वेदों के कर्मकांड और यज्ञों के महत्व को बताता है। मीमांसा दर्शन धर्म के निष्पादन के लिए वेदों के कर्मकांडों की विधियों का विवेचन करता है और इसे महत्वपूर्ण मानता है।
६. वेदान्त दर्शन (ब्रह्मसूत्र या उत्तर मीमांसा)
• प्रणेता : महर्षि वेदव्यास।
• मुख्य सिद्धांत : यह दर्शन वेदों के ज्ञानकांड (उपनिषदों) पर आधारित है और ब्रह्म (परमसत्य) को सर्वोच्च मानता है। वेदान्त के विभिन्न उपदर्शन हैं जैसे अद्वैत (शंकराचार्य), विशिष्टाद्वैत (रामानुजाचार्य), और द्वैत (मध्वाचार्य)।
ब्रह्म ही भक्ति-ज्ञान के मूल स्रोत हैं। शुकदेव के द्वारा अद्वैत ज्ञान-धारा प्रवृत हुई। शुक, गौडपाद, गोविन्दभगवत्पाद, शंकराचार्य – ये अद्वैत मार्ग की मुख्य आचार्य परम्परा है। ब्रह्म जिज्ञासा के विषय में अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत, द्वैत और अचिन्त्याभेद – यह ६ वेदान्त दर्शन के प्रमुख उपदर्शन हैं। इन सभी दर्शनों में मुख्य अंतर यह है कि ये जीव, जगत और ब्रह्म के संबंध को विभिन्न दृष्टिकोणों से समझाते हैं और प्रत्येक का विशिष्ट माध्यम और दर्शन है। इनके प्रमुख भेद निम्नलिखित हैं:
१. अद्वैत वेदान्त (अद्वैत)
• प्रणेता : आदि शंकराचार्य।
• सिद्धांत : ब्रह्म (परमसत्य) एकमात्र वास्तविकता है, और जीव (आत्मा) और जगत (संसार) माया (भ्रम, मिथ्या) हैं। जीव और ब्रह्म एक ही हैं (अहं ब्रह्मास्मि)। जब पैर में कांटा चुभता है तब आँख से पानी आता है और हाथ कांटे को निकालने के लिए जाता है, यह अद्वैत का एक उत्तम उदाहरण है।
• विशेषता : अद्वैत का अर्थ है “द्वैत रहित”, अर्थात ब्रह्म और जीव में कोई भेद नहीं है।
२. विशिष्टाद्वैत वेदान्त (विशिष्टाद्वैत)
• प्रणेता : रामानुजाचार्य।
• सिद्धांत : ब्रह्म, जीव और जगत (माया) तीनों ही सत्य हैं। जीव और (माया) जगत ब्रह्म के अंग हैं। जगत अर्थात् माया को रामानुजाचार्य ने ईश्वर द्वारा ही बनाए जाने के कारण मिथ्या नहीं माना अतः जगत और जीवात्मा दोनों ही ब्रह्म से अद्वैत हैं। यह “विशेषण युक्त अद्वैत” है।
• विशेषता : ब्रह्म विशिष्ट (विशेषताओं के साथ) है और जीव और जगत उसकी विशेषताएँ हैं।
३. शुद्धाद्वैत वेदान्त (शुद्धाद्वैत)
• प्रणेता : वल्लभाचार्य।
• सिद्धांत : केवल ब्रह्म ही सत्य है, और वह शुद्ध (अविकृत) है। जीव ब्रह्म का ही स्वरूप है, और यह माया से ग्रस्त है।
• विशेषता : शुद्ध अद्वैत का अर्थ है “शुद्ध और अविकृत अद्वैत”।
४. द्वैताद्वैत वेदान्त (द्वैताद्वैत)
• प्रणेता : निम्बार्काचार्य।
• सिद्धांत : ब्रह्म, जीव और जगत तीनों ही सत्य हैं। जीव और जगत ब्रह्म से अलग भी हैं और ब्रह्म में अभिन्न भी हैं उसी प्रकार जैसे समुद्र और उसकी एक बूँद अलग भी है और एक भी।
• विशेषता : यह द्वैत और अद्वैत दोनों का मिश्रण है।
५. द्वैत वेदान्त (द्वैत)
• प्रणेता : माध्वाचार्य।
• सिद्धांत : ब्रह्म (भगवान) और जीव (आत्मा) सदा अलग हैं। आत्मा माया से आबद्ध है जबकी ब्रह्म माया पर शासन करता है। माया उसकी चेरी है।
• विशेषता : यह पूर्ण द्वैत पर आधारित है, जहां भगवान, जीव और जगत अलग-अलग वास्तविकताएँ हैं।
६. अचिन्त्यभेदाभेद वेदान्त (अचिन्त्यभेद)
• प्रणेता : चैतन्य महाप्रभु।
• सिद्धांत : ब्रह्म, जीव और जगत में अचिन्त्य (अचिंतनीय) भेद और अभेद दोनों हैं। यह भेद और अभेद दोनों ही हैं जिस संबंध को तर्क से समझा नहीं जा सकता। जिस प्रकार गर्मी और प्रकाश अग्नि की शक्ति हैं, गर्मी और प्रकाश ऊर्जा के दो अलग – अलग रूप हैं किन्तु दोनों एक साथ हैं उन्हें अग्नि का रूप कहा जा सकता है उससे अलग उन्हें नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार आत्मा और माया ब्रह्म की ही शक्ति से कार्य करतीं हैं। दोनों हैं उसी की शक्तियां फिर भी उससे अलग – अलग भी हैं और उसके साथ भी। साधारण बुद्धि से इस रूप को पूरा ठीक से नहीं समझा जा सकता। इसे समझने के लिए प्रज्ञा चक्षु चाहिए। इसीलिए इस दर्शन को अचिन्त्यभेदाभेद नाम दिया गया है।
• विशेषता : भेद और अभेद की यह स्थिति अचिन्त्य (अचिंतनीय) है।
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